---विज्ञापन---

आजादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के तौर-तरीकों में कितना हुआ बदलाव?

Bharat Ek Soch : देश में अगर लोकसभा को मजबूत करना है तो लोगों का शिक्षित होना बहुत जरूरी है। नई एजुकेशन पॉलिसी के जरिए बिना कोचिंग और ट्यूशन के छात्रों को ट्रेंड करने की तैयारी चल रही है। आज स्टूडेंट्स के पास करियर बनाने के लिए कई विकल्प खुले हैं।

Edited By : Deepak Pandey | Updated: Apr 14, 2024 21:31
Share :
Bharat Ek Soch
Bharat Ek Soch

Bharat Ek Soch : लोकतंत्र लोगों से हैं और लोगों के लिए है। इसलिए भारत एक सोच में बात देश के आम लोगों से जुड़े एक बहुत गंभीर मुद्दे की। किसी मुल्क में लोकतंत्र को मजबूत और कामयाब बनाने में सबसे अहम किरदार निभाते हैं- वहां के शिक्षित और विवेकशील नागरिक। लोगों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी सरकार और समाज की है। New Education Policy के जरिए किस तरह छात्रों को ट्रेंड करने की तैयारी है, जिससे कोचिंग या ट्यूशन की जरूरत ही न पड़े।

नई शिक्षा नीति में प्राचीन गुरुकुल और आधुनिक शिक्षा का संगम

---विज्ञापन---

छात्रों के पास इंजीनियर और डॉक्टर बनने के अलावा दूसरे करियर ऑप्शन किस तरह से खुल रहे हैं? क्यों कहा जा रहा है कि नई शिक्षा नीति में प्राचीन गुरुकुल और आधुनिक शिक्षा प्रणाली का संगम है। ऐसे में ये समझना और जानना जरूरी है कि प्राचीन काल में जिस भारत को विश्व गुरु कहा जाता था। वहां छात्रों को किस तरह से ट्रेंड किया जाता था? हम आपको बताने की कोशिश करेंगे कि हजारों साल से भारत किस शिक्षा पद्धति के जरिए आगे बढ़ता रहा। उसमें समय के साथ किस तरह के बदलाव आते रहे हैं और सही मायनों में शिक्षा का मकसद क्या रहा है? किस तरह से भारत की शिक्षा प्रणाली हाड़-मांस के एक जीव को विवेकशील इंसान, जिम्मेदार और सभ्य नागरिक बनाती रही है? मानव शरीर को किस तरह से नया मायने देती रही है- गुरुकुल से 21वीं शताब्दी के पहले तक हमारे यहां पढ़ाई का सिस्टम किस तरह काम करता था? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे अपने खास कार्यक्रम भारत में शिक्षा का ‘कालचक्र’ में।

यह भी पढ़ें : कहीं महिलाओं को हर महीने कैश, कहीं बसों में मुफ्त सफर! ‘आधी आबादी’ को खुश करने के लिए आजमाए जा रहे कितने दांव?

---विज्ञापन---

क्या था गुरुकुल का मकसद?

हजारों साल से मानव सभ्यता को आगे बढ़ाने में शिक्षा ड्राइविंग सीट पर रही है और शिक्षक यानी गुरु पथ-प्रदर्शक की भूमिका में। वेद-पुराण इशारा करते हैं कि प्राचीन भारत में शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली थी। जिसमें छात्र माता-पिता से दूर प्रकृति की गोद में शिक्षा-दीक्षा हासिल करते थे। शास्त्र, शस्त्र और जिंदगी की व्यवहारिक चुनौतियों से निपटने का हुनर गुरु के आश्रमों में सिखाया जाता था। उस दौर में छात्रों को अपनी जीवनचर्या के लिए भिक्षाटन भी करना पड़ता था। जिसका एक मकसद होता था छात्रों के भीतर से अहंकार का खात्मा करना। त्याग और मानवीय गुणों को शिष्यों में कूट-कूट कर भरना। प्राचीन भारत में शिक्षा मूल्य आधारित यानी Value based थी। शुरुआती पढ़ाई सभी के लिए एक जैसी थी। इसे अगर आज की भाषा में कहें तो Multidisciplinary थी। मकसद था गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्रों का संपूर्ण विकास।

उत्तर वैदिक काल में महिलाएं भी होती थीं शिक्षित

प्राचीन भारत में गुरुओं के लिए मानव जीवन ही एक बड़ी प्रयोगशाला की तरह था और छात्रों को सांसारिक जीवन की चुनौतियों से निपटने का हुनर सीखना शिक्षा का उद्देश्य होता था। शिष्य गुरु के आश्रम में रहते हुए ही समाज में जाकर व्यवहारिक शिक्षा भी हासिल करता था। उसके बाद अपने ज्ञान को व्यवहारिकता की कसौटी पर मापता था। रामायण और महाभारत काल के गुरुकुल में शास्त्र के साथ सैन्य शिक्षा की प्रधानता दिखती है। उत्तर वैदिक काल में महिलाएं समाज का एक सभ्य, शिक्षित और सम्मानित हिस्सा हुआ करती थीं। पुरुषों की तरह ही उन्हें भी शिक्षा दी जाती थीं। समयचक्र के साथ भारत के नक्शे पर तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे शिक्षा के बड़े केंद्र चमकने लगे थे। पूरी दुनिया ने जब यूनिवर्सिटी का नाम भी नहीं सुना था, उस दौर में भारत में व्यवस्थित उच्च शिक्षा के केंद्र के तौर पर यूनिवर्सिटी खुलने लगी थी। भारत में इस्लाम के कदम पड़ने के साथ शिक्षा का स्वरूप भी बदलने लगा। शुरुआती दौर में इस्लामिक शिक्षा का मकसद था धर्म का प्रचार-प्रसार। मतलब, मजहबी तालीम ड्राइविंग सीट पर थी। गुरुकुल की जगह मदरसों की तादाद तेजी से बढ़ने लगी। संस्कृत की जगह अरबी और फारसी में भी छात्रों को इल्म दिए जाने लगे। दिल्ली इस्लामिक शिक्षा के बड़े केंद्रों में से एक बन गया।

यह भी पढ़ें :चुनाव की तारीखों का ऐलान, क्या है सियासी दलों का प्लान?

मुगलों के दौर में भारत में पड़े थे अंग्रेजों के कदम

मुस्लिम शासकों के दौर में जिस तरह से इस्लामिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। वैसे में अरबी और फारसी के मेल से एक नई भाषा उर्दू का जन्म हुआ। मुगलों के दौर में ही अंग्रेजों के कदम भारत में पड़ चुके थे। अंग्रेज विशालकाय भारत पर पूरी तरह से कब्जा करने के प्लान पर दिमाग लगा रहे थे। ऐसे में ब्रिटेन से आई ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने सबसे पहले भाषा के अंतर को पाटने का काम शुरू किया। अंग्रेजी सिखाने के लिए नए स्कूलों का जाल बिछाने का Idea सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के ही एक अफसर Charles Grant के दिमाग में आया। उसने शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम को सबसे बेहतर बताया। जिसे बाद में लॉर्ड मैकाले ने आगे बढ़ाया। भारतीयों पर भी अंग्रेजों का असर दिखा। यहां के संभ्रांत वर्ग के दिलों-दिमाग पर तेजी से अंग्रेजियत छाने लगी। आजादी तक अंग्रेजी मुल्क के Power Elite यानी Bureaucracy, Judiciary और Academia की भाषा बन चुकी थी।

आजादी के बाद भी अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था लागू है

आजादी के बाद भी अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था को मामूली फेरबदल के साथ जारी रखा गया। लेकिन, दुनिया के साथ कदमताल के लिए तकनीकी शिक्षा पर ध्यान दिया गया। इस कड़ी में 1950 के दशक में IITs खोलने का सिलसिला शुरू हुआ। मकसद था- बेहतर इंजीनियर पैदा करना। वर्ल्ड क्लास डॉक्टर तैयार करने की सोच के साथ AIIMS खुला। कारोबार को नई ऊंचाई देने और मैनेजमेंट प्रोफेशनल्स पैदा करने के विचार ने आकार लिया तो साल 1961 में IIM कलकत्ता और अहमदाबाद जैसे संस्थान खुले। लेकिन, शिक्षा के इन बड़े संस्थाओं में गिनती के छात्रों की ही एंट्री हो सकती थी। देशभर के भीतर दिखने वाले ज्यादातर Educational Institutions में पारंपरिक विषय ही पढ़ाए जाते थे यानी इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, हिंदी, अंग्रेजी जैसे विषयों की पढ़ाई होती थी। छात्र दिलचस्पी के हिसाब से विषयों का चुनाव करते और तथ्यों को रटते और परीक्षा में चार या पांच सवालों के जवाब लिख कर पास हो जाते। ऐसे में साल 1964 में डॉ. डीएस कोठारी की अगुवाई में एक समिति बनी। इसी समिति की सिफारिशों के आधार पर 1968 में आजाद भारत की नई शिक्षा नीति आई। आजाद भारत की पहली शिक्षा नीति ने देश के युवाओं की सोच को नया आसमान और सपनों को नई उड़ान दी।

राजीव गांधी की सरकार ने लाई थी नई शिक्षा नीति

मानवीय सरोकार और आदर्शवादी तत्वों को डॉक्टर कोठारी ने प्रमुखता से जगह दी। इससे विज्ञान-तकनीक में ऊंची डिग्री लेकर अंग्रेजी लिखने- बोलने और समझने वाले युवाओं की एक बड़ी तादाद ने विदेशों के लिए फ्लाइट पकड़ी। दुनिया तेजी से बदल रही थी। कंप्यूटर के इस्तेमाल को वक्त की जरूरत समझा जाने लगा। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई- 10+2+3 यानी 10वीं तक स्कूली शिक्षा, इसमें छात्रों को सभी विषयों की पढ़ाई करनी होती थी। उसके बाद दो साल का इंटरमीडिएट, जिसमें छात्रों को रुचि के हिसाब से Science, Humanities या Commerce चुनना होता था। उसके बाद इंजीनियरिंग, मेडिकल, बीएससी, बीकॉम या बीए करना होता था।

यह भी पढ़ें : देश में कोचिंग कल्चर को बढ़ावा देने के लिए कौन जिम्मेदार, महंगी पढ़ाई से आजादी कब?

जीवन में लगातार चलने वाली प्रक्रिया है सीखना-सिखाना

वक्त के साथ समाज की जरूरतें बदलती रहती हैं। ऐसे में शिक्षा का तौर-तरीका और मकसद भी बदलता रहता है। कोई भी शिक्षा नीति 20-25 साल आगे की सोच के साथ तैयार की जाती है। ऐसे में Generative artificial intelligence के दौर में इस बात का खासतौर से ध्यान रखना होगा कि शिक्षकों की सोच भी वक्त से 20-25 साल आगे की होनी चाहिए। छात्रों को इस तरह ट्रेंड किया जाना चाहिए, जिससे वो तकनीक का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सकें। कोई व्यक्ति स्कूल-कॉलेज में अपने टीचर से सिर्फ एक चौथाई ज्ञान हासिल करता है। एक चौथाई ज्ञान खुद की सोचने, समस्याओं को सुलझाने की सतत प्रक्रिया के दौरान सीखता है। एक चौथाई ज्ञान टीम में काम करते हुए सीखता है। बाकी का एक चौथाई ज्ञान प्रैक्टिकल के दौरान हासिल करता है। मतलब, सीखना-सिखाना जीवन में लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया है, जो हमेशा सीखने के लिए उत्सुक रखता है वो कामयाब और जो कॉलेज से पास आउट होने के बाद सीखने की प्रक्रिया को सुस्त बना देता है- पिछड़ता चला जाता है। ऐसे में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहना जरूरी है।

HISTORY

Edited By

Deepak Pandey

First published on: Apr 14, 2024 09:03 PM

Get Breaking News First and Latest Updates from India and around the world on News24. Follow News24 on Facebook, Twitter.

संबंधित खबरें