दीपक दुआ,
इसे संयोग नहीं बल्कि मिस्टर परफैक्शनिस्ट कहे जाने वाले अभिनेता आमिर खान की फूंक-फूंक कर कदम रखने की आदत का नमूना ही कहा जाएगा। 60 की जिस उम्र को अपने यहां बुढ़ापे, रिटायर होने और सठियाने से जोड़ा जाता है, ठीक उसी दिन वह न सिर्फ अपनी एक अतिमहत्वाकांक्षी फिल्म का ऐलान करते हैं बल्कि अपनी नई गर्लफ्रेंड को भी दुनिया के सामने लाने से नहीं हिचकते। आप चाहें तो इसे दुस्साहस कह सकते हैं या प्लानिंग, मगर सठियाना तो बिल्कुल भी नहीं कह सकते। आमिर खान के पूरे जीवन पर गौर करें तो उन्होंने ढेरों दुस्साहस अपने निजी और प्रोफेशनल लाइफ में किए हैं और कुछ इस तरह की प्लानिंग के साथ किए हैं कि वह लोगों के लिए आदर्श बने, मिसाल बने और प्रेरणास्रोत भी।
आमिर खान
14 मार्च, 1931 को हिन्दी की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ के रिलीज होने के 34 बरस बाद ठीक उसी तारीख को जन्मे आमिर खान के पिता ताहिर हुसैन और चाचा नासिर हुसैन फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय थे। जाहिर है कि जब घर में फिल्मी माहौल हो तो बच्चे पर उसका असर पड़ना ही था। घर की फिजा में अक्सर फिल्मी कहानियां तैरा करतीं। फिल्मी जुबान में जिसे ‘स्टोरी सिटिंग’ कहा जाता है, उसे वह पर्दे के पीछे छुप कर सुना करते। पिता को मालूम था कि बेटा क्या कर रहा है लेकिन उन्होंने उसे कभी रोका नहीं। शायद बिरवे को सींचने का यह उनका तरीका था। फिर एक दिन वह भी आया जब एक लेखक उन्हें कहानी सुना कर चला गया तो उन्होंने छुप कर सुन रहे आमिर को बुला कर पूछा कि इस कहानी के बारे में उनकी क्या राय है। बेटे का पांव शायद उस दिन बाप के जूते में आ चुका था।
पहला दुस्साहस
फिल्मी परिवार से होने के कारण अपने घर की फिल्म ‘यादों की बारात’ से बतौर बाल-कलाकार शुरुआत करने के बाद जब युवावस्था में फिल्मों में काम करने की बारी आई तो आमिर खान ने केतन मेहता जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार की बिल्कुल ही लीक से हट कर बनी फिल्म ‘होली’ में मिले एक छोटे-से किरदार को करने में कोई आनाकानी नहीं की। यह फिल्म वक्त की रेत तले ही दबी रहती और कोई आमिर खान का नाम तक न जान पाता यदि आगे चल कर वह फिल्मों में बतौर हीरो न आते और एक सफल अभिनेता और स्टार न बनते। इसे भी संयोग ही मान लीजिए कि हिन्दी सिनेमा की ख्यात ‘खान त्रयी’-आमिर, शाहरुख, सलमान 1965 की ही पैदाइश हैं और तीनों में सबसे बड़े आमिर ने बतौर मुख्य हीरो अपनी शुरुआत बाकी दोनों से पहले की। ‘होली’ को आमिर का दुस्साहस न भी मानें तो उनकी पहली फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ को तो इस कतार में खड़ा करना ही पड़ेगा। चचेरे भाई मंसूर खान जैसा नया निर्देशक, एक नाकाम हिन्दी फिल्म दे चुकी जूही चावला जैसी अभिनेत्री, आनंद-मिलिंद जैसे नए संगीत निर्देशक और एक ऐसी दुखांत प्रेम कहानी जिसकी सफलता को लेकर खुद उसके बनाने वाले भी असमंजस में थे। यह फिल्म भी कोई रातोंरात कामयाब नहीं हुई थी। बताते हैं कि इसकी पूरी टीम अपने-अपने तरीके से इसका प्रचार कर रही थी। हीरो आमिर खान ने तो इसके पर्चे खुद कई जगह अपने हाथों से चिपकाए और निर्माता नासिर हुसैन ने कॉलेजों में टिकटें तक बंटवाईं, पर जब यह फिल्म चली तो ऐसी चली कि इतिहास बना गई।
फिसलना संभलना
पहली फिल्म चल जाए तो हीरो के घर के बाहर निर्माताओं की लाइन लग जाती है और ये वाली फिल्मी प्रथा यहां भी देखी गई और आमिर ने कई सारी ऐसी फिल्में ले लीं, जिन्होंने उन्हें न तो कामयाबी दिलाई और न ही एक अभिनेता के तौर पर कोई फायदा पहुंचाया। पर शायद नाकामी की इन्हीं ठोकरों ने उन्हें संभलने पर मजबूर किया जिसके बाद उन्होंने चुन-चुन कर फिल्में करने की एक ऐसी आदत डाली कि लोगों को सिर्फ उनके नाम भर से यह भरोसा होने लगा कि आमिर हैं तो जरूर इस फिल्म में कुछ खास ही होगा। खासतौर से स्क्रिप्ट और किरदार को लेकर उनकी जो समझ है उसका कायल तो हर कोई है। अपने लिए किरदार चुनने को लेकर जो प्रयोग उन्होंने किए वह आमतौर पर उनके कद-बुत के स्टार नहीं किया करते। ‘अंदाज अपना अपना’, ‘गुलाम’, ‘रंगीला’, ‘अकेले हम अकेले तुम’, ‘राजा हिन्दुस्तानी’, ‘1947-अर्थ’ जैसी फिल्मों के उनके किरदारों की विवेचना की जाए तो वह हिन्दी फिल्मों के आम हीरो से अलग ही दिखते हैं, लेकिन असल एक्सपेरिमैंट तो अभी होने बाकी थे।
प्रयोगों की खान
आमिर के फिल्मी सफर का सबसे बड़ा दुस्साहस 15 जून, 2001 को ‘लगान’ की शक्ल में सामने आया। इस फिल्म से बतौर नायक तो उन्होंने यह दिखाया ही कि एक धोती पहनने वाला और अवधी बोलने वाला युवक भी 21वीं सदी के दर्शकों के लिए किसी कहानी का हीरो हो सकता है। वहीं, बतौर निर्माता उन्होंने जिस तरह से इस फिल्म को बनाने का बीड़ा उठाया वह कोई हद दर्जे का सनकी आदमी ही कर सकता है। दो फ्लॉप फिल्में देकर एक अजीब-सी कहानी हाथ में लिए घूम रहे आशुतोष गोवारिकर पर जब किसी निर्माता ने भरोसा नहीं जताया तो आमिर ने खुद ही इस कहानी को दुनिया के सामने लाने की ठानी। आमिर बताते रहे हैं कि वह नहीं चाहते थे कि गलत हाथों में पड़ कर यह कहानी बर्बाद हो जाए और फिल्म इंडस्ट्री के कारोबारी निर्माता इसमें अपने मन मुताबिक फेरबदल करवा दें। पहली बार फिल्म बना रहे आमिर ने ‘लगान’ बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और यदि इस फिल्म के बनने की कहानी पर आधारित ‘चले चलो’ देखी जाए या इस पर लिखी किताब ‘कैसे बनी लगान’ पढ़ी जाए तो पता चलता है कि क्यों यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की सबसे परफैक्ट तरीके से बनी हुई फिल्म है। मिस्टर परैक्शनिस्ट कुछ करेगा तो ऐसे ही करेगा, वरना इस टैग का मतलब ही क्या?
मिस्टर परफैक्शनिस्ट
आमिर के परफैक्शन के किस्से फिल्मी दुनिया के अंदर-बाहर अक्सर सुने-सुनाए जाते हैं। अपने किरदार से जुड़ी एक-एक चीज पर पर्सनली गौर करने वाले आमिर को लोगों ने सनकी भी कहा लेकिन उन्होंने हर बात की गहराई में जाने और बारीकी से एक-एक चीज को परखने की अपनी आदत को कभी कुंद नहीं होने दिया। यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि कैसे ‘मिस्टर परफैक्शनिस्ट’ का तमगा उन्हें अभिनेत्री शबाना आजमी ने तब दिया था जब एक बार वह उनके घर पर थे और शबाना द्वारा चाय में चीनी कितनी लोगे, पूछे जाने पर उन्होंने कप के साइज के आधार पर अपना जवाब दिया था। बड़ी बातों की जड़ें अक्सर छोटी-छोटी बातों में ही छुपी होती हैं।
बदलाव का झंडा बरदार
‘लगान’ के बाद तो आमिर खान जैसे फिल्म इंडस्ट्री की अगुआई ही करने लगे थे। हालांकि इस फिल्म से पहले भी वह ‘सरफरोश’ जैसी फिल्म में एक युवा आई.पी.एस. का किरदार पूरे परफैक्शन और शिद्दत के साथ निभा कर सबकी नजरों में आ चुके थे लेकिन ‘लगान’ ने तो जैसे हर किसी को चौंका दिया था। खासतौर से अपने किरदारों के अनुरूप खुद को ढालने के उनके समर्पण के चलते उनकी तुलना दक्षिण के अभिनेता कमल हासन से की जाने लगी थी। ‘दिल चाहता है’, ‘मंगल पांडेय’, ‘रंग दे बसंती’, ‘तारे जमीं पर’ में तो उन्होंने खुद को किरदार में ढाला ही पर जब वह ‘गजिनी’ में एक अलग रूप में दिखाई दिए तो लोग फिर से चौंके कि कैसे कोई अभिनेता खुद को शारीरिक तौर पर इस तरह से बदल सकता है। इस फिल्म के तुरंत बाद ‘3 इडियट्स’ में खुद को कॉलेज का छात्र दिखाने के लिए की गई उनकी मेहनत हो या बाद में ‘दंगल’ में खुद को पहलवान दिखाने के लिए किया गया बदलाव, ऐसी मिसालें अपने यहां रोज-रोज नजर नहीं आतीं। सच तो यह है कि हर बार खुद को बदल कर आमिर ने दूसरों को बदलना सिखाया।
ऑस्कर की चौखट पर
आज हर साल भारतीय सिनेप्रेमी इस बात को लेकर उत्सुक रहते हैं कि अपने यहां से कौन-सी फिल्म ऑस्कर में गई और वहां कैसा प्रदर्शन कर पाई। लेकिन अगर यह बताया जाए कि साल 2001 से पहले ऑस्कर को लेकर आम भारतीय जनमानस ही नहीं बल्कि भारतीय मीडिया तक बेहद उदासीन रवैया रखता था तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। सच यही है कि जब आमिर खान की बनाई ‘लगान’ को विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार की दौड़ में भारत की तरफ से भेजा गया तो आमिर ने अमेरिका जाकर ऑस्कर अकादमी के तमाम सदस्यों के बीच इस फिल्म की ऐसी हवा बनाई जिसकी महक भारत तक भी पहुंची। ऑस्कर के फाइनल में नामित होने वाली पांच फिल्मों में जगह बनाने वाली इस फिल्म के बाद ही भारतीयों में इस पुरस्कार को लेकर जागरूकता आई जिसके बाद न सिर्फ भारतीय फिल्मोद्योग ने इस पुरस्कार को पाने की दिशा में गंभीरता से प्रयास शुरू किए बल्कि सरकार ने भी वहां भेजी जाने वाली फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए अनुदान देने की प्रथा शुरू की। एक अकेला व्यक्ति कैसे किसी बड़े बदलाव का कारक बनता है, यह इसकी सबसे बड़ी मिसाल है।
मार्केटिंग का उस्ताद
अपनी फिल्मों का अनोखे ढंग से प्रचार कैसे किया जा सकता है, यह दुनिया को आमिर से सीखने की जरूरत है। गजिनी के लिए जब उन्होंने अपनी बॉडी को पूरी तरह से बदल डाला था तो वह उस फिल्म के प्रचार में अपने साथ अपने जिम ट्रेनर को लेकर जाते थे। उन्हें लगता था कि जिस चीज के चलते यह फिल्म और इसमें उनका किरदार सबसे ज्यादा चर्चा में है, उससे जुड़े शख्स को भी फिल्म के प्रचार में उनके साथ होना चाहिए। इसके बाद ‘3 ईडियट्स’ की रिलीज से पहले वह इस फिल्म की थीम के मुताबिक मीडिया और लोगों के साथ लुक-छुप कर प्रचार कर रहे थे। ‘तारे जमीं पर’ के समय वह तमाम टी.वी. चैनलों पर बैठे शिक्षा व्यवस्था और पैरेंटिंग पर बहस कर थे। अपनी फिल्मों की थीम के मुताबिक फिल्मों की मार्केटिंग करने की उनकी यह अनोखी शैली बड़े-बड़े उस्तादों पर भी भारी पड़ती रही है। एक और गौरतलब बात यह भी है कि फिल्मों की रिलीज के मामले में किसी समय दिवाली और ईद के मौके ही सबसे ज्यादा ‘हॉट’ माने जाते थे। वैसे माहौल में क्रिसमस वाले सप्ताह को ‘हॉटस्पॉट’ बनाने का श्रेय आमिर खान को जाता है। उनकी ‘तारे जमीं पर’, ‘गजिनी’, ‘3 ईडियट्स’, ‘धूम 3’, ‘पी के’, ‘दंगल’ जैसी फिल्मों ने इस मौके पर आकर फिल्मी कारोबारियों को बताया है कि यह हफ्ता बड़ी फिल्मों की रिलीज के लिए कितना मुफीद हो सकता है।
जुटे हुए हैं आमिर
21वीं सदी में जब फिल्मों के बड़े सितारों का टेलीविजन के पर्दे पर आने का चलन शुरू हुआ तो अमिताभ बच्चन की देखादेखी उनमें से अधिकांश टी.वी. पर आने वाले गेम शोज में ही दिखे। कुछ कलाकारों ने अपने अभिनय से भी छोटे पर्दे को सजाया लेकिन आमिर खान ने इन सबसे अलग चलते हुए ‘सत्यमेव जयते’ जैसे एक ऐसे टॉक-शो को चुना जो देश-समाज के विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर बात कर रहा था। दुस्साहस की यह एक और मिसाल थी। और आज उम्र के 60 पड़ाव पूरे करने पर जब वह ऐलान करते हैं कि महाकाव्य ‘महाभारत’ पर आधारित एक अतिमहत्वाकांक्षी फिल्म का निर्माण उनका अगला कदम होगा तो उनका यह ऐलान केवल प्रयास नहीं लगता बल्कि विश्वास होता है कि निकट भविष्य में वह इसे जरूर सच करके दिखाएंगे और इस अंदाज में करेंगे कि लोग वाह-वाह कर उठें।
निजी जिंदगी के साहस
आमिर खान की जाती जिंदगी भी बेहद दुस्साहसिक कदमों से भरी रही। जवानी की चौखट पर प्यार हुआ तो महज 21 की उम्र में उन्होंने रीना दत्ता से शादी कर ली। बरसों बाद रीना से तलाक हुआ लेकिन उनसे हुए दोनों बच्चों के साथ वह हमेशा मौजूद रहे। फिर किरण राव से शादी और अलगाव हुआ लेकिन वही किरण उनकी हालिया चर्चित फिल्म ‘लापता लेडीज’ की डायरेक्टर हैं और अब ठीक अपने 60 साला जश्न के मौके पर वह अपनी नई प्रेयसी गौरी स्प्रैट से दुनिया को रूबरू करवा रहे हैं। कह सकते हैं कि बड़े लोगों की बड़ी बातें लेकिन जिस फिल्मी दुनिया में लोग अपनी निजी जिंदगी को सात पर्दों के पीछे रखते आए हों, उन पर बात करने से बचते हों, उसी माहौल में आमिर सरीखा एक शख्स बिना किसी पर्दादारी के अपनी निजी जिंदगी पर रोशनी डाल रहा है तो यह साहस है, जिसकी सराहना भले न हो, आलोचना नहीं हो सकती।
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं। आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ की लिखी दीपक दुआ की समीक्षा देश के कई विद्यालयों में कक्षा-8 में पढ़ाई जाती है।)