Sahir Ludhianvi 104th Birth Anniversary: आज भारतीय कालजयी शायर साहिर लुधियानवी की 104वीं जयंती है। इस मौके पर पढ़ें साहिर लुधियानवी पर शोध पर आधारित वरिष्ठ पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री मेकर राजेश बादल का एक आलेख, जो शीघ्र ही साहिर के जिंदगी पर प्रकाशित होने वाले ग्रंथ में प्रकाशित होगा। इसमें आप साहिर की ज़िंदगी के बारे में पढ़ेंगे। उनकी जिंदगी से जुड़े अनछुए पहलुओं के बारे में जानेंगे। लेखक ने 15 साल पहले साहिर की ज़िंदगी पर एक घंटे की बायोपिक राज्यसभा TV के लिए बनाई थी। उन दिनों वे राज्यसभा चैनल के संस्थापक और एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर थे। फिल्म यूट्यूब पर है, जो 3 हिस्सों में डिवाइड है। यहां वे चारों वीडियो भी हम आपको उपलब्ध कराएंगे, जिसमें साहिर लुधियानवी की पूरी जिंदगी, उनके दिल का दर्द, शोहरत, अधूरी प्रेम कहानी और जिंदगी का अकेलापन, सब कुछ देखने को मिलेगा तो आइए साहिर की जिंदगी के कुछ अंश जानते हैं…
आधी हकीकत, आधा फसाना
उन दिनों लाहौर साहित्यिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र था। पंजाबी, उर्दू और हिन्दी के लेखकों, कवियों, शायरों के सपनों का शहर। इकाबाल, जोश, फिराज, फैज और मजाज़ जैसे सितारे अदब-आकाश पर छाए हुए थे। लेकिन कोई नया हस्ताक्षर सामने आता तो उसका भी स्वागत होता था। गांव गांव में कविताओं के जलसे हुआ करते थे। ऐसा ही एक जलसा हुआ था अमृतसर से लाहौर के बीच बसे प्रीतनगर में। उर्दू, पंजाबी और हिंदी के कवि और शायर इकठ्ठे हुए। लौटने लगे तो मूसलाधार बरसात शुरू हो गई। दो दिन झड़ी लगी रही। इस दौरान दो चेहरे वहां एक दूसरे को घूरते रहे और कविताएं सुनते रहे। आपस में बात न हुई। बरसात थमी तो कवि चल पड़े लोपोकी गांव की ओर। लोपोकी से लाहौर के लिए बस पकड़नी थी।
रास्ता कीचड़ भरा था। कहीं खेतों की मेड़ तो कहीं बरसाती नाला- कवियों का काफिला अपने शब्दों के साथ सफर तय करता रहा। उन दो चेहरों ने भी बात की। कभी चलते चलते साथ आ जाते तो कहीं एक चेहरा दूसरे की परछाईं में पैर रखते पीछे पीछे चलता रहा- ठीक वैसे ही, जैसे हम लोग बचपन में दोस्तों की परछाईं में चला करते थे। ये दो चेहरे थे अपने ज़माने में उर्दू अदब का दमदार नाम साहिर लुधियानवी और पंजाबी की क्रांतिकारी कवियत्री अमृता प्रीतम। लोपोकी से लाहौर तक अमृता को लगता रहा कि वो इस साये के पीछे सदियों से चलती रही है। लाहौर पहुंच कर दोनों जुदा हो गए। एक दूसरे की तस्वीर दिल में बसाए। संकोच की दीवार ऐसी कि दिल की बात होठों पर न आई। खामोशी के साथ गुफ्तगू चलती रही। साहिर इक्कीस बरस के थे और अमृता उनसे दो साल बड़ी थीं। संकोची साहिर के दिलो दिमाग पर वो छा गईं थी, लेकिन संकोच की ये दीवार अमृता ने गिरा दी और एक दिन साहिर को न्यौता भेजा। साहिर आए और फिर तो सिलसिला शुरू हो गया। साहिर जब भी आते, अमृता की काली रातें सपनों के पैरों तले जैसे चांदनी बिछा देतीं। आसमान के तारे दिल की तरह धड़कने लगते। इन मुलाकातों में अक्सर खामोशी छाई रहती। नज़्में लिखी जातीं। एक दूसरे को सुनाई जातीं । मोहब्बत का इज़हार कविताओं और नज़्मों के ज़रिए होता, लेकिन दोनों ने एक दूसरे से यह न कहा, ‘मैं तुमसे प्यार करता हूं’। खामोशी ऐसी कि चुपचाप दोनों बैठे होते। साहिर सिगरेट पीता रहता। धुआं उड़ता। अमृता उसे देखती रहती। एक के बाद एक सिगरेट चलती रहती। एक बेटी की मां बन चुकीं अमृता अपने ख्यालों के खोल में बंद रह जातीं। एक जगह अमृता ने लिखा, ‘कई बार उसके हाथ को छूना चाहती। दिल तेजी से धड़कने लगता। कान गरम हो जाते। आवाज भर्राने सी लगती, लेकिन हाथ को छू न पाती। मेरे सामने संस्कारों की वो दूरी थी, जो कभी तय ही नहीं होती थी। जब वो चला जाता तो सिगरेट के टूटे और बचे टुकड़ों को उठाती, उंगलियों के बीच लगाती और थरथराने लगती। ऐसा लगता- उसका हाथ छू रही हूं। इन्ही दिनों मुझे उन टूटे टुकड़ों से सिगरेट पीने की लत लगी। सिगरेट सुलगाते ही धुएं के बीच साहिर किसी जिन्न की तरह प्रकट हो जाता।
ऐसी ही एक बैठक में साहिर से अमृता की बेटी जिद कर बैठी, ‘अंकल कहानी सुनाओ’।
साहिर ने कहानी शुरू की, एक लकड़हारा था। जंगल में लकड़ियां काटा करता था। एक दिन उसने एक राजकुमारी को देखा। बेहद सुंदर। लकड़हारे का मन हुआ कि राजकुमारी को लेकर भाग जाए।
‘फिर क्या हुआ? बेटी ने पूछा
‘होना क्या था? लकड़हारा था न। सो उदास होकर लकड़ियां काटने लगा। क्यों सच है न? साहिर ने उससे पूछा
हां! बिलकुल सच। मैंने भी देखा था उसे। बेटी ने उत्तर दिया।
अमृता बगल में खड़ी मुस्कुरा रही थीं। साहिर ने अमृता से कहा, देख लो। इसे भी कहानी पता है। इसके बाद साहिर ने फिर बेटी से पूछा, अच्छा! यह बताओ। तुमने लकड़हारे को देखा था। कौन था वो?
आप। बेटी ने उत्तर दिया।
और वो राजकुमारी कौन थी? साहिर ने पूछा
मेरी ममा, साहिर मुस्कराए। अमृता को देखकर बोले, देखा! बच्चे सब कुछ समझते हैं।
इन्ही दिनों साहिर ने अपनी चर्चित नज़्म ताजमहल लिखी। उन्होंने ये नज्म शानदार फ्रेम में मढ़वा के अमृता को भेंट की। अमृता ने हमेशा उसे कलेजे से लगाकर रखा। इस नज्म का कुछ हिस्सा पेश है-
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है/कौन कहता है कि सादिक न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं/क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस थे
ये चमनजार, ये जमना का किनारा, ये महल/ये मुनक़्क़्श दरो दीवार, ये महराब ये ताक/
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर/हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
लेकिन मोहब्बत परवान चढ़ती, इससे पहले ही अमृता के बसंत में ढेरों पतझड़ एक साथ आ गए। एक दिन सुबह सुबह साहिर आए। बोले- रोटी-रोज़गार की तलाश में लाहौर छोड़ कर जा रहा हूं। अपनी एक तस्वीर और कुछ नज़्में दे दो। और साहिर चला गया। अमृता अवसाद में चली गईं। आखिर वो क्या था, जो इन दोनों के बीच आकर खड़ा हो जाता था। उस दौर का समाज, दोनों के अपने अपने संस्कार, दोनों का मजहब, दोनों की अपनी अपनी जबान या दोनों का अपना अपना अतीत।
करीब सौ साल पुराना हिन्दुस्तान। लुधियाना में बरतानवी हुक़ूमत का एक एजेंट था फज़ल मोहम्मद। यह सांवला अंग्रेज ठाट-बाट से रहता और सामंती ज़ुल्म करता था। इसी की ग्यारहवीं या बारहवीं बीवी थी सरदार बेगम। इन दोनों का बेटा हुआ- अब्दुल हई। सरदार बेगम की हैसियत फजल मोहम्मद की नजर में एक रखैल से ज्यादा नहीं थी, इसीलिए बेटे का नाम अब्दुल हई अपने दुश्मन पड़ोसी के नाम पर रखा। जिस दिन उसे गरियाना होता। आंगन में गंदी गालियों के साथ अब्दुल हई की पिटाई शुरू हो जाती, ताकि पड़ोसी सुन ले। अब्दुल हई पिता के प्रति नफरत लिए बड़ा होता रहा। मां पर रोज जुल्म देखता था। एक दिन सब्र का बांध टूटा और सरदार बेगम ने कोर्ट में अपना हक मांग लिया। फजल मोहम्मद के लिए तो ये डूब मरने की तरह था। उसने अब्दुल हई को जान से मारने की धमकी दे डाली क्योंकि वो मां के पक्ष में गवाही देने वाला था। मां ने अपने जेवर बेचे और बेटे की हिफाजत के लिए निजी सुरक्षा गार्ड तैनात किए। सरदार बेगम ने मुकदमा तो जीत लिया, लेकिन मुआवजा एक पैसा न मिला। बेटे को लेकर सरदार बेगम चुपचाप घर से निकल गई। मां-बेटे दाने दाने को मोहताज़ थे। किसी तरह बेटे को खालसा स्कूल में एडमिशन कराया। पिता का दिया नाम भी उतार फेंका। अब उसका नाम साहिर हो गया था। आज तो खैर लुधियाना की पहचान साहिर से है। वर्षों बाद साहिर ने उस लुधियाना कॉलेज से अपने रिश्ते को कुछ इस तरह बयान किया-
मेरे अज़दाद का वतन, ये शहर, मेरी तालीम का जहां, ये मकाम, बचपन की दोस्त, ये गलियां, जिनमें रुसवा हुआ शबाब का नाम, याद आते हैं, इन फ़ज़ाओं में कितने नज़दीक और कितने दूर के नाम, मैं जहां भी रहा यहीं का रहा। मुझको भूले नहीं हैं ये दरो बाम, नाम मेरा जहां जहां पहुंचा, साथ पहुंचा है इस दयार का नाम, नज़र करता हूं इन फिजाओं को अपना दिल, अपनी रूह, अपना क़लाम।
स्कूल के बाद सरकारी कॉलेज में भी साहिर ने पढ़ाई की मगर असल पाठ तो ज़िंदगी पढ़ा रही थी। अपनों के शहर में नफ़रतों के तीर खाकर साहिर जवान हुआ। अंदर के खालीपन को भरना चाहता था। ग़रीबी देखी थी, इसलिए पैसा चाहता था, मां के साथ गुमनामी देखी थी इसलिए शौहरत चाहता था, जागीरदार पिता के हक़ में हुक़ूमत देखी थी इसलिए हुक़ूमत से लड़ना चाहता था। मां को पति का प्यार नहीं मिला, इसलिए बेपनाह मोहब्बत की चाहता था। पिता का प्यार तिजोरी में बंद था इसलिए दिल के दरवाज़े खोलकर दुनिया पर प्यार लुटाना चाहता था। ये सारी चाहतें क़लम और ज़ुबां से फूट पड़ीं। लोग साहिर के मुरीद हो गए। लड़कियां पीछे पीछे घूमतीं। इन्हीं में से एक हिन्दू लड़की थी- महिंदर। साहिर की पहली मोहब्बत। साहिर उसके पीछे पागल हो गए। उन्होंने लिखा, सामने एक मक़ान की छत पर मुंतज़िर कोई एक लड़की है, मुझको उससे नहीं ताल्लुक़ कुछ, फिर भी सीने में आग भड़की है, लेकिन ये अफ़साना आगे जाता, महिंदर इस दुनिया से चली गई। उसे टीबी हो गई थी। साहिर उसकी जलती चिता पर फूट फूट कर रोते रहे। बहुत दिन बाद सामान्य हुए तो एक और लड़की भा गई। वो तांगे पर जाती और साहिर उसके पीछे पीछे। सिलसिला चलता रहा। साहिर उसे भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि वो वाकई उसे प्यार करते हैं। लड़की ने भी दो चार क़दम आगे बढ़ाए। इसी बीच उसके घर के लोगों को पता चल गया। फिर क्या था। साहिर की जान पर बन आई। यह सिलसिला भी टूट गया। इसके बाद हॉस्टल में रहने वाली एक सिख लड़की ज़िंदगी में आ गई। यह रिश्ता मोहब्बत में तब्दील हो गया। कॉलेज में साहिर और उस लड़की के इश्क़ की दास्तान हर छात्र की ज़बान पर थी। ख़बर लड़की के घरवालों को लगी तो कॉलेज से निकाल कर गाँव ले गए। साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया। जुदाई बर्दाश्त न हुई तो एक दोस्त को साथ लेकर बीस किलोमीटर दूर पैदल उस लड़की के गाँव जा पहुंचे। खुद तो जा नहीं सकते थे। दोस्त को भेजा। उस लड़की ने हाथ जोड़ लिए और हमेशा के लिए भूल जाने की प्रार्थना की। साहिर फिर अकेले। उन्होंने लिखा, मेरा तो कुछ भी नहीं है, मैं रो रो के जी लूंगा, मगर खुदा के लिए तुम असीरे -ग़म न रहो, मैं जानता हूं कि दुनिया का ख़ौफ़ है तुमको, मुझे ख़बर है, ये दुनिया, अजीब दुनिया है, इस रिश्ते की भ्रूण हत्या होने के बाद विदाई बेला में साहिर ने लिखा- जब तुम्हें मुझसे ज़्यादा है जमाने का ख्याल, फिर मेरी याद में यूं अश्क़ बहाती क्यों हो, तुममें हिम्मत है तो दुनिया से बग़ावत कर लो, वरना मां बाप जहां कहते हैं, शादी कर लो।
इसके बाद जैसे साहिर के डीएनए से मोहब्बत हाशिए पर चली गई। पटरी से उतरी गाड़ी वापस पटरी पर न आई। क़लम समाज और व्यवस्था से लड़ने लगी। मां को लेकर लाहौर चले गए। वहां बीए में एडमिशन लिया। दो साल फ़ेल होते रहे। क़लम मज़दूरों और किसानों के हक़ में आग उगलने लगी थी, लिहाज़ा एक बार फिर कॉलेज से निकाल दिया गया। उनके खिलाफ वारंट जारी हो गया मगर तब तक वो उस दौर के नामी गिरामी शायर बन चुके थे। लेकिन उनकी अपनी ज़िंदगी वीरान थी। इसे उन्होंने दोस्तों के ज़रिए भरने की कोशिश की। मन यहां तक उचटा कि दोस्ती का अहसास पैसों से ख़रीदने की आदत बन गई, जो सारी उमर बनी रही। इसी दौर में अमृताप्रीतम से मुलाक़ात हुई और हालात ने लाहौर छोड़ने पर मजबूर किया तो अमृता की प्रीत भूलकर शहर छोड़ने का फ़ैसला करने में साहिर ने एक मिनट नहीं लगाया।
गुजरात की राज बीवी का पति पहले विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज़ों की फौज़ में भर्ती हुआ और परदेस चला गया। फिर कभी नहीं लौटा। राज बीवी ने सूनी दुनिया में रंग भरने के लिए स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू कर दिया। लाहौर चली गई। गुजरांवाला में विधवा भाभी के साथ रोज़ एक डेरे में मत्था टेकने जाती और स्कूल चली जाती। एक दिन डेरे में एक नौजवान साधू नंद पर नज़र पड़ी। साधु, संस्कृत, बृजभाषा और साहित्य का अच्छा जानकार था। उसे निजी ज़िन्दगी में इतने झटके लगे थे कि वो सन्यास ले चुका था। राज बीवी से मुलाक़ात ने चाहतों को ज़िन्दा कर दिया। दोनों ने एक दूसरे को अपना लिया। नंद स्वामी अब करतारसिंह पीयूष बन गए। पीयूष का अर्थ होता है अमृत। इसी वजह से दस बरस बाद जब करतार और राज बीवी के घर बेटी आई तो नाम रखा गया अमृत। करतार पिता तो बन गए ,लेकिन फ़क़ीरी नहीं गई। घर में सिर्फ और सिर्फ धार्मिक माहौल। अमृत दस ग्यारस बरस की रहीं होंगीं तो मां का साथ हमेशा के लिए छूट गया। पिता एक बार फिर सन्यास के मूड में। लेकिन अमृत का बंधन उन्हें न सन्यासी बना पाया और न ही वो गृहस्थी में बंध पाए। नतीज़ा घर में ही एक तरह से डेरे का माहौल। ऐसे में अमृत पर तो इसका असर होना ही था। अमृत ने भी अपने सपनों की इबारत लिखनी शुरू कर दी। लेकिन हालात ने सोच की दिशा ही बदल दी थी। एक नमूना…मां गंभीर रूप से बीमार थीं तो मौसी ने अमृत से कहा, तू ईश्वर का नाम ले। बच्चों की प्रार्थना वो अवश्य पूरी करता है। मां बच जाएगी। अमृत ने आंखें बंद कीं। बस ईश्वर से यही कहती रही, ‘मेरी मां को मत मारना’। लेकिन मां नहीं बची। बचपन पत्थर हो गया। भरोसा उठ गया। गुस्सा फट पड़ा- ईश्वर किसी की नहीं सुनता। बच्चों की भी नहीं। सारे भजन पूजन कीर्तन बंद। पिता की हर धार्मिक आज्ञा का पालन बंद। पिता पुत्री के बीच तर्क और ज़िद का संघर्ष चलता रहा। हारकर पिता ने सुबह शाम पूजा पाठ का फ़रमान सुना दिया। अमृत आंख बंद करती और कहती- लो अब आंख बंद करके भी ईश्वर को याद नहीं करती। कर लो क्या करते हो। मैं तो आंखें बंद कर सपने देखूंगी। सपनों में एक राजकुमार देखूंगी। सोलहवां साल लग चुका था।
ज़िद का एक और नमूना। मां की मौत के बाद अमृत को नानी पाल रही थी। नानी ने घर में कुछ बरतन अलग रखे थे। अमृत ने देखा- जब दूसरे धरम या नानी की नज़र में छोटी जात के लोग घर में आते तो अलग रखे उन बर्तनों में उन्हें चाय पानी मिलता था। अमृत अड़ गई, बोलीं -‘मैं भी इन्ही बर्तनों में खाऊंगी-पियूंगी। नानी हैरान। अमृता ने खाना पीना छोड़ दिया। पिताजी को पता चला तो हैरान रह गए। घर के भीतर चल रही इस दोहरी व्यवस्था की ख़बर उन्हें नहीं थी। फिर क्या था … बेटी की जान पे सब कुर्बान। उस दिन से सारे बरतन भारतीय हो गए। आखिर पिता का बेटी के सिवा इस दुनिया में था ही कौन?
एक तरफ अमृत की ज़िदें तो दूसरी तरफ पिता की आध्यात्मिक पहरेदारी- चारों तरफ किताबों की चहारदीवारी। न जाने कब किताबों का चस्का लग गया। उनके सोलहवें सावन में दाख़िल हुईं किताबें बचपन की समाधि भंग करने के लिए किसी मेनका की तरह स्वर्ग से उतरीं थीं। अमृत दो पाटों में पिस रही थी। जवान होती एक किशोरी पिता के सामने पुराणों की पूजा करती थी और उनके जाते ही फूटते यौवन की बहारें महसूस करती थी। सोलहवें साल को साठ साल बाद अमृता ने आत्मकथा रसीदी टिकट में कुछ इस तरह बयान किया- सोलहवें साल से मेरा परिचय उस असफ़ल प्रेम की तरह था, जिसकी कसक हमेशा के लिए वहीं पड़ी रह जाती है। शायद इसलिए ये सोलहवां साल मेरी ज़िन्दगी के हर साल में कहीं न कहीं शामिल है। उमर का ये साल उनकी ज़िन्दगी के सबसे महत्वपूर्ण वर्षों में से एक था। उनका पहला संकलन अमृत लहरें छप कर बाज़ार में आया। इतना लोकप्रिय हुआ कि उस समय कपूरथला के महाराजा ने अमृत को दो सौ रुपए का मनीऑर्डर भेजा, नाभा स्टेट की महारानी ने साड़ी तोहफ़े के तौर पर भेजी और न जाने कितने दिलों में अमृत गहराई से उतर गईं। अमृत अब जाना पहचाना चेहरा बन गई थी लेकिन मां की ममता से महरूम अमृत पिता के ख़ालिस प्यार के लिए तड़प रही थी।
इसी साल पिता ने सरदार प्रीतमसिंह से उनका ब्याह कर दिया। दरअसल यह शादी तो तय हो गई थी, जब अमृत सिर्फ चार साल की थी। अब वो अमृता प्रीतम बन गईं। दो बच्चों की मां भी बन चुकीं थीं लेकिन पति से रिश्ते को नहीं ढो पा रहीं थीं। साहिर से मुलाक़ात ने कुछ कामनाएँ जगाईं, लेकिन तब तक साहिर लाहौर छोड़ कर विदाई लेने आ पहुंचा था। सूनापन बरक़रार।
हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ। कलेजे पर बंटवारे की छुरी चली और दुनिया के नक़्शे में एक नए देश पाकिस्तान ने जन्म लिया। साहिर दिल्ली और अमृता परिवार के साथ देहरादून आ गईं। कुछ समय बाद साहिर मायानगरी मुंबई चले गए और अमृता देहरादून से दिल्ली आ गईं। वक़्त ने फिर साथ रहने का मौक़ा छीन लिया। लेकिन अंदर ही अंदर दोनों ने एक दूसरे को सुरक्षित रखा था। एक दूसरे के लिए नज़्में लिख रहे थे, कहानियां लिख रहे थे और अपनी भावनाएँ कागज़ पर उतार रहे थे। अमृता के पास एक छोटा साहिर था। ये था उनका बेटा नवरोज़। कहानी खुद अमृता ने बयान की है। दरअसल उन्नीस सौ छियालीस में जब वो मां बनने की तैयारी कर रही थीं तो किसी ने कहा, जिसका ख्याल मन में करो तो होने वाली संतान उसके जैसी होती है। अमृता ने प्रसव होने तक साहिर को मन में रखा और जब बेटा आया तो वो दंग रह गईं। एकदम साहिर की शक्ल। उन्होंने भगवान को लाख लाख शुक्र अदा किया। और देखिए जब बेटा तेरह साल का किशोर था तो एक दिन माँ से पूछ बैठा, मां! क्या मैं साहिर अंकल का बेटा हूं?
नहीं तो? अमृता ने उत्तर दिया
पर अगर हूँ तो बता दो। मुझे वो अच्छे लगते हैं बेटे ने कहा
हां बेटे! काश! ये सच होता तो मैंने बता दिया होता। मुझे भी वो अच्छे लगते हैं, अमृता ने बेबाक़ी से उत्तर दिया।
बरसों बाद अमृता ने दिल्ली में एक शाम साहिर को यह बात बताई तो वो हंस पड़ा। बोला- ‘वैरी पुअर टेस्ट’।
तो मुंबई में साहिर और दिल्ली में अमृता। एक अपने अकेलेपन का बोझ ढोता हुआ तो दूसरा रिश्तों की गठरी उठाए हुए। अपनी अपनी दुनिया के ख़ालीपन की कसक लिए। साहिर की ज़िंदगी में लड़कियां हमेशा दस्तक देती रहीं। मुंबई में फिल्मों ने उसे आसमानी लोकप्रियता दिलाई थी। दौलत बरस रही थी। मां के आराम के लिए कोई सुविधा उपलब्ध कराने में कंजूसी नहीं। लेकिन मां को बेटे को की तन्हाई कचोटती थी। चाय का कप साहिर के हाथों में देते हुए सरदार बेगम सोचतीं- न जाने वो दिन कब आएगा, जब बीवी इसका ख़्याल रखेगी। वो शायद नहीं जानती थीं कि सारी उमर सबके लिए जीने वाला आदमी हमेशा अकेला होता है। बेचारी साहिर की गृहस्थी का एक एक सामान इकठ्ठा करती रही। छोटे बच्चे के खिलौनों से लेकर उनके कपड़ों तक। कौन जाने कब ये घड़ी आ जाए। अफ़सोस! वो घड़ी कभी न आई। अधूरी ख़्वाहिश लिए वो दुनिया से कूच कर गईं। आख़िरी सांस लेने से पहले उसे अमृता और साहिर के भावनात्मक रिश्ते का पता चल गया था। उसने कहा भी , अमृता से ब्याह क्यों नहीं कर लेते। हर शाम शराब और किराए के दोस्त कब तक साथ देंगे। साहिर नम आंखों से मां को देखता। फ़ीकी मुस्कान के साथ चुप रह जाता। ठंडी सांस लेते हुए सोचता- मां सिर्फ बेटे की चिंता कर रही है। अरे! अमृता के साथ पति है, दो बच्चे हैं, देश भर उसे मान सम्मान देता है। बेहद खूबसूरत है और मैं- लंबे और टेढ़े मेढ़े शरीर वाला। चेहरे पर दाग, लंबी सी नाक, एक तरह से कुरूप, रोज़ रोज़ दारू की महफ़िलें- अमृता इस रिश्ते को कैसे ढोएगी? एक रिश्ते के बोझ से मुक्त होगी, दूसरे में उलझ जाएगी।
उधर अमृता रोज़ मरतीं, रोज़ जीतीं। सरदार प्रीतम सिंह अमृता को बेहद प्यार करते थे, लेकिन अमृता दिल से उस प्यार का मान नहीं रख पा रहीं थीं। बच्चे बड़े हो रहे थे। आकाशवाणी में तीन चार सौ रुपये की नौकरी करती थीं। उन्हें अपनी ख़ूबसूरती का अहसास था। दो बच्चों की मां होने के बाद भी ग़ज़ब का यौनाकर्षण था। साथ काम करने वाले न जाने कितने लोग अमृता पर जान छिड़कते थे, लेकिन अमृता को तलाश थी, उसकी जो उस पर जान छिड़के। ऐसा तो एक ही शख्स था- साहिर लुधियानवी। अमृता को एहसास था कि वो साहिर की मोहब्बत हैं, लेकिन वो खुलता क्यों नहीं? एक बार प्यार से कहे तो सही- अमृता मैं तुमसे प्यार करता हूं। आओ मुझसे शादी करो। फिर ठंडी सांस भरतीं। सोचतीं- सितारा है फिल्म इंडस्ट्री का। उसके नाम पर फ़िल्में हिट होतीं हैं। दौलत उसके क़दम चूमती है। उसकी क़लम पर सरस्वती विराजतीं हैं। वो मुस्लिम, मैं सिख। वो लिखता है उर्दू में, मैं पंजाबी में। मेरे साथ मेरे बच्चों का बोझ भी क्यों कर उठाएगा। मैं अमृताप्रीतम से अमृता साहिर बन पाऊंगी या नहीं। और फिर डबडबाई आंखों से मन को बहलातीं। उसकी दोस्ती इतनी ही मिलनी थी।
वक़्त गुज़रता रहा। दोनों अपनी अपनी जगह सितारों की तरह चमकते रहे । वो अक्सर मिलते थे लेकिन संस्कारों का फासला कभी खत्म न हो पाया। रिश्ता आधी हक़ीक़त आधा फ़साना बना रहा। दिल की बात ज़ुबां पे न आई। अमृता लिखतीं हैं, हमारे बीच नौ सौ मील का फासला था। ये नौ सौ मील लम्बा एक रेगिस्तान था जो मेरे सामने बिछा हुआ था। दिल्ली रेडियो से मैं रोज़ जो प्रोग्राम पेश करती थी, कभी कभी उसमें मेरा गीत भी होता था, मेरे खून से भीगा हुआ, जिसे पेश करते हुए मुझे अहसास होता कि मैंने एक पल के लिए वो नौ सौ मील का फ़ासला तय कर लिया है…..। इसी बीच एक घटना और घटी। अमृता ने लिखा- उन्नीस सौ सत्तावन में मेरी एक पंजाबी नज़्म ,सुनहडे पर साहित्य अकादमी का अवार्ड मिला। फोन पर ख़बर मिलते ही सर से पांव तक मैं तपने लगी। ख़ुदाया ये नज़म मैंने किसी इनाम के लिए तो नहीं लिखी थी। जिसके लिए लिखी थी, उसने तो पढ़ा ही नहीं। अब सारी दुनिया पढ़े भी तो मुझे क्या?
अवार्ड की ख़बर जंगल में आग की तरह फ़ैली। प्रेस रिपोर्टर्स और फोटोग्राफरों से घर भर गया।वो अमृता का यही नज्म लिखते हुए एक फोटो लेना चाहते थे। अमृता ने लिखना शुरू किया..देर तक लिखतीं रहीं, फोटोग्राफर चले गए तो काग़ज़ पे नज़र गई .उफ़..क्या लिख गई थीं वो.पूरे काग़ज़ पर सिर्फ साहिर…साहिर…साहिर…
ऑल इंडिया रेडियो के ज़रिए अमृता अपनी आवाज़ के जादू से लाखों सुनने वालों को दीवाना बना चुकीं थीं ।लेकिन जिसकी वो दीवानी थीं, वो उनकी ज़िन्दगी से बाहर था। उन्नीस सौ छप्पन में अमृता ने साहिर के नाम आख़िरी ख़त लिखा ,लेकिन पोस्ट नहीं किया। साहिर का नाम हटा कर छपने भेज दिया। अमृता ने ये ख़त लिखा साहिर के लिए। ख़त शमा में छपा। लोगों ने पढ़ा और प्रतिक्रियाएं भी दीं। साहिर का कोई संदेश तक न मिला। अरसे तक अमृता इस भरम में तड़प के साथ जीतीं रहीं कि जिसे आख़िरी ख़त लिखा, उसने पढ़ा ही नहीं। उधर साहिर ने ये ख़त आईना में पढ़ा तो कई दिन तक छाती से लगाए घूमते रहे। लेकिन अमृता से एक लफ्ज़ भी न बोला। वर्षों बाद जब सब कुछ खत्म हो गया तो खुद साहिर ने अमृता को बताया-‘मैंने आख़िरी ख़त पढ़ा तो लगा,अभी ख्वाज़ाअहमद अब्बास के घर जाऊं ,कृष्णचंदर के पास जाऊं ,सभी दोस्तों के पास जाऊं और उन्हें चिल्ला चिल्ला कर बताऊं कि अमृता ने ये ख़त मेरे नाम लिखा है लेकिन चुप रह गया। संकोच हुआ कि दोस्त कहेंगे- हां बेटा ! तेरे नाम ही लिखा है। अब चलो हमारे साथ । तुम्हें पागलखाने में दाख़िल कर देते हैं। अमृता को लगा अपना सर दीवार पर दे मारूं। इतना ही नहीं साहिर ने इसी मुलाक़ात में करीब बीस बरस पहले की एक घटना अमृता को सुनाई। इससे ज़ाहिर है कि साहिर अपने संकोच की लक्ष्मण रेखा पार करने में कितने कच्चे थे। उन्होंने लाहौर के दिनों को याद करते हुए अमृता से कहा, जब हम लोग लाहौर में थे तो मैं रोज़ तेरे घर के क़रीब आता था और कोने में जो पान बीड़ी की दुकान थी, वहां खड़े होकर कभी पान खरीदता ,कभी सिगरेट तो कभी सोडे का गिलास लेकर घंटों खड़ा रहता । वहां से तेरी एक झलक पाने के लिए तेरे घर की खिड़की को देखता रहता,जो उस दुकान की तरफ खुलती थी अमृता ने अफ़सोस के साथ माथा पीट लिया। बाद में उन्होंने कहीं लिखा- मेरे और साहिर के दरम्यान दो दीवारें थीं।एक ख़ामोशी की जो हमेशा बरक़रार रही और दूसरी भाषा की।मैं पंजाबी में नज़्म कहती थी ,साहिर उर्दू में। इस दीवार ने कभी मेरी नज्मों को साहिर तक नहीं पहुंचने दिया।
इसी कशमकश से गुज़र रहे साहिर की नज़्मों का पहला संग्रह -तल्ख़ियां भी लाहौर के बाज़ार में आया। साहिर को लोगों ने पलकों पर बिठा लिया । इस संग्रह की एक -एक नज़्म मुशायरों में साहिर से सुनी जाती । एक अदभुत नज़्म थी -परछाइयां। ये उस दौर के हिन्दुस्तान का आइना थी । परछाइयाँ की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं – तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं / मिरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को /अदाए -इज्ज़ोकरम से उठा रही हो तुम / सुहागरात जो ढोलक पे गाए जाते हैं /दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम /तसव्वुरात की.. . . /वो लम्हे कितने दिलकश थे ,वो घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं /वो सहरे कितने नाज़ुक थे ,वो लड़ियाँ कितनी प्यारीं थीं /बस्ती की हर इक शादाब गली ,ख़्वाबों का जज़ीरा थी गोया / हर मौजे -नफ़स , हर मौजे सबा ,नग़मों का ज़खीरा थी गोया / तसव्वुरात की. …
मोहब्बत के अफसानों में अक्सर यह सवाल झलकता है कि यह रूहानी रिश्ता है या इसमें कहीं देह भी शामिल होती है । साहिर और अमृता के इश्क़ को देखें तो इसमें दोनों बराबर नज़र आते हैं । संस्कारों की मर्यादा के चलते एक दूसरे को खुलकर गले लगाने का एक भी क़िस्सा नहीं मिलता लेकिन ऐसा नहीं होने की तकलीफ़ अमृता के लेखन में अनेक बार मिलती है । आप इस निष्कर्ष के साथ किसी भी अफ़साने का समापन कर सकते हैं कि दैहिक आकर्षण के बिना प्रेम अधूरा है। अनेक लोग इस कसक के साथ अपना बुढ़ापा ज़िंदा रखते हैं कि जीवन में उन्होंने जिससे पहली बार टूटकर मोहब्बत की ,उससे दैहिक संपर्क न हो पाया । अमृता ने तीन स्थितियों में अपने भीतर की औरत को एक लेखिका से ऊपर महसूस किया । एक बार साहिर दिल्ली आए । उन्हें सर्दी और बुखार हो गया । साहिर न न करते रहे और अमृता ने जबरन उन्हें बिस्तर पर लिटाया । शर्ट के बटन खोले और देर तक साहिर के सीने पर विक्स मलती रहीं । उन्हें कुछ कुछ होता रहा । कामनाएँ अंगड़ाई लेती रहीं । बाद में अमृता ने इस अहसास के बारे में लिखा ,’ उस समय मुझे लग रहा था कि विक्स मलते हुए मैं सारी उमर काट सकती हूं। मेरे अंदर की औरत को उस वक़्त दुनिया के किसी कागज़ – कलम की ज़रुरत नहीं थी ‘।
अमृता की अपने आप से लड़ाई साल दर साल जारी रही ।एक दिन अपने भीतर का सारा साहस बटोरकर उन्होंने तय किया कि अब सारी दूरियाँ मिटा देंगीं और साहिर को अपनी ज़िंदगी में लेकर आएंगी। उन्होंने पति से अलग होने का फैसला कर लिया । उन्नीस सौ साठ के साल की एक सुबह साहिर को फोन पर अपनी ओर से ब्याह का प्रस्ताव देने जा रहीं थीं । लेकिन इसी बीच एक फ़िल्मी मोड़ आया । रसीदी टिकट में अमृता लिखतीं हैं,’ मन ने घर की दहलीजों के बाहर क़दम रख लिया था …साहिर को मुंबई फोन करने के लिए गई थी कि अजीब संयोग हुआ । उस दिन का एक अख़बार ब्लिट्ज फ़ोन के पास पड़ा था। उसमें ख़बर और फोटो छपी थी कि साहिर को ज़िन्दगी की नई मोहब्बत मिल गई है । ख़बर का इशारा सुधा मल्होत्रा की ओर था । अमृता के हाथ फोन के डायल से कुछ इंच दूर शून्य में खड़े रह गए । वो उलटे पैरों लौट पड़ीं । बाद में उन्होंने लिखा ,’ मुझे ऑस्कर वाइल्ड के इन शब्दों की याद आई ,’मैंने मर जाने का विचार किया । ऐसे भीषण विचार में जब ज़रा कुछ कमी हुई तो मैंने जीने के लिए अपना मन पक्का कर लिया ,सोचा उदासी को अपना लिबास बना लूंगा….ज़िन्दगी की सबसे उदास कविताएँ मैंने इसी साल लिखीं ‘।अमृता को इतना सदमा लगा कि वो अवसाद में चलीं गईं । उन्हें अजीबोग़रीब सपने आने लगे । उन्हें डिप्रेशन दूर करने के लिए मनोचिकित्सक से काफी दिनों तक इलाज़ कराना पड़ा । उबरने में क़ाफ़ी वक़्त लगा । दिमाग़ में पल रहे रिश्ते की भ्रूण हत्या हो गई । अफ़साना अंजाम तक नहीं पहुँचा न ही कोई खूबसूरत मोड़ आया। हां, दिल से साहिर कभी नहीं निकले । बिखरी हुई अमृता ने अपने को तिनका तिनका समेटना शुरू किया । मान लिया कि साहिर से कभी कभी कुछ देर की मुलाक़ातें ही अब उनकी ज़िंदगी का सहारा हैं । इसी दौरान इंदरजीत याने इमरोज़ उनकी ज़िन्दगी में दाख़िल हुए। इंदरजीत की कहानी यहाँ से शुरू होती है । क्या आप रिश्तों के इस त्रिकोण की कल्पना कर सकते हैं , जिसमें किसी से किसी का कोई रिश्ता नहीं था मगर वो रूह की गहराइयों तक जाने वाले रिश्ते के तार से बंधे थे । तीनों मिलते थे ,घंटों साथ बिताते थे और अधूरी प्यास लिए रुखसत हो जाते थे । अमृता ने मंज़ूर कर लिया कि उनकी झोली में साहिर का इतना ही हिस्सा था ,साहिर मान चुके थे कि वो अमृता को इतना ही पा सकते थे और इमरोज़ भी जानते थे कि उन्हें जो मिल रहा है वो ज़िन्दगी में अमृत की एक बूँद से भी ज़्यादा है । तीनों की महफिलें जमतीं थीं और एक कसक के साथ बर्ख़ास्त हो जातीं थीं । उन्नीस सौ साठ और पैंसठ के बीच की बात है ।अमृता और इमरोज़ मुंबई गए । शाम को महफ़िल जमी। उस शाम साहिर उदास थे । महफ़िल के बाद तीनों के खाली गिलास पड़े थे। सिर्फ साहिर वहां अकेले बैठे रह गए । उस रात वहीं बैठकर उन्होंने एक नज़्म लिखी – मेरे साथी खाली जाम । तुम आबाद घरों के वासी ,मैं आवारा और बदनाम ‘। लिखने के बाद ग्यारह बजे उन्होंने अमृता को फोन किया ,ये नज्म सुनाई और बताया कि तीनों के ख़ाली गिलासों को बारी बारी से भर कर उनके नाम से पी रहे हैं।
वैसे तो अमृता और साहिर की प्रेमगाथा का एक अध्याय साहिर की मौत के साथ समाप्त हो जाता है बावजूद इसके कि अमृता की आख़िरी साँस में साहिर धड़कते रहे।लेकिन अगर साहिर के प्रेम गीतों का ज़िक्र न करें तो ये नाइंसाफी होगी । साहिर ने मुहब्बत के अफसानों को उर्दू अदब की परंपरागत पहचान से उपर ले जाते हुए नया आयाम दिया। वियोग और श्रृंगार की जिन गहराइयों और ऊँचाइयों तक साहिर ले जाते हैं, वैसा प्रयोग कम ही दिखाई देता है। अनेक गीतकारों ने बेजोड़ प्रेम गीत रचे हैं, लेकिन जैसे ही साहिर की बात आती है तो दिल यही कहता है कि जो बात साहिर में है, वो किसी और में नहीं। इस ज़बर्दस्त पूर्वाग्रह के लिए असहमत होने वालों से मुझे माफी मांगने में भी कोई हिचक नहीं है। हक़ीक़त तो यही है कि साहिर के दिल से निकली प्यार भरी आवाज सदियों तक गूंजती रहेगी। बानगी के तौर पर कुछ प्रेम गीतों को याद करना चाहूंगा। उन्नीस सौ तिरेसठ की फ़िल्म मुझे जीने दो के एक गीत की कुछ पंक्तियां देखिए- मांग में भर ले रंग सखी, आंचल भर ले तारे/ मिलन ऋतु आ गई/ कोई चांदी के रथ में आया है, मेरे बाबुल की राजधानी में/ मैं उसे देखती हूं छुप छुप कर, इक हलचल सी है जवानी में/ तड़के इक इक अंग सखी, आज खुशी के मारे/ मिलन ऋतु आ गई। और इसी फ़िल्म का एक गीत- रात भी है कुछ भीगी भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम मद्धम/ तुम आओ तो आँखे खोले, सोई हुई पायल की छम छम/ छम छम छम छम/ तपते दिल पर यूं गिरती है, तेरी नज़र से प्यार की शबनम/ जलते हुए जंगल पर जैसे/ बरखा बरसे रुक रुक थम थम/ छम छम छम छम । साहिर की अपनी मोहब्बतों के अफ़साने उनके गीतों और नज़्मों में आप हरदम महसूस कर सकते हैं । कहीं कॉलेज की कहानी झलकती है तो कहीं अमृता के लिए संदेश । कहीं सुधा मल्होत्रा इन नज़्मों का केंद्र दिखाई देतीं हैं तो कहीं इन दास्तानों की नाकामी की तड़प ।कुछ कम सुने गए गीतों को भी ज़रा याद कीजिए । उन्नीस सौ चौंसठ में एक फ़िल्म आई थी- चांदी की दीवार। इसमें साहिर ने लिखा- कुछ दिन से किसी के सपनों में/ तुम चुपके चुपके आते हो/ हाथों में हाथ पकड़ते हो, नैनों से नैन मिलाते हो/ कुछ कहते हुए रुक जाते हो/ वो बात कहो तो मैं कह दूँ/ जो कहने से तुम शरमाती हो, वो बात कहो तो मैं कह दूँ। धूल का फूल (1959) में एक नायिका के होठों पर साहिर के बोल कुछ इस तरह फूटे- धड़कने लगे दिल के तारों की दुनिया, जो तुम मुस्करा दो/ सँवर जाए हम बेक़रारों की दुनिया, जो तुम मुस्करा दो / ये बोझल घटाएँ बरसती हुईं, ये बेचैन रूहें तरसती हुईं/ ये सांसों से शोले निकलते हुए, बदन आँच खाकर पिघलते हुए/ धड़कने लगे दिल के तारों की दुनिया…..। फ़िल्म हमदोनों के एक गीत ने भी काफी लोकप्रियता बटोरी थी । गीत का एक टुकड़ा इस प्रकार था- सितारे झिलमिला उठे, चराग़ जगमगा उठे/ बस अब ना मुझको टोकना, न बढ़ के राह रोकना/ अगर मैं रुक गई अभी, तो जा न पाऊँगी कभी/ यही कहोगे तुम सदा, कि दिल अभी नहीं भरा/ जो ख़त्म हो किसी जगह ये ऐसा सिलसिला नहीं/ अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।
और 1975 में आई फ़िल्म अमानत को आप कैसे भूल सकते हैं। एक यादगार रात नायक नायिका से कहता है- दूर रहकर न करो बात, क़रीब आ जाओ / /याद रह जाएगी ये रात, क़रीब आ जाओ/ एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हे छूने की / आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ/ इस क़दर हमसे झिझकने की ज़रूरत क्या है / ज़िंदगी भर का है अब साथ, क़रीब आ जाओ।
क्या अजीब बात है । यही बात तो अमृता उमर भर कहतीं रहीं । साहिर अपने गीतों के ज़रिए तो संदेश भेजते रहे और झिझकते भी रहे । अमृता को छू भी न पाए अलबत्ता बीमारी में अमृता ने तो जबरन विक्स से उनकी मालिश कर दी थी ।
लगता है साहिर अमृता के साथ ज़िन्दगी की गाडी खींचने के लिए खुद को कभी तैयार नहीं कर पाए । वो हमेशा तनाव में रहे। जब साहिर की नज़्मों का पहला संग्रह – तल्खियां छपकर आया तो इसकी अनेक नज्मों में साहिर की कशमकश साफ़ नज़र आती थी ।मसलन एक नज़्म हिंदुस्तान में सिनेमा के परदे पर लोगों ने उन्नीस सौ पैंसठ के आस पास देखी मगर साहिर की कलम से तो ये उन्नीस सौ छियालीस में ही निकल चुकी थी । इसमें साहिर की उलझन आप पढ़ सकते हैं। इसी तरह तल्खियां में एक और नज़्म थी जो बरसों बाद भारतीय सिनेमा के परदे पर आई । इसमें भी साहिर ने एक तरह से अमृता को साफ़ साफ़ संदेश दे दिया था । ये नज़्म थी ,’ चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों । वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न मुमकिन ,उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा । लेकिन अमृता अपने से साहिर को अलग कैसे कर सकतीं थीं – भला रूह का भी बंटवारा होता है ?
साहिर भी अमृता का दर्द समझते थे ।कहा जाता है कि उन्होंने एक गीत ऐसा लिखा था जो एक तरफ अमृता के दिल की हालत बयान करता था तो दूसरी ओर अमृता को अपनी मजबूरी भी बताता था । ये गीत था –
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको,मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है।
इस रिश्ते का अंत उन्नीस सौ अस्सी में हो गया ,जब साहिर इस दुनिया से ऊपर चले गए और अमृता अपनी उमर के बाक़ी दिन उनके नाम न कर पाईं । उन्हें आख़िरी सांस तक एशियन राइटर्स कॉन्फ्रेंस का एक मनहूस पल तड़पाता रहा । हुआ यह था कि कॉन्फ्रेंस शुरू होने के ठीक पहले साहिर और अमृता साथ साथ पहुंचे । दोनों की कुर्सियाँ सटी हुई थी और दोनों के लिए सीने पर लगाए जाने वाले नाम के बैच भी पड़े हुए थे । साहिर ने अपने नाम का बैच उठाया और अमृता के सीने पर टांग दिया और अमृता का बैच अपने सीने पर लगा लिया । पूरी कॉन्फ्रेंस में दोनों बावले ऐसे ही घूमते रहे । जब साहिर ने अचानक इस दुनिया को अलविदा कहा तो अमृता को लगा यमदूतों ने साहिर को ग़लती से उठा लिया । दरअसल वो अमृता को लेने आए थे और साहिर के सीने पर अमृता का बैच देखा तो साहिर को अमृता समझ कर ले गए ।अकेली अमृता और भी अकेली रह गई । सहारे के लिए बचे थे इंदरजीत ,जिसे दुनिया इमरोज़ के नाम से जानती है।
एक बार फिर लौटते हैं आज़ादी से पहले के हिन्दुस्तान में और उसी लाहौर में ,जहाँ से अमृता और साहिर की प्रेमकथा शुरू हुई थी। पास के गांव लायलपुर के चक-छत्तीस में बेहद ग़रीब पंजाबी परिवार रहता था। मुश्किल से घर को रोज़ी रोटी नसीब होती थी । घर में इकलौता बेटा था इंदरजीत । सिर्फ नौ साल का था और हमेशा के लिए मां का साथ छूट गया । ममता से महरूम इंदरजीत रात के अंधेरे में अकेला चारपाई पर लेटा ,कभी दोस्तों के टिफ़िन में तो कभी अपने कपड़ों में बटन लगाते या तुरपाई करते कसक के साथ माँ की धुंधलाती छबि को याद करता था । घंटों मां को याद करके रोता । दोस्तों के साथ उनके घरों में जाता तो उनकी मांओं को देखकर उसका दिल और दुखी हो जाता ,लिहाज़ा उसने धीरे धीरे अपने को समेट लिया । उसका घर और उसकी किताबें । जब सातवीं क्लास में पहुंचा तो कहीं अमृता का फोटो देखा।फोटो को देखकर हिलक हिलक कर रोए । अमृता में मां की झलक नज़र आई। हाईस्कूल में पहुंचे तो अमृता का उपन्यास डॉक्टर देव पढ़ा। डॉक्टर देव उसका एक किरदार था । उपन्यास पढ़ते ही किशोर होते इंदरजीत के दिलो दिमाग पर अमृता छा गईं । दुस्साहस देखिए कि कहीं से लाहौर में अमृता के घर का फोन नम्बर खोजा और डायल कर दिया।
उधर से मीठी सी आवाज़ आई ,’कौन ‘?
इंदरजीत बोले ,’ मैं डॉक्टर देव बोल रहा हूं’।
इसके आगे तो बोल ही नहीं पाए और फोन काट दिया ।
वक़्त गुजरता रहा। इंदरजीत अमृता की हर किताब ख़रीदते और उसका एक एक शब्द घोंट कर पी जाते । कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके रोज़ी की तलाश में दिल्ली आ बसे । शौक चित्रकारी का था इसलिए रेखाओं को क़िस्मत के कैनवास पर उतारने का फैसला कर लिया । जल्द ही इंदरजीत की धूम मच गई । उन्नीस सौ पचास – पचपन में वो हर महीने क़रीब डेढ़ हज़ार रुपये कमाते थे । दिल में अभी भी अमृता की तस्वीर बसी हुई थी । यह तो मालूम था कि अमृता रेडियो में काम करतीं हैं । उनकी मीठी आवाज़ भी वो रोज़ सुना करते थे ।एक दिन क़िस्मत ने अमृता से मिला भी दिया । हुआ यूं कि जब साहिर के लिए अमृता ने आख़िरी ख़त लिखा और उसे आईना में छपने के लिए दिया तो उसके लिए रेखांकन का काम इंदरजीत को मिला । अमृता इंदरजीत के सामने थीं ।जिसकी तस्वीर बचपन से बसी थी ,वो उसके सामने खड़ी थी । अपने प्रेमी के लिए आख़िरी ख़त लिए हुए । अपने को संभालकर इंदरजीत ने पूछा ,जिसको लिखा है ,उसकी तस्वीर दिखा दो तो उसके आधार पर उसका ही रेखाचित्र बना देता हूँ । अमृता संकोच कर गईं । लेकिन दोनों की मुलाक़ातें होने लगीं ।अमृता ने भी अपने को समझा लिया कि उनकी ज़िंदगी अब ऐसे ही चलेगी । हालाँकि वो उमर के उस पड़ाव पर थीं ,जहां अकेलेपन का अहसास अपने सबसे विराट रूप में होता है । मन समझौता कर लेता है कि वीरान ज़िंदगी में जो भी साथ मिल रहा है ,वही बहुत है । और फिर इंदरजीत तो बचपन से उनको अपने दिल में रखे हुए है । भला ऐसी भी फ़िल्मी कहानी किसी की होती है ?
इंदरजीत अक्सर ही अमृता से मिलने आकाशवाणी जाते थे। उन दिनों रेडियो आज की तरह चौबीस घंटे नहीं चलता था । तीन सभाएं होती थीं । पहली सुबह साढ़े छह से साढ़े नौ ,दूसरी साढ़े बारह बजे से ढाई बजे और तीसरी शाम साढ़े पांच से रात साढ़े दस बजे । अमृता प्रायः रात की सभा में होतीं थीं । इस पाली के लोगों को सरकारी कार घर छोड़ने जाया करती थी । एक रात सरकारी कार को काफी देर हो गई । इंदरजीत ने कहा ,’ चलो मैं ही छोड़ आता हूँ । अमृता तब पटेल नगर में रहती थी । दोनों रात को चल दिए संसद मार्ग से पटेल नगर । उस चांदनी रात में चलते हुए अमृता और इंदरजीत ने अपने संबंधों का एक बड़ा सफ़र तय कर लिया । घर पहुंचे तो कड़ाके की भूख लग रही थी । अमृता ने नौकर से पूछा ,क्या है खाने में । अमृता की खुराक़ को देखते हुए नौकर ने सिर्फ दो रोटियां बनाई थी । एक एक रोटी दो थालियों में लेकर नौकर आया । अमृता ने इंदरजीत की भूख देखी तो चुपचाप आधी रोटी तोड़ कर दूसरी थाली में दी । बरसों बाद इंदरजीत ने इस वाकये को लिखा। शीर्षक था -आधी रोटी पूरा चांद।
इसी दौरान एक दिन इंदरजीत को मुंबई से गुरुदत्त का बुलावा आया । अपनी फिल्मों में काम चाहते थे । वेतन अच्छा था और रहने का इंतजाम भी था । इंदरजीत ने अमृता को खबर सुनाई । अमृता लिखती हैं ,’ लगा जैसे मेरे से कुछ छूट रहा हो। एक बार इसी मुंबई ने मेरे साहिर को ले लिया था और अब वही मुंबई दूसरी बार…आंखों का पानी संभल नहीं रहा था..कोई दूसरा न देखे इसलिए उस दिन का अखबार उठा कर आंखों पर रख लिया…,’ । अमृता की दुआ काम कर गई । तीन दिन ही बीते थे कि मुंबई से फोन आया,’मैं कल लौट रहा हूं। यहां नौकरी अच्छी है । गुरुदत्त भी पसंद आया है ,पर मुझे लगता है – यहां मैं नहीं रह पाऊंगा। और इंदरजीत दिल्ली लौट आए ।
लेकिन काम और पैसा तो मुंबई में ही था इसलिए अक्सर उन्हें जाना पड़ता और तब अमृता एकदम अकेली हो जातीं ।तब दोनों चिट्ठियों के ज़रिए अपनी धडकनें पहुंचाया करते । इन चिठ्ठियों में इंदरजीत अमृता को कई नामों से संबोधित करते थे । ज़ोरबा द ग्रीक नॉवेल पढ़ा तो उसकी नायिका के नाम से अमृता ज़ोरबी बन गईं । द नेकेड माजा पढ़ा तो अमृता माजा हो गईं । किचिन में जब अमृता काम करतीं और जिस तरह से वो बचत करतीं ,इंदरजीत ने उनका नाम बरकते रख दिया ।कभी उनका नाम आशी हो जाता। इंदरजीत और अमृता के बीच इस पत्र व्यवहार से दोनों के बीच रिश्ते की गहराई का पता चलता है ।
अमृता को कभी कभी इंदरजीत से उम्र में सात साल बड़ा होना कचोटता था । वो कहतीं ,’मुझे जब प्यार मिला, ज़िन्दगी की शाम होने लगी थी । उन्नीस सौ साठ में लिखे एक पत्र में अमृता लिखतीं हैं -‘राही ! तुम मुझे संध्या के समय क्यों मिले ? ज़िन्दगी का सफ़र खत्म होने वाला है । अगर मिलना था तो ज़िन्दगी की दोपहर में मिलते । कम से कम उस दोपहर का ताप तो देख लेते । ‘
और इंदरजीत ने लिखा – तुम खूबसूरत शाम ही सही ,मगर भूलो मत ,तुम ही मेरी सुबह हो ,तुम ही मेरी दोपहर हो,शाम हो ,मेरी मंज़िल हो ,मेरी क़िस्मत हो । पूरे मन से मेरे साथ -अपने जीती के साथ जीकर तो देखो ।
इंदरजीत से मिलन की तड़प का एक नमूना ,’ मेरी जान ! उड़कर आ जाओ । मेरे दिल से पंख उधार ले लो । मेरी जान ,तुम्हारा ये रूपये वाला चेक मैं कैश नहीं कराऊंगी । सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत का चेक कैश कराना है अगर ज़िन्दगी के बैंक ने कैश कर दिया तो ?’ और इंदरजीत ने उत्तर दिया ,’ आशी ! तुम्हारे बिना जीना जीना नहीं लगता ,एक सजा लगती है । कौन चाहता है कि ज़िन्दगी रहते सजा काटे ।…काम में अगर मन लगता भी है तो काम के बाद सख्त डिप्रेशन हो जाता है कि मैं यहाँ क्यों हूँ । अपने आप पर ग़ुस्सा आता है ।मैं अपनी ज़िन्दगी का नोट तुम्हारी दहलीज पर चढ़ा आया हूँ । अब ये तुम पर है -इसे भुना लो ,खर्च कर लो या देहलीज पर पड़ा रहने दो….ओ सब्रों वाली ! कभी मेरी बेसब्री लेकर तो देखो ‘।
एक और ख़त में अमृता ने लिखा,’ तुम्हारे जैसी सोच,तुम्हारे जैसी शख्सियत अगर दुनिया में न होती तो तुम्ही बताओ कहाँ जाती मैं ?..अच्छा अब जल्दी से लौट आओ ‘और इंदरजीत के भी जवाबी ख़त का छोटा सा टुकड़ा,
‘ तुम मेरी किस्मत बनी रहना ।फिर किसी बदकिस्मती की मुझे कोई परवाह नहीं ‘।
अमृता के शुभचिंतकों में एक गुलज़ार भी थे। इंदरजीत को लिखे एक ख़त में अमृता ने गुलज़ार का ज़िक्र किया। लिखा ,’ कल गुलज़ार आया था । बोल रहा था,’सुना आपकी तबियत ठीक नहीं है । मैंने कहा ,’वैसे तो ठीक हूँ ,पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है ,जब सूरज डूबता है । गुलज़ार हंसने लगा । बोला ,’पुराने समय में किसी ने काल को चारपाई के पाए से बाँधा था । आप सूरज को बांध लीजिए । मैंने कहा ,’वो तो मैंने बाँध रखा है । शाम को जब जीती का ख़त आता है तो वो सूरज ही तो होता है …जीती तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है…क्या मैं कम करामाती हूँ ? मैं भी सूरज को पाए से बाँध सकती हूँ’।
एक खत में तो अमृता और इमरोज़ के बीच मोहब्बत की चाहत का अजीब सा नमूना । उन्होंने लिखा ,’ यह मैंने कभी नहीं सोचा कि तुम्हारी मोहब्बत पाक नहीं थी । लेकिन मोहब्बत में एक प्यास थी । जवानी की प्यास । इस प्यास को तुम्हें तृप्त करना होगा ।मेरे जीती ! तुम और मैं दोनों इस प्यास का भयानक रूप देख चुके हैं । तुम जैसे मुझ तड़पती को एक ‘पराए घर ‘ में.…… यह तुम्हारा रूप नहीं ,तुम्हारी प्यास का ये भयानक रूप था । तुम दस बरस तक जी भरकर इस प्यास को मिटा लो ,फिर मैं तुम्हारे जिस्म पर पड़े सारे दाग़ अपने होंठों से पौंछ दूंगी । अगर तुमने फिर भी चाहा तो मैं तुम्हारे साथ जीने के लिए भी तैयार हो जाउंगी और मरने के लिए भी.……
और इस अजीबोगरीब ख़त में जैसे इमरोज़ ने उत्तर भी अलग अंदाज़ में दिया । इमरोज़ ने लिखा ,’तुम ज़िंदगी से रूठी हुई हो । मेरी भूल की इतनी बड़ी सज़ा नहीं आशी ! यह बहुत ज़्यादा है । दस साल का बनवास नहीं । नहीं ! मेरे साथ ऐसा न करो । मुझे आबाद करके वीरान मत करो । ‘ दोनों के बीच यह पत्र व्यवहार दिसंबर ,उन्नीस सौ साठ का है याने अमृता कोई इकतालीस साल की थीं और इमरोज़ चौंतीस के । यक़ीनन इसमें कोई तात्कालिक दैहिक दुविधा या द्वन्द है।
सिलसिला चलता रहा। आखिरकार इंदरजीत ने स्थाई तौर पर दिल्ली बस जाने का फैसला किया और मुंबई को अलविदा कह दिया । अमृता ने भी हौजख़ास इलाक़े में अपना घर बनवा लिया था । उन्नीस सौ बासठ में वो इस घर में रहने लगीं । इंदरजीत ने अमृता के बगल वाले मक़ान की पहली मंज़िल किराए पर ले ली। अब रोज़ मिलने में कोई परेशानी नहीं थी । इंदरजीत ने एक स्कूटर खरीद लिया ।बड़ी सुबह उनका दिन शुरू हो जाता । वो अमृता के बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते । लौटते तो नहा धोकर अमृता को छोड़ने आकाशवाणी जाते । वहां से अमृता के बच्चों को स्कूल से घर छोड़ते ।फिर आकाशवाणी आते । पार्क में बैठकर पेन्टिंग बनाते और शाम को अमृता को लेकर हौज ख़ास आ जाते । स्कूटर के पीछे बैठी अमृता साहिर के ख्यालों में डूबी रहती थी। जब वो स्कूटर पर पीछे बैठतीं तो उंगली से इंदरजीत की कमीज़ पर साहिर साहिर लिखती रहतीं ।दिलचस्प यह कि इंदरजीत को पता था कि उसकी पीठ पर उसके रक़ीब का नाम लिखा जाता था । यही था इंदरजीत का दिल । धीरे धीरे दोनों को लगने लगा कि वो अलग अलग नहीं रह सकते । आठ जनवरी उन्नीस सौ चौंसठ से अमृता और इंदरजीत साथ रहने लगे । बिना शादी किये । हालांकि अमृता ने पहले इंदरजीत से कहा था ,’भई देख लो ! पहले सारी दुनिया देख आओ ,और अगर लौट कर भी तुमने मेरे साथ जीना चाहा तो फिर मैं वही करूंगी जो तुम कहोगे’ ।
इंदरजीत ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और बोले,’ लो देख ली सारी दुनिया अब क्या कहती हो ।अमृता लिखतीं हैं,’अब ऐसे आदमी का कोई क्या करे ? हंसे या रोये’
तब के समाज में उनके इस रिश्ते का जमकर विरोध हुआ ,लेकिन उन्होंने कोई परवाह नहीं की । उन्होंने तो अपना समाज रचा था ।
साथ रहने के साथ ही शुरू हो गया पुराना सिलसिला । अमृता को स्कूटर पर ऑल इंडिया रेडियो छोड़ने जाना और लेकर लौटना । दिन भर वही कहीं बैठकर पेंटिंग करना । इससे पहले सुबह अमृता के बच्चों को स्कूल छोड़ना । कई बार तो ऐसा हुआ कि तीन सवारी होने के कारण पुलिस उनका चालान कर दिया । इंदरजीत पुलिस वाले को मुस्करा कर देखते ,जुर्माना भरते और चले जाते । एक दिन फिर तय हुआ कि क्यों न कार खरीदी जाए । पांच हज़ार अमृता ने दिए और इतने ही इंदरजीत ने मिलाए। कार खरीदी।रजिस्ट्रेशन करने वाले ने दो मालिकों के नाम देखे तो रिश्ता पूछा । इन्होने बताया -दोस्त। रजिस्ट्रेशन करने वाला चकरा गया । कार का नाम रखा गया -नीली। इसका ज़िक्र अमृता की कहानियों में कई बार आया है। अब नया घर था, नई कार और नया साथ इंदरजीत का। सब कुछ नया था तो इंदरजीत पुराने कैसे रह सकते थे सो उन्नीस सौ छियासठ में इंदरजीत हो गए -इमरोज़ । इमरोज़ याने आज याने वर्तमान | इसके बाद इस जोड़ी ने क़रीब चालीस बरस साथ बिताए । इमरोज़ अमृता को प्यार से हमेशा माजा कहा करते थे । इमरोज़ सुबह की चाय बनाते । अमृता को बिस्तर पर चाय मिलती । दोपहर का खाना मिलकर पकाते । रोटियां अमृता सेंकती और इमरोज़ सब्ज़ी पकाते।
जानी मानी लेखिका उमा त्रिलोक ने एक बार इमरोज़ और अमृता से सवाल किया ,’ आप लोगों ने क्या समाज में एक गलत परंपरा नहीं शुरू की है ? उत्तर इमरोज़ ने दिया । बोले ,’ वे जोड़े ,जिन्हें अपने प्यार पर भरोसा नहीं होता ,उन्हें सामाजिक स्वीकृति की ज़रुरत होती है ।हम दोनों अपना मन जानते हैं । फिर समाज की क्या ज़रुरत है ? दरअसल हम समाज के ज़रिए एक सुविधा खोजते हैं । मुझे और अमृता को ऐसी किसी सुविधा की ज़रूरत ही नहीं थी । अमृता ने इस उत्तर को आगे बढ़ाया ,’हमने प्रेम का बंधन और मज़बूत किया है । जब शादी का आधार प्रेम है तो हमने कौन सा सामाजिक नियम तोडा है ? हमने तन ,मन,वचन और कर्म से साथ निभाया है जो शायद बहुत से दूसरे जोड़े नहीं कर पाते । हमने पूरी सच्चाई से इस रिश्ते को जिया है । फिर अमृता ने अपनी एक कविता दोहराई – रूह का ज़ख्म /एक आम रोग है /ज़ख्म के नंगेपन से /अगर आती है शर्म /तो एक टुकड़ा सपने का / फाड़कर ज़ख्म पर लगा लें / ऐसी ही एक और बैठक में अमृता ने इमरोज़ से कहा ,’अगर मैं साहिर को पा लेती तो तुम्हें कैसे मिलती ? इमरोज़ ने उत्तर दिया ,’तुम मुझे तो मिलती ही ,चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से ही निकाल कर लाना पड़ता । जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते की मुश्किलें नहीं देखते । ‘
इस आलेख के अंतिम चरण में एक बेहद भावुक संस्मरण। अमृता के मन में कभी भी अपने पति प्रीतम सिंह को लेकर ग़ुस्सा ,नफरत ,चिढ़ या मनमुटाव नहीं था। अमृता से अलगाव हुए दशकों गुज़र गए । अपने अंतिम दिनों में प्रीतम एकदम अकेले थे । बीमार थे और तीमारदारी के लिए कोई पास न था । अमृता के बेटे नवरोज़ को पता चला तो उसने माँ को पूछा कि क्या वो अपने पिता को घर लाकर उनकी देखभाल और सेवा कर सकता है । अमृता ने एक सेकंड भी नहीं लगाया । बेटे और इमरोज़ के साथ प्रीतम के पास गई ,उन्हें साथ लेकर आईं और उनकी भरपूर सेवा की । इमरोज़ ने प्रीतम की तीमारदारी में रात दिन एक कर दिया । एक दिन प्रीतम सिंह ने अमृता के घर अमृता की बाँहों में अंतिम सांस ली। पूरे घर ने विधि विधान से उनके सारे संस्कार किए ।
नई सदी दस्तक दे रही थी और पुरानी विदा ले रही थी । अमृता बड़े उत्साह से सन दो हज़ार में दाख़िल हो रहीं थीं। वो उमर के अस्सी बसंत देख चुकीं थीं । इमरोज़ का साथ उन्हें हर दिन नया और ताज़ा बना देता था अलबत्ता शरीर कमज़ोर हो गया था और बुढ़ापे की बीमारियों ने घर बना लिया था । उन्हें अपने अंतिम सफ़र पर जाने का अनुमान हो गया था । वो अपने आप उठ बैठ भी नहीं पातीं थीं । इमरोज़ उन्हें अपने हाथ से नहलाते ,कपड़े बदलते, उनके बाल ठीक करते और अपने हाथ से खाना खिलाते । इसके बाद भी उनकी लिखने की इच्छा बरक़रार थी । एक दिन उन्होंने इमरोज़ से कागज़ और कलम माँगी । इमरोज़ के नाम अपनी आख़िरी कविता लिखी। इस कविता का शीर्षक था -मैं तुम्हें फिर मिलूंगी । कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं-
मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
कहां? किस तरह ? नहीं जानती ,
शायद तुम्हारे ख़्यालों की
चिंगारी बन कर
तुम्हारे केनवस पर उतरूंगी ,
या शायद तुम्हारे केनवस पर
रहस्यमय रेखा बनकर
ख़ामोश तुम्हें देखती रहूंगी
या शायद एक झरना बनूंगी
और जैसे उसका पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तुम्हारे ज़िस्म पर मलूंगी
और ठंडक सी बनकर
तुम्हारे सीने से लिपटूंगी
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक़्त जो भी करेगा
ये जन्म मेरे साथ चलेगा
ये जिस्म जब मिटता है
सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनाती कणों के होते हैं
मैं उन कणों को चुनूंगी
धागों को लपेटूंगी
और तुम्हें मैं फिर मिलूंगी
इकतीस अक्टूबर दो हज़ार पांच का दिन इमरोज़ के लिए बड़ा भारी था। लंबी बीमारी के बाद इमरोज़ की बाँहों में उन्होंने दशकों पुराने इस साथी को अलविदा कह दिय ।इसके बाद सत्तानवे साल की उमर में इमरोज़ भी अमृता से मिलने वहां चले गए, जहां से लौटकर कोई नहीं आता। जब वे क़रीब नब्बे के थे तो मेरी उनसे मुलाक़ात हुई थी। वे अपने घर में उस समय भी अमृता की उपस्थिति को एन्जॉय कर रहे थे। पूरे घर के कण कण में अमृता की निशानियां नज़र आतीं थीं ।तब इमरोज़ ने मुझसे कहा था कि अमृता ने देह छोडी है। रूह तो मेरे साथ ही है। वो मरी कहां? वो तो हमेशा मेरे साथ रहेगी।