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Opinion

Women’s Day Special: थोड़ा है, बहुत ज्यादा की जरूरत है…

Women's Day Special: देश की आधी आबादी को अभी वो हक पूरी तरह से नहीं मिला है, जिसकी वो असली हकदार है। ऐसे में समाज को अपने गिरेबां में झांकना ही चाहिए...

Author Edited By : Abhishek Mehrotra Updated: Mar 8, 2025 17:14
Womens Day

International Women’s Day: आज सुबह जब फेसबुक खोला तो तुरंत विमेंस डे का एक वीडियो प्रॉम्प्ट हुआ जिसमें दिखाया गया था कि एक कॉर्पोरेट ऑफिस की हर फीमेल एंप्लॉई की सीट पर एक फ्लावर और चॉकलेट रखी हुई थी। जाहिर है रखने वालों की मंशा अच्छी ही थी, वो आधी आबादी के प्रति संवेदनशील थे इसलिए रस्म के तौर पर ये गिफ्ट दिया, जो काबिल-ए-तारीफ भी है। पर इसके तुरंत बाद फेसबुक ने एक दूसरा वीडियो दिखाया- जिसमें बड़े बॉलीवुड स्टार का भोजपुरी गाना बज रहा था कि ‘तोहार लहंगा उठा देब रिमोट से…’। बस ये सुनकर लगा कि अभी इस दिशा में पूरे समाज को बहुत कुछ सीखने और समझने की संवेदनशीलता चाहिए। सोचिए कि कैसा महसूस होता होगा एक महिला को जब वो कहीं से गुजर रही हो और ऐसा गाना बज उठे। इस गाने के बोल एक बानगी ही है, ऐसे पचहत्तर गाने भोजपुरी और बॉलीवुड में भरे पड़े हैं। बात केवल गाने की ही नहीं है, एडवरटाइजमेंट इंडस्ट्री में भी महिलाओं को कई बार सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर पेश किया जाता है। वैसे, यहां सिर्फ दोष फिल्म या एडवरटाइजमेंट इंडस्ट्री का नहीं है, समाज के तौर पर मेरी, आपकी यानी हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम आधी आबादी के प्रति सिर्फ एक दिन ही संवेदनशील न बनें, बल्कि ये हमारी सोच का स्थाई हिस्सा हो।

सही दिशा में नहीं पहुंची बहस

महिला सम्मान और महिला अधिकारों के लेकर आदिकाल से चल रही बहस अभी भी उस दिशा में नहीं पहुंची है, जहां पहुंचनी चाहिए थी। वैसे यहां एक और बात का जिक्र भी जरूरी है कि महिलाओं की प्रोन्नति की एकमात्र रुकावट पुरुष ही नहीं हैं। कई ऐसे मामले भी प्रत्यक्ष तौर पर देखे गए हैं जब महिला ही महिला की दुश्मन बनी, इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि एक इंसान ही दूसरे इंसान से ईर्ष्या कर उसका काम खराब कर देता है। पर ऐसे में चूंकि आधी आबादी को अबला माना जाता है तो ये निहायत ही जरूरी है कि ये आधी आबादी एकजुट रहे। कहना आसान होता है, पर व्यवहारिक तौर पर अमल करना मुश्किल और शायद इसी वजह से कई बार महिला के आगे बढ़ने में दूसरी महिला ही रुकावट बनती है। कॉर्पोरेट कंपनियों में इस तरह का डर्टी गेम कई तरह से खेला जाता है। कभी महिला तो कभी पुरुष उन काबिल महिलाओं के रास्ते में बाधाएं पैदा करते हैं, जो अपनी फील्ड में सिरमौर बन रही हों। कई बार किसी भी सफल महिला की सफलता के पीछे के कारण समाज क्या-क्या बताता है, उसे लिखने के लिए सम्मानित शब्द तक ढूंढना मुश्किल है।

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समाज से सियासत तक अधूरा हक

अब बात करते हैं देश की पॉलिटिकल व्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी की, 33 परसेंट आरक्षण का झुनझुना पिछले 33 सालों से चल रहा है। आजादी के 78 वर्षों में 18वीं लोकसभा तक 16 शख्सियतों ने देश में प्रधानमंत्री का पद संभाला और उसमें आधी आबादी में से सिर्फ स्वर्गीय इंदिरा गांधी ही इस पद तक पहुंचीं, कितना प्रतिशत रहा अब ये लिखना भी शर्मिंदा करता है। यहीं हालात देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति को लेकर भी है। 15 प्रेसिडेंट में सिर्फ दो महिलाएं ही अभी तक इस पद पर सुशोभित हुई हैं। बड़ा विषय ये है कि कब तक महिलाएं अपने अधिकार के लिए गुहार लगाती रहेंगी? सामाजिक स्तर की बात करें तो ये भी सर्वविदित है कि संपत्ति कानून में हक मिलने के बाद भी कितने मां-बाप या भाई आधी आबादी को इसमें हिस्सा देते हैं? सिंगल मदर को लेकर भी समाज का रुख कई बार ठीक नहीं रहता।

हर रोज संवेदनशीलता जरूरी

यहां बात किसी एक परिवार या घर की नहीं हो रही, बात है हमारी मानसिक विचारधारा की। ये कहने में भी गुरेज नहीं है कि हमारे समाज में अपब्रिंगिंग में भी लड़के और लड़की का भेद रहता है और अगर हमें वाकई आधी आबादी को उसका सही हक देना है तो इस पर काम पालन-पोषण के समय से ही करना होगा। वैसे ऐसा भी नहीं है कि समाज या कंपनियां इस विषय पर उदासीन हैं, कोशिश कई स्तर पर हो रही है और इसी तरह अगर इस मुद्दे को हर रोज संवेदनशीलता से सोचा जाएगा तो हम अपनी आधी आबादी को उसका पूरा हक दे पाएंगे। यहां उल्लेखनीय है कि जिस तरह देश की 12 बड़ी कंपनियों ने महिलाओं के लिए मेन्स्ट्रुअल लीव को अपने सिस्टम में शामिल किया है, वे इस दिशा में अच्छी पहल है। बतौर पुरुष हमें समझना होगा कि जेनेटिकली महिलाओं को किस पीड़ा से गुजरना पड़ता है, लिहाजा हमें इस तरह की पहल का स्वागत करना चाहिए।

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Edited By

Abhishek Mehrotra

First published on: Mar 08, 2025 04:16 PM

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