Mayawati Political Strategy 2025: यूपी में विधानसभा चुनाव 2027 से पहले मायावती ने कमर कस ली है। 17 फरवरी को उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को चेतावनी देते हुए कहा कि बीएसपी का असली उत्तराधिकारी कांशीराम का समर्पित अनुयायी होना चाहिए। उनका यह बयान ऐसे समय आया है जब पार्टी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है। इसके अलावा मायावती ने एक्शन लेते हुए आकाश आनंद के ससुर अशोक सिद्धार्थ को गुटबाजी और पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में निष्कासित कर दिया। इस फैसले से उन्होंने यह दिखाया कि पार्टी पर अभी भी उनका नियंत्रण है। कभी यूपी की सत्ता के केंद्र में रही मायावती का प्रभाव तेजी से कम हुआ है। ऐसे में आइये जानते हैं बसपा के सामने असली चुनौतियां क्या है?
बसपा के संघर्ष की बड़ी वजहों में नेतृत्व की चुनौतियां, गुटबाजी और यूपी की वर्तमान राजनीति परिस्थितियां है। यूपी की राजनीति में यह हमेशा से ही रहा है कि यहां कभी भी तीन पार्टियां ताकतवर नहीं रही। शुरुआती दशकों में कांग्रेस सबसे अधिक ताकतवर रही। इसके बाद बसपा और सपा अस्तित्व में आई। बीच में कुछ समय के लिए बीजेपी की सत्ता रही। कांशीराम ने सरकारी नौकरी छोड़कर पार्टी बनाई और यूपी की राजनीति में हाशिए पर खड़े दलितों को राजनीतिक तौर पर सशक्त बनाया। कांशीराम ने पार्टी की बागडोर जब मायावती को सौंपी, तो पार्टी बहुजन की न होकर एक व्यक्ति केंद्रित हो गई। इसके विपरीत भाजपा और कांग्रेस में नेतृत्व के कई स्तर है।
आधुनिक चुनाव प्रचार का अभाव
बसपा समय के साथ दूसरी पीढ़ी की लीडरशिप तैयार नहीं कर पाई। जिसका परिणाम यह है कि आज पार्टी चुनाव तो लड़ती है लेकिन नतीजा अब वह सिर्फ वोट कटवा पार्टी बनकर रह गई है। 2012 में मायावती के सत्ता से बाहर होने के बाद उनके पास मौका था पार्टी को फिर से खड़ा करने का लेकिन उनकी निष्क्रियता और परंपरागत चुनाव लड़ने की कला से कार्यकर्ता या तो दूसरी पार्टियों में चले गए या उन्होंने राजनीति ही छोड़ दी।
वंशवाद की राजनीति
बीएसपी पतन के पीछे का एक कारण बहुजनों का कल्याण नहीं करना भी है। बीएसपी के कारण दलित राजनीतिक रूप से सशक्त हुए, लेकिन उनका आर्थिक और सामाजिक विकास नहीं हुआ। इसके बाद मायावती ने भतीजे को आगे कर वंशवाद की परंपरा को विकसित किया। वहीं बसपा कभी यूपी की राजनीति में स्थिर गठबंधन भी नहीं कर पाई। 2017 और 2019 के चुनाव में उसने कांग्रेस और सपा के साथ मिलकर लड़ा लेकिन हार के बाद वह एक बार फिर अलग-थलग पड़ गई।
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ऐसे चुनावी परिदृश्य से गायब होती गई बसपा
2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने 403 में से 206 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया। 2012 के चुनाव में सपा की वापसी हुई तो मायावती की सीटें घटकर 80 हो गई। 2017 में यह संख्या घटकर 19 पर आ गई। जबकि उसका वोट शेयर 22.23 प्रतिशत था। इससे पहले 1991 के चुनाव में बसपा ने 12 सीटें जीती थीं। 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने एक सीट जीती और 12.88 प्रतिशत वोट हासिल किए। वहीं बात करें लोकसभा चुनाव की तो 2009 में पार्टी ने 21 सीटें जीतीं। 2014 और 2024 के चुनाव में पार्टी साफ हो गई। जबकि 2019 के चुनाव में बसपा ने सपा से गठबंधन किया, नतीजा पार्टी को 10 सीटों पर जीत मिली।
उठाने होंगे ये कदम
ऐसे में अगर मायावती को यूपी में अपनी खोई जमीन हासिल करनी है तो पार्टी में बड़े स्तर पर बदलाव करना होगा। पार्टी में निर्णय लेने की प्रकिया को विकेंद्रीकृत करना होगा। इसके अलावा क्षेत्रीय नेताओं को जमीनी स्तर पर मजबूत करना होगा। इसके अलावा सपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों से गठबंधन करके बीजेपी के खिलाफ अभियान चलाना होगा। यह गठबंधन केवल चुनाव तक ही सीमित नहीं हो, बल्कि चुनाव के बाद भी इसे जारी रखना होगा।
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