---विज्ञापन---

कश्मीर में इस्लाम की एंट्री से कितना बदला सामाजिक ताना-बाना?

Bharat Ek Soch : एक समय था कि जम्मू-कश्मीर की खूबसूरती की चर्चा पूरी दुनिया में होती थी, लेकिन यह कई दशकों से आतंक की आग में जल रहा। अब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं। हालांकि, चुनाव आयोग ने अभी तक इसकी घोषणा नहीं की है।

Edited By : Deepak Pandey | Updated: Jul 14, 2024 21:15
Share :
Bharat Ek Soch
भारत एक सोच

Bharat Ek Soch : जिस कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है, जहां के केसर की महक पूरी दुनिया को मदमस्त कर देती है, जहां पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर खड़े चिनार के पेड़ और गहरी घाटियों में उछलती नदियां जीवन का नया राग सुनाती हैं। वही, कश्मीर कई दशकों से आतंक की आग में जला, वहां की फिजाओं में नफरत का जहर घोला गया। लेकिन, अब कश्मीर तेजी से बदल रहा है। वहां के लोगों को अब विधानसभा चुनाव का इंतजार है तो राजनीतिक दलों की भी परीक्षा होनी है? लेकिन, क्या कभी आपके जेहन में ये बात आई कि कश्मीर घाटी हमेशा से रक्तरंजित रही है या फिर वक्त के थपेड़ों ने धरती के स्वर्ग को समय-समय पर रक्तरंजित किया? कश्मीर के मर्ज के स्थायी इलाज के लिए वहां के लोगों के मिजाज को समझना बहुत जरूरी है। उन हालातों को समझना होगा कि जिनकी वजह से एक शांत और दुनिया को दिशा दिखाने वाले क्षेत्र में आतंक की फसल बोने और काटने का खेल शुरू हुआ। लोगों की जिंदगी में खुशहाली के फलसफे की जगह जिहाद का जहर भरा जाने लगा।

कश्मीर का किस्सा कहां से शुरू किया जाए, ये एक बहुत मुश्किल काम है। कश्मीर की आबोहवा में हिंदू, बौद्ध और इस्लाम की साझा विरासत घुली-मिली है। ये सूफी-संतों की जमीन रही है, ज्ञान-विज्ञान की धरा रही है। प्राचीन काल में लोगों को आपस में जोड़ने के लिए कश्मीर में आध्यात्म की खुशनुमा हवा बहा करती थी, जिसमें सभी तरह के विचारों के लिए पूरा सम्मान था। इसीलिए, करीब 870 साल पहले संस्कृत के विद्वान कल्हण ने अपने ग्रंथ राजतरंगिणी में लिखा कि कश्मीर को आध्यात्मिक ताकत से जीता जा सकता है। तलवारों के दम पर नहीं। राजतरंगिणी को कश्मीर का सबसे प्रमाणिक इतिहास माना जाता है। करीब ढाई हजार साल पहले सम्राट अशोक के दौर में कश्मीर में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। छठी शताब्दी में इस क्षेत्र में अपने तरह का शैव दर्शन विकसित हुआ। तब इस क्षेत्र पर हूण वंश के मिहिरकुल की हुकूमत चलती थी। एक दौर ऐसा था- जब कश्मीर राज्य की सीमाएं पूर्व में बंगाल, दक्षिण में कोकण, उत्तर-पश्चिम में तुर्किस्तान और उत्तर पूर्व में तिब्बत तक फैली थीं। 10वीं सदी में शंकराचार्य के अद्धैत दर्शन ने यहां के लोगों को अपनी ओर आकर्षिक किया। मुस्लिमों के पैर कश्मीर की जमीन पर पड़ने के साथ इस्लाम के विस्तार की कोशिशें भी तेज हुईं। लेकिन, कश्मीर अलग-अलग धर्मों के बीच तालमेल बैठाता हुआ आगे बढ़ता रहा। इस साझी संस्कृति को नाम दिया गया कश्मीरियत।

---विज्ञापन---

यह भी पढ़ें : आखिर जम्मू-कश्मीर के दिल में क्या है, BJP के मिशन में कितने फूल-कितने कांटे?

कभी कश्मीर में बहती थी सूफीवाद की धारा 

---विज्ञापन---

कश्मीर में सूफीवाद की मजबूत धारा बह रही थी। वहां सूफी इस्लाम को मानने वालों की तादाद अच्छी खासी थी। कश्मीर में हिंदू, बौद्ध और सूफी मुसलमान आपस में मिलजुल कर रहा करते थे। इसका आधार एक-दूसरे की भावनाओं और परंपराओं का आपस में सम्मान था। बात 14वीं शताब्दी की है, तब कश्मीर पर राजा सहदेव की हुकूमत चलती थी। मंगोल आक्रमणकारियों ने कश्मीर पर हमला किया। शुरुआती दौर में मुस्लिम सुल्तान भी वहां की संस्कृति के हिसाब से आगे बढ़े। बाद में उनकी तंग सोच का असर कश्मीरी समाज पर दिखने लगा और इस्लामीकरण बढ़ने लगा। समय चक्र आगे बढ़ा, 19वीं शताब्दी में ये क्षेत्र महाराजा रणजीत सिंह से सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। बाद में इस क्षेत्र पर डोगरा वंश के राजाओं ने शासन किया। महाराजा गुलाब सिंह की सत्ता काराकोरम पर्वत श्रेणी तक फैली हुई थी। उत्तर में अक्साई चीन और लद्दाख भी इस राज्य का हिस्सा थे।

कैसे जम्मू-कश्मीर को लेकर आमने-सामने आए थे भारत-पाक?

जब भारत तेजी से आजादी की ओर बढ़ रहा था तो जम्मू-कश्मीर को लेकर एक अजीब कशमकश जारी थी। ये रियासत भारत का हिस्सा बनेगी या पाकिस्तान का। लेकिन, कश्मीर के महाराजा हरिसिंह अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित करने का ख्वाब पाले हुए थे। ऐसे में पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना शुरू कर दिया। ऐसे में अपनी रियासत को बचाने के लिए महाराजा हरिसिंह ने भारत के साथ जाने का फैसला किया। उन्होंने विलय पत्र पर दस्तखत किया। लेकिन, पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। बाद में भारतीय फौज ने पाकिस्तानी घुसपैठियों और सेना को खदेड़ना शुरू किया। 30 दिसंबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा। दोनों देशों को जंग खत्म करनी पड़ी। दोनों सेनाएं जिस क्षेत्र में थीं- उसी को युद्ध विराम रेखा मान लिया गया, जिसे LoC यानी लाइन ऑफ कंट्रोल कहा जाता है।

कैसे एक देश में वजूद में आए थे दो विधान, दो प्रधान, दो निशान? 

पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर रियासत के गिलगित-बाल्टिस्तान पर भी धोखे से कब्जा कर लिया। वहीं, देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले को खुद हैंडल कर रहे थे। राजनीतिक रिश्तों को लेकर बीच का रास्ता निकालने की कोशिशें जारी थीं। सहमति के आधार पर महाराजा हरिसिंह को राज्य का संवैधानिक प्रमुख बनाया गया और शेख अब्दुल्ला को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया और एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान वजूद में आ गए ।

यह भी पढ़ें : आजादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के तौर-तरीकों में कितना हुआ बदलाव?

जंग में हार के बाद पाक ने Proxy War का निकाला रास्ता

1971 की जंग के नतीजों से पाकिस्तान की समझ में एक बात अच्छी तरह आ गयी कि सीधी लड़ाई में वह भारत से कभी नहीं जीत सकता है। ऐसे में पाकिस्तान ने द्मम युद्ध यानी Proxy War के रास्ते आगे बढ़ने का फैसला किया, तब पाकिस्तान की कमान जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथों में थी। वो अक्सर कहा करते थे- Bleed India through thousand cuts मतलब वो भारत को हजारों जख्मों से लहूलुहान करने का ख्वाब पाले हुए थे। उस दौर में कश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार तेजी से सूबे के गांवों का नाम बदलकर इस्लामी नामकरण में जुटी थी। कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए जाने लगे। ऐसे में पाकिस्तान ने अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई को आगे कर दिया। 1982 में शेख अब्दुल्ला ने आखिरी सांस ली। उसके बाद उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। पाकिस्तान लगातार साजिश पर साजिश कर रहा था। वो साल था 1987 का। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ। इस चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ। कट्टरपंथियों ने अपने उम्मीदवार मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के बैनर तले उतारा। चुनाव में नेशनल क्रॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को 87 फीसदी सीटें मिलीं। बौखलाए मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया। घाटी में अजीब सा माहौल बनने लगा।

सरकारों ने कश्मीर के लिए क्या उठाए थे कदम

नरसिम्हा राव ने भी कश्मीर मुद्दे को बहुत संजीदगी के साथ हैंडल किया। जब वाजपेयी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी तो उन्होंने कश्मीर के हालात सुधारने के लिए पूरी शिद्दत से काम किया। इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के रास्ते आगे बढ़ते हुए कश्मीर समस्या का समाधान करना चाहते थे। इसलिए, सूबे के लोगों तक विकास का झोंका पहुंचाने से लेकर निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव करवाने तक में वाजपेयी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। सूबे में सत्ता नेशनल कांफ्रेंस से पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन के हाथों में चली गयी। कश्मीर समस्या के स्थाई समाधान के लिए पाकिस्तान से रिश्ते सुधारना भी जरूरी था। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर तक गए। लेकिन, बदले में करगिल मिला । वाजपेयी सरकार में गृह मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने सूबे में शांति बहाली के लिए हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नरमपंथी धड़े से बातचीत की शुरुआत की तो यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह ने भी कश्मीर समस्या का समाधान बातचीत के रास्ते निकालने की कोशिश की। दिल्ली और श्रीनगर के बीच बातचीत का सिलसिला तो जारी रहा। लेकिन, कश्मीर समस्या का कोई ठोस रास्ता नहीं निकल पाया। 2014 में केंद्र में प्रचंड बहुमत से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और उनका मिशन कश्मीर शुरू हो गया। दूसरी पारी में नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर को लेकर बहुत बड़ा फैसला लिया। 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाले अनुच्छेद 370 को इतिहास बना दिया। 35 A को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। एक झटके में एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान का सिस्टम खत्म हो गया। सूबे का बंटवारा कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बना दिया गया।

यह भी पढ़ें :देश में कोचिंग कल्चर को बढ़ावा देने के लिए कौन जिम्मेदार, महंगी पढ़ाई से आजादी कब?

मोदी सरकार ने पाक को दिया था 10 हजार वोल्ट का झटका

नरेंद्र मोदी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर का स्पेशल स्टेटस खत्म कर और सूबे का बंटवारा कर कश्मीर के कट्टरपंथियों, पीओके से आतंक की फैक्ट्रियां चलानेवालों और पाकिस्तान तीनों को दस हज़ार वोल्ट का झटका दिया। कश्मीर को तरक्की की राह पर ले जाने की तूफानी कोशिशें शुरू हो गईं। आवाम तो खुश थी। लेकिन, कश्मीर की सियासत करने वालों के चेहरे मुरझाए हुए थे। धीरे-धीरे कश्मीर में हालात सामान्य होने लगे। कश्मीर की फिज़ाओं में तेजी से बदलाव कट्टरपंथियों और आतंकियों की ताबूत में आखिरी कील साबित हो रहा था। तो वो लोग कश्मीर में वापसी के लिए सोचने लगे- जिन्होंने कभी खौफ की वजह से अपना घर-द्वार छोड़ा था। रोजी-रोजगार के लिए देश के दूसरे हिस्सों से लोग कश्मीर पहुंचने लगे। बदले हालात का फायदा कश्मीर के सामान्य लोगों को दिखने लगा। जब अलगावादियों की हड़ताल की वजह से बच्चों के स्कूल बंद नहीं होते हैं, जब आतंकी हमले कम होने की वजह से कश्मीर में सैलानियों का सैलाब पहुंच रहा है, जब जम्मू-कश्मीर में चल रहे निर्माण कार्यों में युवाओं को रोजगार मिल रहा है।

HISTORY

Written By

Deepak Pandey

First published on: Jul 14, 2024 08:52 PM

Get Breaking News First and Latest Updates from India and around the world on News24. Follow News24 on Facebook, Twitter.

संबंधित खबरें