Bharat Ek Soch: इन दिनों देश के भीतर एक अजीब सी हवा चल रही है। इस हवा में हर पुरानी मस्जिद, मजार को शक की नजरों से देखने की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है। देश के हर हिस्से में चौक-चौराहों पर खड़े होकर युवा अतीत में हुई गलतियों पर मंथन करते दिख जाएंगे। धार्मिक स्थलों से जुड़े विवादों ने देश के बेरोजगारों में इतिहास को लेकर गजब दिलचस्पी पैदा कर दी है। कोई संभल की शाही मस्जिद के बारे रिसर्च कर रहा है, कोई बाबरनामा की कॉपी खोज रहा है। कोई अजमेर शरीफ दरगाह से जुड़ी जानकारी इंटरनेट से निकालने की कोशिश कर रहा है, तो कोई दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे राज खोजने की कोशिश कर रहा है। काशी-मथुरा विवाद पहले से ही सुर्खियों में है और अदालत में भी। ऐसा नहीं है कि इन विवादों का हमारे पुरखों को अंदाजा नहीं रहा होगा, उनकी इतिहास की जानकारी कच्ची होगी। लेकिन, ज्यादातर ने धार्मिक विवादों को नजरअंदाज करने में भी समाज की बेहतरी समझी होगी। इसलिए, ऐसे धार्मिक विवादों को हवा देने की कोशिशों को नाकाम करने का रास्ता निकला।
Places of Worship Act क्या है?
इस दिशा में एक बड़ी कोशिश नरसिम्हा राव के दौर में हुई। तब Places of Worship Act, 1991 बना। इसके जरिए धार्मिक स्थल से जुड़े विवादों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ने की कोशिश हुई। लेकिन, इस कानून को अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। एक पक्ष इसे खत्म कराने पर अड़ा है, तो दूसरा इसे बनाए रखने के पक्ष में कोर्ट में खड़ा है। अब सवाल उठता है कि धार्मिक स्थलों से जुड़े विवादों को नए सिरे से हवा देने से किसका भला होगा ? आचानक पूजा स्थलों से जुड़े विवादों का पिटारा कैसे खुल गया? किस सोच के साथ 33 साल पहले Places of worship Act बना था ? इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में क्यों चुनौती दी गई है ? अगर ये कानून खत्म कर दिया जाए तो साइड इफेक्ट किस तरह का दिख सकता है? धार्मिक स्थलों पर विवाद और टकराव बढ़ेगा तो भारत 2047 तक कैसे बनेगा विकसित राष्ट्र? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे– अपने खास कार्यक्रम कैसे खत्म होगा टकराव में।
सुप्रीम कोर्ट में Places of Worship Act पर होगी सुनवाई
12 दिसंबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसे मसले पर सुनवाई हो सकती है जिसमें देश के ज्यादातर लोगों की दिलचस्पी है। ये मसला है Places of Worship Act 1991 का। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अगुवाई वाली तीन जजों की स्पेशल बेंच के सामने ये अहम ममला है, जिसमें 6 मुख्य याचिकाएं हैं । हिंदू पक्ष जहां Places of Worship Act 1991 को असंवैधानिक बताते हुए कानून ही रद्द करने की मांग कर रहा है। वहीं, मुस्लिम पक्ष इस कानून के समर्थन में अपनी याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट में है। हिंदू पक्ष को लगता है कि अगर ये कानून रद्द हो जाता है, तो विवादित पूजा स्थलों के सर्वे का रास्ता खुल जाएगा । वहीं, मुस्लिम पक्ष को लग रहा है कि अगर ये कानून रद्द हो गया, तो उनकी धार्मिक पहचान से जुड़े कई निशान खत्म हो सकते हैं। ऐसे में सबसे पहले समझने की कोशिश करते हैं कि Places of worship Act 1991 क्या कहता है? इसे लेकर आखिर इतना विवाद क्यों है?
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जानें क्यों लाया गया Places of Worship Act
नरसिम्हा राव सरकार में प्लेसेज ऑफ वर्शिप बिल को संसद में तब के गृह मंत्री एस.बी. चव्हाण ने पेश किया था। 18 सितंबर, 1991 को राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण के दस्तखत के साथ ही ये कानून बन गया। इस कानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले वजूद में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है। तब इस कानून को भारतीय धर्मनिरपेक्षता की ढाल के तौर पर पेश किया गया । हालांकि, उस दौर में संसद में चर्चा के दौरान राव सरकार के इस बिल का बीजेपी ने कड़ा विरोध किया था। बिल के विरोध में जसवंत सिंह और उमा भारती ने जोरदार दलील दी। दरअसल, नरसिम्हा राव बहुत दूर की सोच रखते थे। अयोध्या में मंदिर आंदोलन और लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के बीच एक बात नरसिम्हा राव की समझ में आ चुकी थी कि धार्मिक स्थलों के नाम पर देश में बवाल बढ़ना तय है तब वो प्रधानमंत्री नहीं बने थे। एक तरह से वो कांग्रेस की राजनीति में भी नेपत्थ की ओर जा रहे थे लेकिन, किस्मत ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया, तो उन्होंने देश में आर्थिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह को खुली छूट दी। Liberalization, Globalization और Privatization का रास्ता चुना गया। राव सरकार ने एक झटके में पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी के दौर तक की सोशलिस्ट पॉलिसी को पलट दिया । लेकिन, इस बदलावों का फायदा देश को तभी मिलता जब शांति रहती। देश में सबसे ज्यादा बवाल धर्म के नाम पर चल रहा था। ऐसे में पूजा स्थल से जुड़े विवादों को कुरेदने की जगह पीछे छोड़ने के इरादे से Places of Worship Act 1991 लाया गया।
टकराव टालने में दीवार की भूमिका निभाई
नरसिम्हा राव सरकार की इस पहल को सियासत अपने-अपने चश्मे से देखती है। कोई Places of Worship Act को देश की धर्मनिरपेक्षता की ढाल के तौर पर देखता है, तो कोई इसे मुस्लिम वोटों के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के तौर पर। लेकिन, एक सच ये भी है कि इस कानून ने बहुत हद तक देश के भीतर पूजा स्थलों को लेकर विवाद और टकराव को टालने में मजबूत दीवार की भूमिका निभाई है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने पूरे मामले को एक तरह से घुमा दिया। बात मई, 2022 की है तब डी.वाई.चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस नहीं बने थे। उन्होंने एक केस की सुनवाई के दौरान कहा कि 1991 का Worship Act किसी पूजा स्थल की धार्मिक प्रकृति का पता लगाने पर कोई रोक नहीं लगाता है। बशर्ते 15 अगस्त, 1947 के दिन वाली उसकी स्थिति बदलने की मंशा न हो। इस टिप्पणी के बाद पूजा स्थलों की प्रकृति जानने का नाम पर सर्वे और विवादों का दरवाजा खुल गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत बहुत पहले ही कह चुके हैं कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों खोजना? क्योंकि मोहन भागवत अच्छी तरह जानते हैं कि संघ जिस सपने के साथ आगे बढ़ रहा है वो देश में मजहबी टकरावों के बीच पूरा नहीं हो सकता है।
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युवा बर्बाद कर रहे अपना समय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना है, भारत को भेद मुक्त समाज बनाना। मतलब, समाज में जाति-मजहब और भाषा के आधार पर दीवारों को मिटाना। पूरी तरह आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाना। लेकिन, सियासी पार्टियां वोट के लिए समाज को जातियों और हिंदू-मुसलमान में बांटने का कोई मौका नहीं छोड़ती हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का टारगेट सेट किए हुए हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि अगर धार्मिक स्थलों को लेकर देश में विवाद इसी तरह बढ़ेगा। संभल जैसी ही तस्वीर दूसरे हिस्सों से भी आने लगेंगी, तो देश की तरक्की की रफ्तार सुस्त नहीं होगी। जिन युवाओं को अपनी समझ का इस्तेमाल खुद को Skilled करने में लगाना चाहिए, वो इतिहास के पन्ने पलट कर विवाद खोजने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं।
हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों खोजना?
वक्त के साथ सोच बदलने में ही समझदारी है। जो संघ कभी देश में एक सख्त जनसंख्या नीति की बात करता था,उसी संघ के प्रमुख मोहन भागवत अब तीन बच्चे पैदा करने की बात कर रहे हैं क्योंकि, हमारा देश जनसंख्या के रिप्लेसमेंट लेबल के लक्ष्य को हासिल कर चुका है। जिस RSS ने अयोध्या में राम मंदिर के लिए इतना बड़ा आंदोलन चलाया, उसी संघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत कह चुके हैं कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों खोजना ? संघ सबको अपने साथ जोड़ते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एजेंडा आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। संघ जानता है कि मजहबी टकरावों के बीच एक भारत, श्रेष्ठ भारत का सपना पूरा नहीं हो सकता है । प्रधानमंत्री मोदी भी जिस तरह के भारत का सपना लिए आगे बढ़ रहे हैं वो भी सामाज में शांति के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। Places of Worship Act 1991 को लेकर सुप्रीम कोर्ट चाहे जो भी फैसला सुनाए लेकिन, सामाजिक ताने-बाने के बीच एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने की जरूरत है, जिसमें विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए धार्मिक विवादों को किनारे रखा जा सके। अतीत की गलतियों को दुरुस्त करने वाली नफरती सोच को नमस्कार किया जा सके।