Bharat Ek Soch: अटल बिहारी वाजपेयी एक व्यक्ति नहीं…एक ऐसी प्रखर और मुखर सोच का नाम है, जिससे देश के लोग , देश के राजनेता, देश के कवि, देश के पत्रकार समय-समय पर रोशनी लेते रहेंगे। वाजपेयी एक ऐसे करिश्माई राजनेता थे…जो ना सिर्फ भारतीय राजनीति के शिखर तक पहुंचे, बल्कि अपनी खास शैली से पक्ष-विपक्ष से लेकर आम लोगों के दिलों पर किसी चक्रवर्ती राजा की तरह राज किया। वो शब्दों के जादूगर थे…हर बात बहुत नाप-तोल कर बोलते थे।
25 दिसंबर को अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन है…अगर वो इस दुनिया होते…तो अपना 99वां जन्मदिन मना रहे होते । लेकिन, संसद के शीतकालीन सत्र में जो तस्वीरें दिखीं… जिस तरह से लोकसभा और राज्यसभा के 146 सांसदों को सस्पेंड किया गया…जिस तरह सड़क से सदन के भीतर तक कोहराम रहा…जिस तरह से संसदीय लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश हो रही है…उसमें आजाद भारत की संसदीय राजनीति के हर दौर को देखने वाले अटल जी अपने मन की बात जरूर कविताओं के जरिए करते…वो भारतीय राजनीति के एक ऐसे युग पुरुष रहे हैं..जिन्होंने हमेशा वही किया, जो भारत के लिए ठीक समझा..जो भारतीयों के लिए ठीक समझा … जिसे भारत की हजारों साल से चली आ रही परंपराओं को सींचने के लिहाज से ठीक समझा…जिसमें उन्हें विश्वबंधुत्व का सूत्र मजबूत होता दिखा । अटल जी ने आजाद भारत के बदलते हर रंग को देखा…लोगों के चरित्र और चेहरे में बदलावों को भी करीब महसूस किया।
किस तरह के भारत का सपना देखते थे अटल?
राजनीति में मर्यादाओं को भी तार-तार होते देखा…लेकिन, मतभेदों को कभी मनभेद में नहीं बदलने दिया…वो भारत की आदर्शवादी राजनीति के आखिरी स्तंभ की तरह हैं…जिसके बाद प्रतिस्पर्धी राजनीति का ऐसा दौर शुरू हुआ, जिसमें मर्यादा की लक्ष्मण रेखा मिटती जा रही है । सामाजिक ताने बाने में दरार और अविश्वास की खाई भी चौड़ी हुई…कहीं Caste…कहीं Creed…कहीं Class के नाम पर । ऐसे में अटल जी के जन्मदिन के मौके पर ये समझना भी जरूरी है कि वो किस तरह के भारत का सपना देख रहे थे…वो पूरी जिंदगी कैसी राजनीति आगे बढ़ाते रहे… किस तरह के समरस समाज की काया उनके मन-मस्तिष्क में थी? अटल जी की कविताएं भी उनके भाषणों की तरह ही लोगों से सीधा संवाद करती थीं…सीधा संदेश देती थी…ऐसे में आज अटल जी की कविताओं के जरिए उनकी भारत भक्ति को समझने की कोशिश करेंगे ।
अटल की ‘भारत भक्ति’ और जज्बे को सलाम
अटल बिहारी वाजपेयी की संसदीय राजनीति कई पड़ावों में गुजरी…उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी सबकी राजनीति को बहुत करीब से देखा था… उन्होंने अपने संसदीय जीवन का बड़ा हिस्सा विपक्षी राजनीति के तौर पर बिताया था…वो भारत निर्माण में मजबूत विपक्ष का महत्व और भूमिका अच्छी तरह समझते थे । ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी अपनी राजनीति यात्रा के दौरान कभी नेहरू की तरह संसदीय परंपराओं को आगे बढ़ाते दिखे … कभी इंदिरा गांधी की तरस कड़े फैसले लेते … कभी राजीव गांधी की तरह देश के विज्ञान और तकनीक में आगे बढ़ाते। वो भारतीय राजनीति के सभी ध्रुवों के बीच एक ऐसा मिला जुला रूप थे … जिन्हें गले लगाने में किसी को हिचक नहीं थी। अटल जी का राष्ट्रवाद सबको जोड़ने का रास्ता दिखाता है…संघर्ष की प्रेरणा देता है। राष्ट्रीय संकटों से निपटने के बीच कदम मिलाकर चलने की बात करता है…अटल जी का कवि मन अपनी सोच को शब्दों में पिरोने का मौका खोजता रहता था । भले ही तत्कालानिक परिस्थितियों के हिसाब से कवि मन अटल ने शब्दों के जरिए अपने भाव रखे … लेकिन, हर कवि की रचना और शब्द संसार को हर दौर अपने हिसाब से देखता है…उसके मायने निकलता है । उसमें भी जब अटल जी जैसा सुलझा हुआ राजनेता कवि हो…तो बात दूर तलक जाती है ।
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
युवाओं को मानते थे देश को दिशा देने वाला
अटल जी भारत की चुनौतियों से निपटने के लिए सबको साथ लेकर चलने में यकीन करते थे…उनकी सोच थी कि अनुशासित युवा ही देश को दिशा दे सकते हैं। ऐसे में वाजपेयी जी का कवि मन देश के नौजवानों को जोड़ने के लिए कहता है –
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्तमान के मोहजाल में
आने वाला कल न भुलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
देशी मिट्टी रचे-बसे थे अटल बिहारी वाजपेयी
वाजपेयी जी अच्छी तरह समझते थे कि भारत जैसे विशालकाय देश की समस्याओं से जूझने के लिए किस तरह के जीवट हौसला, त्याग और समर्पण की जरूरत है । इसलिए वो शक्तिशाली और आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए ऋषि दधीचि जैसा बनने की प्रेरणा देते हैं…पंडित नेहरू और अटल जी की भारत को लेकर समझ में बहुत समानता थी…अंतर सिर्फ इतना भर था कि पंडित नेहरू की पढ़ाई-लिखाई ब्रिटेन के हैरो, ट्रिनिटी कॉलेज और कैब्रिज में हुई । पंडित नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया में विदेशी सोच का भी प्रभाव था…वहीं, वाजपेयी जी पूरी तरह से देशी मिट्टी में रचे-बसे थे । आजादी बंटवारे की कीमत पर मिली थी… ऐसे में अखंड भारत का सपना और अधूरी आजादी की बात उनकी कविताओं के जरिए सामने आई ।
लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूं
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएंगे ।
कविताओं से युवाओं को जगाने का प्रयास किया
वाजपेयी जी अपनी कविताओं के जरिए अखंड भारत की तस्वीर समय-समय पर याद दिलाते रहे । उनकी कविताएं ये भी एहसास दिलाती रही कि पाकिस्तान ने धोखे से जिन क्षेत्रों पर कब्जा किया है … वहां के लोगों के हालात कितने बदतर हैं ? ऐसे में कवि वाजपेयी कभी अपनी कविताओं के जरिए देश के नौजवानों को जगाने का काम करता है…कभी भारत को शक्तिशाली बनाने के ऋषि दधीचि की तरह हड्डियां गलाने यानी त्याग का रास्ता दिखाता है…तो कभी अखंड भारत के उन हिस्सों की याद दिलाता है, जिन पर दुश्मनों ने धोखे से कब्जा जमाया हुआ है।
अटल जी का राष्ट्रवाद सिर्फ आदर्शवादी नहीं व्यावहारिक भी था । उनके राष्ट्रवाद में विश्व बंधुत्व का भाव कूट-कूट कर भरा था… उसमें भारत की सरहद पर काली नज़र रखने वालों को मुंहतोड़ जवाब देने का माद्दा भी था … तो भारत की प्राचीन परंपरा के हिसाब से विश्व शांति और सद्भाव का संदेश भी । इसलिए, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही अटल जी अगर परमाणु परीक्षण का फैसला लेते हैं…तो पड़ोसी पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए बस से लाहौर भी जाते हैं । और जब पाकिस्तान कारगिल में घुसपैठ करता है… तो वाजपेयी बगैर सरहद की लक्ष्मण रेखा पार किए दुश्मनों को खदेड़ने का भी फैसला लेते हैं। वाजपेयी जी की विदेश नीति जितनी साफ-सुथरी थी…उनकी कविता भी पड़ोसी देशों और दुनिया में हथियारों की रेस पैदा कर हथियारों का कारोबार करने वालों को भारत का पैगाम सीधा सुनाती थीं। >>
अमेरिकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो
दस बीस अरब डॉलर लेकर आने वाली
बरबादी से तुम बच लोगे, यह मत समझो…
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो
हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो
जब तक गंगा की धार, सिंधु में ज्वार
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष
अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध
काश्मीर पर भारत का सर नहीं झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा
कविताओं में विरोधियों के चेहरे बेनकाब किए
अटल जी की इस कविता में पाकिस्तान, चीन और अमेरिका तीनों के लिए सीधा संदेश है । वो खुराफाती पड़ोसी पाकिस्तान को बता रहे है कि कश्मीर को हथियाने की हर साजिश नाकाम रहेगी…अमेरिकी हथियार और डॉलर के दम पर उछलना ठीक नहीं। पंडित नेहरू की तरह ही वाजपेयी जी भी विश्व शांति को पक्षधर थे…वो मानव विनाश के हथियारों की होड़ से दुनिया को आजादी का दिलाने का ख्वाब संजोए हुए थे…ऐसे अटल जी का कवि मन उन चेहरों को बेनकाब करता है, जो एक ओर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शांति की बात करते हैं और दूसरी ओर हथियारों से सबसे बड़े सौदागर बने हुए हैं ।।
हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा,
मुँह में शांति, बगल में बम, धोखे का फेरा,
कफन बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर,
दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हो उनकी चालें, ढंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
ये अटल जी का दुनिया को लेकर नजरिया था…जो उनके प्रधानमंत्री बनने पर भारत की विदेश नीति में भी साफ-साफ दिखा। वो पड़ोसी देशों से बेहतर रिश्ते चाहते थे…उनकी सोच थी कि दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं । इसलिए उनकी कविता आगे बढ़ती है और वो कहते हैं-
भारत पाकिस्तान पड़ोसी साथ साथ रहना है
प्यार करें या वार करें दोनों को ही सहना है
तीन बार लड़ चुके लड़ाई कितना महँगा सौदा
रूसी बम हो या अमरीकी ख़ून एक बहना है
जो हम पर गुज़री बच्चों के संग न होने देंगे
जंग न होने देंगे
अटल जी भारत के जर्रे-जर्रे से निकलती आवाज को समझते थे…वो जानते कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ के कुरुंग तक लोगों का मिजाज क्या कहता है … उसके लिए हिंदुत्व के मायने क्या हैं? भारत की मिट्टी और हवा ने किस तरह से बाहरियों को भी अपनाया है। ऐसे अटल जी का कवि रूप भारत की आत्मा से दुनिया का साक्षात्कार करवाता है…पड़ोसी देशों के मन की हिचक खत्म करने की कोशिश करता है ।
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कब बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ीं?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय।
खुद को समाज का सेवक समझते थे अटल
अटल जी के व्यक्ति का सबसे अहम पहलू ये है कि सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करते थे… खुद को समाज की थाती और सेवक समझते थे । उनकी कूटनीति दुनिया के जोड़ने वाली और रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने वाली थी…वो सिर्फ पुरानी लकीरों पर चलने वाले राजनेता नेता नहीं थे…पुरानी लकीरों को आगे बढ़ाने और नई लकीरें खींचने में माहिर थे ।
अगर ये कहा जाए कि अटल जी मौजूदा राजनीति के the last statesman थे तो ग़लत नहीं होगा…ये रुतबा अटल बिहारी वाजपेयी को इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने कभी भी ग़लत को सही नहीं कहा…अटल जी ने हमेशा इस बात का ख़्याल रखा कि देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए क्या ज़रुरी है? भारत की राजनीतिक संस्कृति और समाज को जोड़ने के लिए जिस तरह की राह उन्हें ठीक लगी…उसे पर आगे बढ़े । उनकी राजनीति और समाज को लेकर समझ की झलक उनकी कविताओं में भी साफ-साफ झलकता है।
(रू-ब-रू से अटल जी की आवाज में निकालेंगे…)
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती में उगा आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,
प्राची के अरुणिम की रेख देख पाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ,
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,
अंतर की चिर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा,
काल में कपाल पर लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं
पंडित नेहरु की उनकी भाषण कला के कायल थे
अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति का वो पन्ना हैं, जिन्होंने आदर्शों के साथ जरा भी समझौता नहीं किया । वो सबके थे.. सबके लिए थे । ये भी एक इत्तेफाक ही है कि जो व्यक्ति दक्षिणपंथी संघ की नर्सरी निकल कर संसद की दहलीज तक पहुंचा… उस व्यक्ति के मन मस्तिष्क में कहीं न कहीं पंडित नेहरू जैसा राजनेता बनने की चाहत थी । संसद के भीतर अटल जी पंडित नेहरू की नीतियों पर सवाल उठाते…तो पंडित नेहरू उनकी भाषण कला की तारीख करते। अटल जी ने राजनीति में हर उतार-चढ़ाव को बहुत करीब से देखा । उन्होंने तीन बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली…लेकिन, कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के बाद भी इंसान के पैर किस तरह जमीन पर रहने चाहिए इसका फलसफा भी हमारे राजनीतिज्ञों को सिखा गई ।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु !
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
हमेशा सबको साथ लेकर चले अटल बिहारी
वाजपेयी जी ने इस कविता के जरिए सत्ता के मद में चूर हुक्मरानों को लिए गहरा संदेश छोड़ा है । वो एक ऐसे राजनीतिक ईको सिस्टम की वकालत करते थे – जिसमें सत्ता बहुमत की हेकड़ी से नहीं विपक्ष के साथ सहमति से चले । अटल जी हमेशा सबको साथ लेकर चले…उनके व्यक्तित्व ने कभी वैचारिक विभेद पैदा नहीं किया…ये उनके चुंबकीय व्यक्तित्व का ही कमाल का था कि समाजवादी और वामपंथी साथियों के साथ भी हास्य में, रुदन में, तूफ़ानों में, बलिदानों में, वीरानों में, अपमानों में, सिर ऊंचा कर, सीना चौड़ा कर कदम से कदम मिलाकर चले । वो खुद से भी सवाल करते हैं-
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ,
मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता,
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर,
जब जिरह करता है,
मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है,
तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ,
अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ।
जनसभा में इंदिरा गांधी पर कटाक्ष किया
ये वाजपेयी के सार्वजनिक जीवन का वो पक्ष है, जिसकी बदौलत हिंदुस्तान की राजनीति में उनके कद का कोई नेता नज़र नहीं आता है । वो अगर 1962 में चीन युद्ध में भारत की हार को लेकर पंडित नेहरू की नीतियों पर सवाल उठाने का हौसला रखते हैं…तो 1971 में पाकिस्तान पर जीत के बाद इंदिरा गांधी की दुर्गा से तुलना करने में भी देर नहीं लगाते हैं । लेकिन जब 1975 में देश में इमरजेंसी लगी…तब इंदिरा सरकार ने अटल बिहारी वाजपेयी को भी जेल में डाल दिया… इमरजेंसी के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में एक जनसभा में अटल जी ने इंदिरा पर कटाक्ष किया…
बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने सुनने को बहुत हैं अफ़साने,
खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें,
कब तक रहेगी आजादी कौन जाने।
उसी जनसभा में अटल जी ने इमरजेंसी के दौरान परिवार नियोजन का समर्थन किया था… लेकिन इसके तौर-तरीकों पर सवाल उठाए…मतलब अटल जी का विरोध व्यक्ति और विचारों से नहीं बल्कि तौर-तरीक़ों से था…1984 में इंदिरा सरकार के पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार का भी वाजपेयी जी ने विरोध किया । ये भारतीय राजनीति का वो दौर था – जब मतभेद को निजी मनभेद के तौर पर नहीं लिया जाता था। राजनीतिक विरोधियों को लोकतंत्र के सहयात्री के रूप में देखा जाता था…लेकिन, जब राजनीति का चरित्र और चेहरा बदलने लगा तो कवि अटल ने कहा ।
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती
अपनी निजी जिंदगी, संघर्ष और कश्मकश को भी उन्होंने शब्दों के जरिए कविता के रूप में रखने शायद कोशिश की है।
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िंदगी-सिलसिला, आज-कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
मौत का डर भी अटल बिहारी को नहीं सताया
अटल जी प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने का हौसला रखते थे…वो मौत से भी दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहे । इसीलिए, किडनी की बीमारी के दौरान उन्हें मौत का डर नहीं…बीमारी को हराकर समाज और देश के लिए कुछ करने के इरादे से मैदान में एक योद्धा की तरह डट गए ।
अटल जी ने सियासी शिष्टाचार ताउम्र जारी रखा … संभवत:, इसलिए राजनीति में उनका किसी से वैर नहीं रहा । सबसे संवाद, सबका सम्मान और सबके दुख-सुख में शामिल होना वाजपेयी की शख्सियत का बेजोड़ पहलू था । वो समाज में किसी तरह का बंटवारा नहीं चाहते थे… वो गंगा-जमुनी तहजीब को बढ़ाने वाले नेताओं की फेहरिस्त में सबसे चमकदार नाम हैं । एक राजनेता के रूप में भी और एक कवि के रूप में भी । भारतीय परंपरा में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं पूर्णता कहा गया है…16 अगस्त, 2018 को अटल जी ने आखिरी सांस ली और इस दुनिया के कूच गए गए । उन्होंने हर पल को खुलकर जिया…आदर्शों के साथ जिया…दिखावा से दूर रहे … जो बात एक राजनेता के रूप में कहीं कह पाए … उसे अपने कवि मन से कह दिया।
एक राजनेता, एक कवि, एक पत्रकार, एक मित्र के रूप में जिंदगी में हर रोल पूरी शिद्दत से निभाते चले गए । वो कहा करते थे कि मेरी इच्छा है कि बगैर कोई दाग लिए जाऊं…लोग मेरी मृत्यु के बाद कहें कि अच्छे इंसान थे, जिन्होंने अपने देश और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश की। आज की तारीख में अटल जी की शख्यिसत और सियासत हर किसी के लिए नज़ीर है…वो उदार हिंदुत्व की सबसे मुखर परिभाषा हैं, जिसमें जाति-धर्म से अलग हर किसी के लिए प्यार और सम्मान भरा था।
Edited By