Bharat Ek Soch: भारत के किसान बहुत ही धैर्यवान हैं। कदम-कदम पर उनके धैर्य की परीक्षा होती रहती है। सड़कों पर आंदोलन के लिए निकलते हैं और थोड़ा सा ऊपर से भरोसा मिलते ही वापस घर की ओर लौट जाते हैं। कड़ी मेहनत और लागत के बाद फसल उगाते हैं, सही कीमत नहीं मिलती तो लागत से कम में बेचने को मजबूत हो जाते हैं, लेकिन धैर्य जवाब नहीं देता।
चुनावी मौसम में किए गए वादे पूरे हों या न हों, अन्नदाता अपना धैर्य बनाए रखते हैं। नई उम्मीद के साथ हर चुनाव में वोट डालते रहते हैं। अब सवाल उठता है कि क्या सिर्फ किसानों के धैर्यवान होने भर से कृषि क्षेत्र में बदलाव मुमकिन है, क्या उनकी आमदनी में बढ़ोतरी होगी? किसानों को अपने खेतों में किस तरह का आंदोलन करने की जरूरत है?
मोदी सरकार ने इस साल जिन पांच हस्तियों को भारत रत्न से सम्मानित करने का ऐलान किया है, उनमें दो का कनेक्शन कृषि क्षेत्र से है। दोनों ने अपने समय के हिसाब से कृषि क्षेत्र में बड़े बदलाव की बुलंद कहानी लिखने में अहम किरदान निभाया, तो अब समय खेतों में नई क्रांति का है। ज्यादा से ज्यादा ट्रेंड युवाओं को खेती से जोड़ने का है, ऐसे में चौधरी चरण सिंह और डॉ. एम.एस.स्वामीनाथन के प्रयासों से भारतीय किसानी में आए बदलावों को भी समझना बहुत जरूरी है।
देश में ज्यादातर किसान आंदोलन आजादी से पहले
डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किए जाने से कई युवा वैज्ञानिकों को कृषि क्षेत्र में नए-नए प्रयोग की प्रेरणा जरूर मिलेगी, देश की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है। इस क्षेत्र में नए-नए प्रयोग और रोजगार की बहुत संभावना है, लेकिन जिस तरह से गाहे-बगाहे किसान आंदोलन में उतरते रहते हैं और वापस घर को लौट जाते हैं, उसमें सवाल उठता है कि हमारे अन्नदाता आंदोलन के झंडा क्यों बुलंद करते हैं?
आंदोलनकारी किसानों की आवाज कितनी सुनी जाती है? इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि देश में ज्यादातर किसान आंदोलन आजादी से पहले हुए, जिन पर महात्मा गांधी की चटक छाप थी। गांधीजी ने जिस ग्राम स्वराज की कल्पना की, उसके केंद्र में ग्रामीण समाज की रीढ़ यानी किसान ही थे। बंगाल में आजादी से ठीक पहले ही एक बड़ा किसान आंदोलन शुरू हुआ, इसमें बटाईदार किसानों को फसल का दो-तिहाई हिस्सा दिलवाने के लिए संघर्ष हुआ, जिसे तेभागा आंदोलन के नाम से जाना जाता है।
इस आंदोलन से पैदा हुई गर्मी ने वामपंथियों को बंगाल की जमीन पर नया रास्ता दिखा दिया। उसी दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेताओं ने जोतने वाले को जमीन का नारा बुलंद करते हुए आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा तो उसी दौर में किसानों का एक बड़ा आंदोलन तेलंगाना में भी चल रहा था। तब की हैदराबाद रियासत की समांती व्यवस्था के खिलाफ, इसे आधुनिक भारत में किसानों का सबसे बड़ा गुरिल्ला संग्राम माना जाता है।
किसान आंदोलन ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था
किसानों के हक से जुड़े मुद्दे कम्युनिस्ट भी उठा रहे थे और समाजवादी भी। तब कांग्रेस का चुनाव चिह्न हुआ करता था- दो बैलों की जोड़ी। कांग्रेस ने ग्रामीण भारत और किसानों को केंद्र में रखते हुए दो बैलों की जोड़ी चुनाव चिह्न लिया था, जिससे देश के सबसे बड़े वर्ग यानी किसानों से खुद को जोड़ा जा सके। किसानों के नाम पर वोट जोड़ने का सिलसिला तो चलता रहा, लेकिन किसानों की मुश्किलें कम नहीं हुईं।
बंदूक के दम पर किसानों के हक-हुकूक की लड़ाई भी लड़ने का प्रयोग हुआ तो 1970 के दशक में महाराष्ट्र शरद जोशी की अगुवाई में आंदोलन हुआ। 1980 में कर्नाटक में रैठा संगठन ने किसानों से जुड़े मुद्दे को उठाया तो 1978 से 84 तक पंजाब में चले किसान आंदोलन ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। भारतीय किसान यूनियन ने पंजाब में गेहूं और धान की ज्यादा खरीद दर, बिजली, डीजल और खाद में सब्सिडी और कर्ज मांफी की मांग की।
किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक किया कब्जा
करीब 38 साल पहले भी दिल्ली में किसानों की धमक सुनाई दी। तब देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थे- राजीव गांधी। किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में दिल्ली के वोटक्लब पर देश के कई राज्यों से 5 लाख से ज्यादा किसान जुटे। किसानों की बड़ी मांग थी, गन्ने का समर्थन मूल्य ज्यादा मिले और बिजली-पानी फ्री हो। किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्जा कर लिया। वोट क्लब किसानों की बैलगाड़ियों और ट्रैक्टर से भर गया। सरकार के बार-बार चेतावनी देने के बाद भी किसान हटने के लिए तैयार नहीं थे। मंच से महेंद्र सिंह टिकैत ने ऐलान किया- खबरदार इंडिया वालो! दिल्ली में भारत आ गया है। इस प्रचंड आंदोलन को देखते हुए राजीव सरकार को भारतीय किसान यूनियन की सभी 35 मांगों को मानने का भरोसा देना पड़ा। उसके बाद आंदोलन खत्म हुआ?
किसानों के हर आंदोलन में सियासत ने अपने लिए संभावनाएं टटोलीं
ज्यादातर किसान आंदोलनों ने एक नई सियासी धारा को जन्म दिया। पश्चिम बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन से ममता बनर्जी सत्ता तक पहुंची। यूपी का भट्टा-पारसौल हो या फिर उड़ीसा का पोस्को विरोध आंदोलन किसानों के हर आंदोलन में सियासत ने अपने लिए संभावनाएं टटोलीं। सभी सियासी पार्टियों ने अपनी क्षमता और सहूलियत के हिसाब से वोट की फसल काटी, लेकिन किसानों की आर्थिक हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ।
साल 2020 में मोदी सरकार कृषि में सुधार के लिए तीन संशोधन कानून लेकर आई तो किसान फिर से सड़कों पर आ गए। किसानों के प्रचंड विरोध की वजह से सरकार को तीनों कानून वापस लेना पड़ा। सियासत किसानों के आंदोलन में अपने लिए संभावनाएं तलाशती रहती है। ये भी एक इत्तेफाक है कि गुरुवार को दिल्ली बॉडर पर किसानों का आक्रोश दिखा और शुक्रवार को मोदी सरकार ने चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का ऐलान कर दिया। ये भी अजीब इत्तेफाक ही है कि कल तक जिस जयंत चौधरी का अखिलेश यादव के साथ गठबंधन तय माना जा रहा था अब RLD का बीजेपी के रथ पर सवार होना तय है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि किसानों की किस्मत के बंद दरवाजे कब खुलेंगे। उसका आंदोलन एक खूबसूरत अंजाम तक कब पहुंचेगा।
किसान फिर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की ओर रुख करेंगे
ये किसानों की ताकत थी कि पीएम मोदी को संसद में पास कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने का ऐलान करना पड़ा। इतिहास गवाह रहा है कि कई बार किसानों के आगे सरकारों को झुकना पड़ा है, लेकिन हमारे देश की सियासत का एक बड़ा सच ये भी है कि किसान कभी किसी एक पार्टी का वोटबैंक नहीं रहा है वो बहुत हद तक अपने आंदोलनकारी नेताओं से भी प्रभावित नहीं हुआ है आज की तारीख में किसानों की पार्टी मानी जाने वाली RLD के लिए बिना गठबंधन वजूद बचाए रखना मुश्किल हो गया है।
हाल के वर्षों में किसान आंदोलनों में बड़ा चेहरा रहे राकेश टिकैट चुनावों में किस्मत आजमा चुके हैं, लेकिन संसद या विधानसभा पहुंचने में कामयाब नहीं रहे हैं। बहुत हद तक संभव है कि अगले कुछ हफ्तों के भीतर किसान फिर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की ओर रुख करें दिल्ली बॉर्डर पर अनशन और आंदोलन पर बैठ जाए?
राजनीतिक दलों के बड़े नेता खुद को किसानों का सबसे बड़ा खैरख्वाह बताने की कोशिश करते दिखें, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या किसानों की किस्मत के बंद दरवाजे खोलने और खेती को फायदे का सौदा बनाने की ईमानदार कोशिश हुई? महेंद्र सिंह टिकैत कहा कहते थे कि अगर किसी से सोलह आना मांगों और वो चार आना भी दे तो उसे रख लेना चाहिए। संभवत: यह एक सामान्य भारतीय किसान की सोच से मिलती-जुलती बात है। देश का धैर्यवान किसान थोड़े में संतुष्ट हो जाता है। किसान और किसानी की हालत ठीक करने के लिए सड़कों पर आंदोलन से कहीं ज्यादा खेतों में क्रांति की जरूरत है। जिसमें चौधरी चरण सिंह जैसी क्रांतिकारी सोच भी चाहिए और एम.एस. स्वामीनाथन जैसा वैज्ञानिक नजरिया भी।
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