---विज्ञापन---

1971 में प्रधानमंत्री को आर्मी चीफ ने क्यों कहा- अभी नहीं!

Bharat Ek Soch: 1971 का युद्ध भले ही 52 साल पुराना है, लेकिन इतिहास की घटनाओं को अलग-अलग लेंस से भी देखा जाता है।

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Dec 11, 2023 00:35
Share :
1971 war news 24 editor in chief anuradha prasad special show
1971 war news 24 editor in chief anuradha prasad special show

Bharat Ek Soch: ठीक 52 साल पहले दिसंबर के पहले हफ्ते से ही भारतीय फौज पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर एक बड़ी जंग लड़ रही थी। इस जंग का मकसद न सीमाओं का विस्तार था, न किसी पर वर्चस्व स्थापित करना, न बदला लेना। भारतीय फौज के शूरवीर अपना खून बहाकर पड़ोसी मुल्क की अवाम को बेहिसाब अत्याचार से आजादी दिलाने के लिए आगे बढ़ रहे थे। इंडियन आर्मी, नेवी और एयरफोर्स के जवान भारत के उन उसूलों, आदर्शों के लिए अपना खून बहा रहे थे, जो यहां के जर्रे-जर्रे से हजारों वर्षों से निकल रहा था।

दरअसल, 1971 का युद्ध 52 साल पुराना इतिहास है…इसमें भारत की आन-बान और शान है, लेकिन इतिहास की घटनाओं को कालचक्र के हिसाब से अलग-अलग लेंस से भी देखा जाता है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर किसी की भूमिका को हल्का या भारी करने की भी कोशिश होती है। अपनी सहूलियत के हिसाब से नायकों को लोगों के सामने पेश किया जाता है। हमारे देश में 1971 के युद्ध को भी समय-समय पर अलग लेंस से देखने की कोशिश होती रही है। कभी उस ऐतिहासिक जीत का क्रेडिट तब के आर्मी चीफ जनरल सैम मॉनेक शॉ को दिया जाता है, कभी तब की पीएम इंदिरा गांधी को…कभी दोनों के बीच रिश्तों में तल्खी की बात की जाती है।

कभी एयर फोर्स तो कभी नेवी की भूमिका को अपने-अपने तरीके से हल्का या भारी करने की कोशिश होती है, लेकिन कोई भी जंग एक साथ कितने मोर्चों पर लड़ी जाती है…उसमें कौन-कौन से किरदार खामोशी से योगदान देते हैं और अपनी दमदार भूमिका निभाने के बाद नेपत्थ में चले जाते हैं। उस जंग में दुश्मन के सामने सीना ताने खड़े सूरमाओं के जरिए समझने की कोशिश करेंगे कि संपूर्ण सच क्या है…वो राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य कमांडरों की भूमिका को किस तरह देखते हैं? उस दौर से अनजान लोगों के मन में उठते कई सवालों से धुंध हटाने के लिए 1971 की जंग की पृष्ठभूमि में इतिहास के पन्नों को पलटने की कोशिश करेंगे अपने खास कार्यक्रम…1971 युद्ध एक, मोर्चा अनेक में।

क्या 1971 का युद्ध सिर्फ सैम बहादुर की वजह से जीता गया?

विशालकाय भारत के ज्यादातर लोगों के हाथ में इंटरनेट की ताकत से लैस स्मार्ट फोन है- जिसमें हर तरह की सही-गलत सूचनाएं लोगों की स्क्रीन पर आती रहती है। हाल में एक फिल्म रिलीज हुई है- सैम बहादुर। ये फिल्म फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ की जिंदगी पर बनी है… जाहिर है कि फिल्म के भीतर सैम मानेक शॉ की Personality का पलड़ा भारी होगा। लेकिन, देश में चौक-चौराहों पर ये बहस भी आकार ले रही है कि 1971 का युद्ध सिर्फ सैम बहादुर की वजह से जीता गया…वो भी सिर्फ 13 दिन में।

अगर तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बात सैम बहादुर ने मान ली होती तो भारत की हार होती, लेकिन सच क्या है? क्या इंदिरा गांधी और सैम बहादुर के बीच कोई मतभेद था? क्या कभी जनरल मानेक शॉ ने अपने मुंह से कहा कि पीएम इंदिरा गांधी ने उनके साथ गलत किया…एक प्रोफेशनल आर्मी के जनरल की सलाह को कभी नजरअंदाज किया? युद्ध के मोर्चे पर सेना की रणनीति में दखल दिया। संभवत: नहीं। एक युद्ध कितने मोर्चों पर लड़ते हुए जीता जाता है…राजनीतिक नेतृत्व और सेना में सिपाही से जनरल तक किस तरह काम करते हैं- इसे समझना भी जरूरी है। ऐसे में सबसे पहले 1971 के जंग की पृष्ठभूमि से परिचय जरूरी है… तभी समझने में आसानी होगी कि किसी भी युद्ध में जीत के लिए एक साथ कितने मोर्चों पर तैयारियां करनी होती है।

ऑपरेशन सर्चलाइट ने खौफ पैदा कर दिया

भले ही पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान को इस्लाम जोड़ रहा था..लेकिन दोनों हिस्सों के खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन में बहुत अंतर था। पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्चलाइट ने लोगों के भीतर खौफ पैदा कर दिया… जान बचाने के लिए लोग सरहद पार कर भारतीय इलाकों में दाखिल होने लगे। ऐसे में पाकिस्तान के भीतर की लड़ाई भारत के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गई। इतनी बड़ी तादाद में शरणार्थियों का बोझ झेलना भारत के लिए मुमकिन नहीं था। कुछ महीने में ही करीब एक करोड़ शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भारत के सीमावर्ती राज्यों में आ गए।

आज की तारीख में भी दुनिया के नक्शे पर सवा सौ से ज्यादा देश ऐसे हैं- जिनकी आबादी एक करोड़ से कम है। जरा सोचिए…1971 में भारत की स्थिति और ऊपर से एक करोड़ शरणार्थियों का बोझ…ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर चिंतित तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आर्मी चीफ सैम मानेक शॉ को बुलाया। उनसे पूछा कि क्या भारत सैनिक कार्रवाई से पाकिस्तान को रोक सकता है? मामला बहुत पेचीदा था। पूरी जिंदगी फौज के अनुशासन और सैन्य रणनीति में महारत रखने वाले सैम बहादुर की समझ में तुरंत आ गया कि जल्दबाजी कदम उठाने का क्या नतीजा हो सकता है। ऐसे में बिना किसी दबाव के उन्होंने सच्चाई बयां की और राजनीतिक नेतृत्व यानी इंदिरा गांधी ने भी उसी सलाह पर अमल किया- जो एक प्रोफेशनल आर्मी के जनरल ने दी। उस का घटना जिक्र खुद सैम मानेक भी कुछ इंटरव्यू में कर चुके हैं।

जनरल मानेक शॉ एक सैन्य रणनीतिकार की तरह सोच रहे थे और इंदिरा गांधी एक राजनेता की तरह किसी ने एक-दूसरे की बात काटने की कोशिश नहीं की… दोनों ने अपना पक्ष रखा। एक-दूसरे का सम्मान किया … एक-दूसरे की सीमाओं को समझा और भारत के लिए जो बेहतर लगा… उस पर पूरी ईमानदारी से आगे बढ़े। उस दौर में इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत से सत्ता में थीं और विपक्ष किनारे लग चुका था, लेकिन ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद जब पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी भारत में दाखिल होने लगे…तो अप्रैल-मई महीने में भारतीय जनसंघ ने शरणार्थियों के मुद्दे पर इंदिरा सरकार को घेरना शुरू कर दिया, लेकिन मुक्ति वाहिनी के एक्टिव होने के साथ ही जुलाई आते-आते जनसंघ की लाइन में बदलाव आने लगा। इस बदलाव के लिए जनसंघ को तैयार करने में बड़ी भूमिका अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं की थी।

भारत ने रूस को अपने पक्ष में खड़ा करने की स्क्रिप्ट तैयार की 

राजनीति अपना काम कर रही थी और सेना अपना काम। आर्मी, एयरफोर्स और नेवी के बड़े-बड़े कमांडर युद्ध की तैयारियों में व्यस्त थे…तो राजनीतिक नेतृत्व अपने तरीके के युद्ध के दौरान और संभावित खतरों को टालने के लिए कूटनीतिक मोर्चे बंदी में लगा हुआ था। इंदिरा गांधी ये भी अच्छी तरह समझ रही थीं कि अगर युद्ध लंबा खिंचा तो उसका अंजाम क्या होगा? पाकिस्तान को हारता देखकर अमेरिका किस तरह के तिकड़म कर सकता है? ऐसे में इंदिरा गांधी ने तब के विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह को मिशन पर लगा रखा था। खुद इंदिरा गांधी रूस और अमेरिका के दौरे पर गईं। भारत अच्छी तरह समझ रहा था कि युद्ध के दौरान अमेरिका किस हद तक जा सकता है…ऐसे में भारत ने रूस को अपने पक्ष में खड़ा करने की दमदार स्क्रिप्ट तैयार कर दी। संयुक्त राष्ट्र में भी अमेरिका और पाकिस्तान से हर तिकड़म को फेल करने के लिए कूटनीतिक मोर्चेबंदी हो चुकी थी।

1971 की जंग के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शायद ही कभी कहा हो कि ये जंग मैंने जीती…मेरी वजह से बांग्लादेश एक अलग मुल्क बना। इंदिरा इस युद्ध में जीत का श्रेय भारत के लोगों और भारतीय सेना को देती हैं। मैं की जगह हम की बात करती दिखती हैं। इंदिरा गांधी की दुर्गा से तुलना उनकी पार्टी के किसी नेता ने नहीं बल्कि विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी। ये संकट में भारत की राजनीति का चरित्र रहा है…उदार और विराट चरित्र और चेहरा रहा है।

”हमने मिलकर युद्ध जीता”

इसी तरह फील्ड मार्शल मानेक शॉ ने भी बाद के अपने सभी इंटरव्यू में यही कहा कि हमने मिलकर युद्ध जीता…मिल कर लड़े। अगर ये कहा जाए कि युद्ध के दौरान जनरल मानेक शॉ की भूमिका CDS वाली थी तो कोई गलत नहीं होगा। उन्होंने आर्मी, एयरफोर्स, नेवी समेत दूसरी एजेंसियों को भी आपस में जोड़ दिया…सबको साथ चलने के लिए पूरी तरह से चार्ज कर दिया। 1971 की जंग में अपनी जान की बाजी लगाकर दुश्मन देश की सेना की खुफिया जानकारी जुटाने वाले जासूसों ने भी कभी ये दावा नहीं किया…युद्ध में जीत उनकी वजह से हुई।

तब के RAW चीफ रामेश्वर नाथ काव ने भी कभी ये नहीं कहा कि उस युद्ध में पाकिस्तान की कमर तोड़ने में उनकी खुफिया सूचनाओं का कितना बड़ा योगदान था। ये भारत के वो शूरवीर हैं..सच्चे सपूत हैं, जिन्होंने देश की आन-बान-शान के लिए तय अपने किरदार को पूरी शिद्दत से निभाया और फिर नेपत्थ में चले गए।

ये भी पढ़ें: संविधान में बदलाव की बात बौद्धिक विमर्श या रणनीति का हिस्सा?

First published on: Dec 09, 2023 09:00 PM

Get Breaking News First and Latest Updates from India and around the world on News24. Follow News24 on Facebook, Twitter.

संबंधित खबरें