विजय शंकर। पिछले दो-तीन दिनों से पूरे देश में एक नाम की बड़ी चर्चा हो रही है, वो नाम है अमृतपाल सिंह। 29 साल के अमृतपाल सिंह की तुलना कभी पंजाब में आतंक का दूसरा नाम समझे जाने वाले जरनैल सिंह भिंडरावाले से की जा रही है। अमृतपाल सिंह की वेशभूषा और काम करने का स्टाइल भी बहुत हद तक भिंडरावाले से मिलता-जुलता बताया जा रहा है। कानून के खिलाफ हर एक्शन को हल्के में नहीं लेना और 360 डिग्री देखना सुरक्षा एजेंसियों का काम है। पंजाब में भी ऐसा ही हो रहा है।
लेकिन, क्या वाकई पंजाब में हालात 1980 जैसे बनने लगे हैं? क्या वाकई चरमपंथियों और खालिस्तान समर्थकों के हौसले बुलंद हो रहे हैं? क्या वाकई अमृतपाल सिंह भिंडरावाले 2.0 बनता जा रहा है? इसे समझने के लिए पहले 1980 के हालात को समझना होगा?
कैसे ताकतवर बना भिंडरावाले?
वो साल 1977 का था। इमरजेंसी के बाद देश के दूसरे राज्यों की तरह ही पंजाब से भी कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में अकालियों की सरकार बनी। कांग्रेस सत्ता में आने के लिए बेचैन थी। उसी दौर में सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा दमदमी टकसाल का प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरावाले को बना दिया गया। ये भी अजब संयोग है कि तब भिंडरावाले की उम्र भी इतनी ही थी, जितनी अमृतपाल सिंह की है। दोनों की कद-काठी और पहनावा करीब-करीब एक जैसा ही है। अमृतपाल सिंह भी भिंडरांवाले की बातों को अक्सर दोहराता रहता है।
1970 के दशक के आखिरी दौर में अकालियों और निरंकारियों के बीच अक्सर तनातनी चलती रहती थी। वो साल 1978 का था और तारीख 13 अप्रैल। अमृतसर में निरंकारी और अकाली आमने-सामने आ गए। निरंकारियों की अगुवाई बाबा गुरुबचन सिंह कर रहे थे। इस दौरान खूनी झड़प हुई और 16 लोग मारे गए। मृतकों में कुछ भिंडरावाले के कट्टर समर्थक भी थे। निरंकारियों के खिलाफ भिंडरावाले के नेतृत्व में बड़ा विरोध-प्रदर्शन हुआ। पंजाब के गांव से शहर तक भिंडरावाले के नाम से लोग परिचित होने लगे।
भिंडरेवाले का स्टाइल
जरनैल सिंह भिंडरावाले में एक खास बात थी, वो लोगों के बीच अपनी बात दमदार तरीके से रखता था। उसके कहने पर लोगों ने बाल और दाढ़ी कटवाना बंद कर दिया। सिगरेट और शराब भी छोड़नी शुरू कर दी। पंथक प्रवचनों की वजह से भिंडरावाले की ग्रामीण इलाकों में भी पकड़ अच्छी बनने लगी। तब पंजाब में राजनीति से इतर दो धाराएं चल रही थीं। एक कट्टरपंथी धारा, जिसकी अगुवाई भिंडरावाले कर रहा था और दूसरी नरमपंथी धारा, जिसकी अगुवाई संत हरचंद सिंह लोंगोवाल कर रहे थे।
पंजाब में राजनीतिक उथल-पुथल
इमरजेंसी के बाद अकाली दल के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस की बेचैनियां बढ़ गई थी। दोबारा वापसी के लिए कांग्रेस हर तरह के समीकरणों पर गुणा-भाग कर रही थी। कहा जाता है कि उस दौर में कांग्रेस के सीनियर नेता ज्ञानी जैल सिंह ने ही भिंडरावाले की मुलाकात संजय गांधी से करवाई थी। देश के जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब ‘Beyond the lines’ में लिखा है, ‘भिंडरावाले खुद को कानून से ऊपर समझते थे, एक ऐसा आदमी जिसे ईश्वर ने एक मिशन के लिए चुना था। वे इतने ताकतवर बनना चाहते थे कि देश की सारी पुलिस और फौज भी उनका कुछ न बिगाड़ सके। यही उनकी त्रासदी थी। मैं भिंडरावाले के साथ ही था कि वहां केंद्रीय मंत्री स्वर्ण सिंह भी आ पहुंचे। कमरे में एक ही कुर्सी थी, जिस पर मैं बैठा हुआ था। इससे पहले कि मैं अपनी कुर्सी पेश करते हुए उठ पाता, उन्होंने फर्श पर बैठते हुए कहा कि एक संत की उपस्थिति में वे फर्श पर बैठना ही पसंद करेंगे।‘
भिंडरावाले का प्रभाव पंजाब में दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। भंगड़ा वाले पंजाब में गोलियों की आवाज आम बात होने लगी, खून-खराबा रोज की बात होती जा रही थी। अप्रैल 1980 में निरंकारियों के प्रमुख बाबा गुरबचन सिंह की सिख आतंकवादियों ने हत्या कर दी। साल 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई। इंदिरा गांधी के एजेंडे में तब पंजाब सबसे ऊपर था और इसलिए उन्होंने ज्ञानी जैल सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया। तब पंजाब कांग्रेस में दो बड़े नेता हुआ करते थे-ज्ञानी जैल सिंह और दरबारा सिंह। सत्ता में आने के महीने भर बाद ही इंदिरा सरकार ने पंजाब की प्रकाश सिंह बादल सरकार को बर्खास्त कर दिया।
पंजाब में विधानसभा चुनाव हुआ और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई। ज्ञानी जैल सिंह के धुर विरोधी दरबारा सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। सत्ता से बेदखल हो चुके अकालियों ने अपनी राजनीतिक जमीन फिर से तैयार करने के लिए एक ऐसे प्रस्ताव को जिंदा कर दिया, जो सात साल पुराना था। इसे आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। इस घटना ने पंजाब की जमीन पर बोए गए अलगाव के बीच को खाद-पानी देने का काम किया। दरबारा सिंह सरकार और अकालियों के बीच तनातनी चल ही रही थी कि पंजाब की राजनीति भाषा और धर्म के मकड़जाल में उलझने लगी। तब जनगणना का काम चल रहा था। लोगों से धर्म और भाषा पूछी जा रही थी। इसी दौर में पंजाब केसरी ने हिंदी को लेकर मुहिम चला दी…जिससे कट्टर सिख नाराज हो गए।
पंजाब में कट्टरपंथ को हवा
सितंबर 1981 में कुछ हथियारबंद अलगाववादियों ने पंजाब केसरी के संपादक और मालिक लाला जगत नारायण को गोलियों को भून दिया, इसका इल्जाम भिंडरावाले पर आया। लाला जगत नारायण की हत्या के 6 दिन बाद जब भिंडरावाले को गिरफ्तार करने पुलिस पहुंची तो हथियारबंद लोगों ने पुलिस का रास्ता रोकने की कोशिश की, गोलियां चलीं और 11 लोगों की जान गई। भिंडरावाले को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इस दौरान दल खालसा के गजिंदर सिंह और सतनाम सिंह पौंटा ने श्रीनगर से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइन का विमान हाईजैक कर लिया। बदले में अपहरणकर्ताओं ने भिंडरावाले की जेल से रिहाई की मांग की। लेकिन, अपहरणकर्ता अपने मकसद में कामयाब नहीं रहे। दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरी ओर, भिंडरावाले की बिना शर्त रिहाई की मांग को लेकर लगातार धरना-प्रदर्शन चल रहा था। बाद में सबूतों की कमी की वजह से भिंडरावाले को जमानत मिल गयी। पंजाब में हवा कुछ ऐसी चलने लगी, जिसमें हाथों में हथियार थामे अलगाववादी खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। हिंसा और खून-खराबा तेजी से बढ़ता जा रहा था।
भिंडरावाले को एहसास होने लगा कि सरकार उसके खिलाफ कड़ा एक्शन ले सकती है। ऐसे में उसने अपना हेडक्वार्टर स्वर्ण मंदिर के अंदर अकाल तख्त में शिफ्ट कर लिया। लेकिन, उसे ये भरोसा भी था कि सेना मंदिर के भीतर घुसने की हिम्मत नहीं करेगी। कुछ दिनों में ही भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर को किले में तब्दील कर दिया। स्वर्ण मंदिर में हथियारों का बड़ा ज़खीरा आ चुका था। उसके हौसले इतने बुलंद हो चुके थे कि अप्रैल 1983 को स्वर्ण मंदिर से दर्शन करके लौट रहे पंजाब के डीआईजी ए एस अटवाल को गोली मार दी गई। ये सीधे-सीधे सरकार को चुनौती थी।
जालंधर के पास पंजाब रोडवेज की बस को कुछ हथियारबंद लोगों ने रोक लिया और कई हिंदुओं की गोली मार कर हत्या कर दी, तब इंदिरा सरकार ने पंजाब की दरबारा सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लग गया। पहले इंदिरा गांधी ने मसले को बातचीत के जरिए सुलझाने का रास्ता आजमाया। लेकिन, जब बात नहीं बनी तो उन्होंने एक बहुत बड़ा और कड़ा फैसला लिया। ऑपरेशन ब्लू स्टार का फैसला यानी सेना को स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन की इजाजत। ऑपरेशन ब्लू स्टार जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके साथियों के सफाए के साथ खत्म हुआ।
क्या पंजाब में हालात ठीक नहीं हैं?
पंजाब का पाकिस्तान से करीब 550 किलोमीटर का बॉर्डर लगता है। पाकिस्तान से पंजाब के सरहदी इलाकों में कभी ड्रोन से हथियार पहुंचाने तो कभी ड्रग्स सप्लाई की साजिश चलती रहती है, जिसे भारत की सुरक्षा एजेंसियां नाकाम करती रही हैं। इतना ही नहीं खुराफाती पाकिस्तान खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथियों को भी हवा देता रहता है।
पंजाब ने आतंक के जख्मों को झेला है, ऐसे में वहां के लोग किसी भी कीमत पर कट्टरपंथी सोच को बढ़ने और फलने-फूलने का मौका नहीं देंगे। अमृतपाल सिंह और उसके समर्थकों ने जिस तरह से पिछले दिनों उत्पात किया, थाने का घेराव किया और अपने एक सहयोगी तूफान सिंह को रिहा करा लिया, इसे अपराध की एक बहुत ही गंभीर घटना के तौर पर देखने की जरूरत है, न कि बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की।
आज की तारीख में पंजाब के हालात न तो 1980 जैसे हैं, न ही अमृतपाल सिंह को राजनीतिक सरपरस्ती देने की गलती कोई सियासी पार्टी करेगी। लेकिन, सिस्टम और सुरक्षा एजेंसियों को इस बात की पूरी गंभीरता से जांच करनी चाहिए कि अमृतपाल सिंह और उसके साथियों को ताकत कहां-कहां से मिली?
(लेखक न्यूज़ 24 में डिप्टी एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं । लेख में छपे विचार निजी हैं।)
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