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भारत में धर्म का ‘कालचक्र’: धर्म ने समाज को कैसे समझाया इंसानियत का ‘मर्म’?

Bharat Ek Soch: आखिर वो कौन सी सोच भारत की मिट्टी पर फली-फूली, जिसमें पेड़, जानवर, इंसान सबके अस्तित्व में अपनी बेहतरी देखने की आदत बनती गई ?

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Oct 21, 2023 21:55
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news 24 editor in chief anurradha prasad special show
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Bharat Ek Soch: आखिर वो कौन सी सोच है, जिसमें भगवान शिव की भारत के दक्षिणी छोर पर समंदर किनारे रामेश्वरम में भी पूजा होती है और उत्तर में हिमालय के ऊंचे पहाड़ों के बीच अमरनाथ गुफा में भी..ऐसी कौन सी आस्था की लहर है – जिसमें श्रीकृष्ण पश्चिमी छोर पर द्वारका में भी पूजे जाते हैं और पूरब में आखिरी छोर इंफाल घाटी में भी… ऐसी किस सोच ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भारतीय जनमानस का नायक बना दिया – जिसमें उनके रास्ते पर आगे बढ़ने में सबने अपना कल्याण देखा। आखिर वो कौन सी सोच भारत की मिट्टी पर फली-फूली…जिसमें नदी, पेड़, जानवर, इंसान…जीव-र्निजीव सबके अस्तित्व में अपनी बेहतरी देखने की आदत बनती गई ? जहां नदियों की पूजा होती है…सूर्य नमस्कार में चमत्कार देखने की सोच है…जहां धरती को मां माना जाता है । पेड़ में भी परमेश्वर का वास माना जाता है…. जिस पर्यावरण संकट की बात पिछले कुछ दशकों से दुनिया में जोर-शोर से हो रही है …

पर्यावरणविद् जता रहे चिंता

पर्यावरणविद् यानी Environmentalist चिंता जता रहे हैं । उसे भारत के ऋषि-मुनियों ने हज़ारों साल पहले समझ लिया था। वेद और पुराण इस बात की गवाही देते हैं कि भारत में धर्म सिर्फ एक पूजा-पद्धति नहीं…यह मानव जीवन के आगे बढ़ाने का एक बहुत उन्नत दर्शन रहा है… सामाजिक जीवन संचालित करने और आगे बढ़ाने के लिए पथ -प्रदर्शक की भूमिका में रहा है । वैदिक काल से लेकर अब तक धर्म का मर्म समय चक्र के साथ बदलता रहा है…कभी समाज में लोगों को अनुशासित करने की भूमिका में रहा है… कभी लोगों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली मशाल के रूप में…कभी समाज में रिश्तों के बिखरते ताने-बाने को जोड़ने वाले धागे के रूप में… कभी लोगों के जीवन से उदासीनता खत्म करने वाले सारथी के रूप में… कभी विदेशी ताकतों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने वाले शक्ति स्रोत के रूप में..तो कभी वोट बैंक पॉलिटिक्स को आगे बढ़ाने के लिए ईंधन की भूमिका में । भारत में समय-समय पर आकार लेने वाली उन अलग-अलग सोच से परिचित कराने का फैसला किया है, जिन्होंने देश, काल और समाज पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है । इस कड़ी में सबसे पहले बात – धर्म के कालचक्र की ।

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सही और गलत परिस्थितियों के मुताबिक बदलते रहे

एक अरब चालीस करोड़ की आबादी वाले भारत का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक प्रवृत्ति का है …यहां सुबह-सुबह अपने आराध्य की पूजा-पाठ के बाद काम पर निकलने की परंपरा सदियों से चलती आ रही है। ज्यादातर लोगों में ये भाव हमेशा रहता है कि अगर कुछ गलत किया तो ऊपर वाला सजा देगा? दूसरों की मदद करना पुण्य और दूसरों के साथ गलत करना पाप समझा जाता है । आखिर, भारतीय जनमानस में पाप-पुण्य का विचार कहां से आया ? इस पाप-पुण्य के पीछे कौन सा दर्शन काम करता है…सही और गलत कैसे देश, काल और परिस्थितियों के मुताबिक बदलते रहते हैं। आखिर ऐसी सोच के समाज में आकार लेने की वजह क्या रही… एक सामान्य भारतीय के लिए धर्म के मायने क्या हैं ? पूजा-पाठ के दौरान अक्सर जिस संकल्प मंत्र जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते… की गूंज सुनाई देती है – उसमें आखिर जम्मू दीपे से क्या मतलब है? क्या आज के भारत के नक्शे से तब का जम्मू दीप बड़ा था या छोटा…जम्बूद्वीप, भारतवर्ष और आर्यावर्त में क्या अंतर है।

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हलचल से धरती द्वीपों में बंटने लगी

ऋग्वेद में कुछ इसी तरह से जीव की उत्पत्ति का जिक्र किया गया है। ऋग्वेद की रचना करीब साढ़े तीन हजार साल पहले मानी जाती है…विज्ञान भी मानता है कभी सभी द्वीप आपस में जुड़े थे… पृथ्वी में बड़ी हलचल से धरती द्वीपों में बंटने लगी…बाद में हिमालय के निचले हिस्से को पार कर लोग बसने लगे…जो आर्य कहलाये। लाखों साल में कई बदलावों से गुजरते हुए दुनिया का मौजूदा नक्शा हमारी आखों के सामने हैं … जम्मूद्वीप, भारतवर्ष और आर्यावर्त का अक्सर जिक्र होता रहता है। अब सवाल उठता है कि क्या ये सभी धरती के एक ही हिस्से के अलग-अलग नाम हैं या समय के साथ इनकी सीमा बदलती रही है? क्या मौजूदा भारत के नक्शे से बड़ा था जम्मू द्वीप का नक्शा ? क्या आर्यावर्त आज के भारत के नक्शे से छोटा था ?

एक हिस्सा समझने वाली सोच

जम्बू द्वीप से छोटा भारतवर्ष…भारतवर्ष में ही आर्यावर्त और हिंदू पूजा-पद्धति में संकल्प के दौरान तीनों नाम के जिक्र का कहीं-न-कहीं मतलब है…सबसे गहरा जुड़ाव। पूरी दुनिया को एक देखने और खुद को उसका एक हिस्सा समझने वाली सोच। वक्त का पहिया आगे बढता गया …सरहद बदलती गई । भले ही समय के साथ सीमाएं नए सिरे से परिभाषित हुई हों…लेकिन, इतिहास और भूगोल बताता है कि पृथ्वी पर सबसे बेहतर मौसम और रहने लायक स्थितियां जम्मूद्वीप में ही थीं…तब के जम्मूद्वीप में आज की तारीख में ग्लोब पर दिखने वाले कई देश शामिल थे ।

सफर लाखों-करोड़ों वर्षों का

वेदों में भारत को आर्यावर्त कहा गया है यानी आर्यों का निवास स्थान। प्राचीन काल में आर्यों का बसावट आज के अफगानिस्तान की कुंभा नदी से लेकर भारत में गंगा के किनारों तक फैला था … ऋग्वेद में आर्यों की बसावट वाले क्षेत्रों को सप्तसिंधु प्रदेश कहा गया है। जहां मानव सभ्यताओं के विकास और विस्तार की बुलंद कहानी तैयार हुई…लोगों ने समाज में रहने और सबकी तरक्की का मंत्र सीखा। वेदों की रचना किसने की… कब हुई … इसका भी किसी के पास ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन, वेद इतने प्रमाणिक और व्यावहारिकता की कसौटी पर खरे हैं,जिनसे निकलते मर्म में हजारों साल से मानव जाति अपना कल्याण देखती रही है। वेदों में ब्राह्मण की उत्पत्ति से लेकर एक सामान्य आदमी के जीवन को आगे बढ़ाने तक का दर्शन छिपा है… धर्म में कर्म को इस तरह से पिरोने की कोशिश हुई है, जिससे सृष्टि के संचालन और समाज को आगे बढ़ाने में चेतन और अचेतन दोनों की ही भूमिका तय की जा सके… ऋग्वेद के मुताबिक, हिरण्यगर्भ से सृष्टि का जन्म हुआ है । जिसका सफर लाखों-करोड़ों वर्षों का है । उसके बाद सृष्टि ने न जाने कितने रूप बदले … जिसकी आत्मा से एक ऐसी जीवन शैली निकली, जिसे सनातन दर्शन के नाम से जाना जाता है। ये सनातन दर्शन है जिसने धीरे-धीरे करके हिंदू धर्म का स्वरूप लिया…कई लोग कहते हैं कि इसी धर्म ने भारत को जोड़ा…कुछ विद्वान कहते हैं…ये धर्म नहीं अपने आप में एक राष्ट्र है…लेकिन क्या हिंदू धर्म अपने आप में काफी है भारत को एक सूत्र में जोड़ने के लिए ?

श्रीमद्भागवत गीता में धर्म को कर्म से जोड़ा गया

समय चक्र के साथ धर्म लोगों को आपस में जोड़ने, उनके जीवन को अनुशासित करने का एक जरिया बना । पाप-पुण्य की सोच ने लोगों को ऐसे काम करने से रोका, जो किसी इंसान और समाज की तरक्की में बाधक बनते हैं । समय चक्र के साथ धर्म को अलग-अलग चश्मे से देखा गया… अथर्ववेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया के लिए हुआ है… लेकिन, श्रीमद्भागवत गीता में धर्म को कर्म से जोड़ा गया है। महाभारत ग्रंथ अहिंसा परमो धर्म: का पाठ सिखाता है तो मनुस्मृति में आचार: परमो धर्म: की बात कही गयी है। प्राचीन भारत की आश्रम व्यवस्था के जरिए हर इंसान को सही कर्म के लिए धर्म की डोर से बांधने की कोशिश हुई है । ये भारत में धर्म का समावेशी और सूक्ष्म विज्ञान ही है… जिसमें लोगों को योग, ध्यान, प्राणायाम के जरिए मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक रूप से संतुलित करने का रास्ता निकाला गया है। सबके सुख में अपना सुख और दूसरों के दुख में अपना दुख देखने की सोच में भारत के धर्म चक्र से सर्वे भवन्तु सुखिनः और अहम् ब्रह्मास्मि का मंत्र निकला है । ये आधुनिक दौर में पश्चिमी देशों की स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की सोच से बहुत आगे का दर्शन है…Human Rights और Peaceful co-existence की अवधारणा से भी बहुत आगे की सोच हज़ारों साल से भारत की आबोहवा में घुली-मिली है। समय चक्र आगे बढ़ा तो वक्त के साथ आदि शंकराचार्य ने चार धामों की स्थापना कर कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की कोशिश की…उनका आंदोलन किसी धर्म के खिलाफ नहीं था ।

समावेशी फिजा ने अंग्रेजों को हैरान कर दिया

अंग्रेज जब भारत आए तो यहां के धर्म के मर्म के देखकर दंग रह गए। पाप-पुण्य की सोच के बीच लोगों को जोड़ने में जिस तरह से धर्म सीमेंट की भूमिका था…भारत की समावेशी फिजा ने अंग्रेजों को हैरान कर दिया। भारत में कुछ ऐसे हिंदू राजा भी हुए … जिन्होंने अपनी तलवार के साथ धर्म पताका को आगे कर दिया, जिससे मुस्लिम शासकों के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जा सके। अंग्रेजों ने भारत की इस ताकत को समझा और उनके भीतर यहां राज करने के लिए एक ऐसी गंदी सोच ने आकार लिया.. जिससे यहां के समाज को धार्मिक रीति-रिवाजों के आधार पर बांटा जा सके…जिस भारत में 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू और मुसलमान साथ-साथ मिलकर लड़े, उसी जमीन पर अंग्रेजों ने ऐसी जहरीली सोच का बीज बोया, जिसका नतीजा धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के रूप में निकला ।

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Edited By

Anurradha Prasad

First published on: Oct 21, 2023 09:17 PM

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