Same sex marriage case: सेम सेक्स मैरिज को लेकर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, पीएस नरसिम्हा, हिमा कोहली और एस रवींद्र भट्ट की संविधान पीठ ने फैसला सुना दिया। पीठ के समक्ष समान लिंग और समलैंगिक विवाह के लिए कानूनी मान्यता देने की मांग के लिए 20 याचिकाएं दाखिल की गई थीं। अब पीठ ने इस मामले को स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 तक सीमित रखते हुए क्लीयर कर दिया है।
न्यायालय ने साफ किया है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम या व्यक्तिगत कानूनों से नहीं निपट सकता है। इम मामले में 11 मई को 2023 को मामले का फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। पांचों जजों ने फैसले के दौरान 8 बड़ी बातें कहीं। जिनके बारे में आगे विस्तार से चर्चा कर रहे हैं।
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फैसले की बड़ी बातें जान लीजिए
1. न्यायालय ने कहा कि हम मौजूदा कानूनों के अनुसार चलते हैं। जिसके बाद विषमलैंगिक संबंधों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के विवाह के अधिकार पर सीजेआई से भी एग्री करते हैं। लेकिन समलैंगिक जोड़ों के गोद लेने के अधिकार पर जस्टिस भट्ट ने सीजेआई से असहमति जताई। कहा कि वे कुछ चिंताओं को व्यक्त करते हैं।
2. न्यायालय ने चिंताओं को लेकर साफ किया कि इनको संबोधित करने का मतलब है नीतिगत विकल्पों की एक श्रृंखला को तैयार करना। साथ ही कई विधायी वास्तुकला को शामिल करना इसमें शामिल है। 3 मई को सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि इन पहलूओं की जांच के लिए संघ द्वारा एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया जाएगा।
3. न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि समलैंगिक साझेदारों को पीएफ आदि लागू करने से रोका नहीं जा सकता है। क्योंकि ईएसआई, पेंशन आदि जैसे लाभों से इनकार करने पर प्रतिकूल पक्षपातपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि विशेष विवाह अधिनियम की लिंग तटस्थ व्याख्या कभी-कभी न्यायसंगत नहीं हो सकती है और इसके परिणामस्वरूप महिलाओं को अनपेक्षित तरीके से कमजोरियों का सामना करना पड़ सकता है।
4. न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि यदि धारा 4 को लिंग-तटस्थ तरीके से पढ़ा जाए, तो अन्य प्रावधानों से असामान्य परिणाम हमारे सामने आएंगे। जिससे विशेष विवाह अधिनियम अव्यवहारिक हो जाएगा।
5. जस्टिस भट्ट ने कहा कि सभी समलैंगिक व्यक्तियों को अपना साथी चुनने का अधिकार है। लेकिन राज्य को ऐसे संघ से मिलने वाले अधिकारों के गुलदस्ते को मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। हम इस पहलू पर सीजेआई से असहमत हैं। न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि न्यायालय समलैंगिक जोड़ों के लिए कोई कानूनी ढांचा नहीं बना सकता है। यह विधायिका का काम है। क्योंकि इसमें कई पहलूओं पर विचार किया जाना है।
6. न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि न्यायिक आदेश के माध्यम से नागरिक संघ का अधिकार बनाने में कठिनाइयां आ सकती हैं। जस्टिस भट्ट ने कहा कि जब परिवहन अधिकार नहीं है, तो क्या कोई व्यक्ति सड़कों के नेटवर्क के निर्माण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
7. न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कि उदाहरण के लिए सीमित देयता भागीदारी को तब तक मान्यता नहीं दी गई थी। जब तक कि हाल ही में एक कानून नहीं बनाया गया था। न्यायालय राज्य को ऐसे किसी संगठन को मान्यता देने के लिए कानून बनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता था।
8. जस्टिस भट्ट ने कहा कि सीजेआई के फैसले ने अधिकारों के एकीकृत सूत्र के सिद्धांत को सबके सामने दिखाया है। बताया कि कैसे मान्यता की कमी से अधिकारों का उल्लंघन होता है। हालाकि जब कानून मौन होता है, तो अनुच्छेद 19(1)(ए) राज्य को उस अभिव्यक्ति को सुविधाजनक बनाने के लिए कानून बनाने के लिए मजबूर नहीं करता है।