Bharat Ek Soch: दुनियाभर के तेज-तर्रार बुद्धिजीवी अक्सर इस बात मंथन करते रहते हैं कि भारत में ऐसा क्या खास है…क्या अलहदा है…जिससे एक अरब चालीस करोड़ आबादी वाला देश एकजुट बना हुआ है। भारत के पास ऐसी कौन सी अदृश्य और अद्भुत शक्ति है…जो उत्तर में हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर दक्षिण में महासागर के किनारों तक के लोगों को जोड़ती है। पश्चिम में कच्छ के तपते रेगिस्तान और उत्तर पूर्व में ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले लोग आपस में कैसे जुड़ जाते हैं।
पॉलिटिकल साइंस के स्टूडेंट और एक पत्रकार के तौर पर जब मैं इस मुद्दे पर सोचती हूं…तो मेरी नजर सबसे पहले भारत के मुकद्दस संविधान पर जाती है। ये एक ऐसा जीवंत ग्रंथ हैं- जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को आगे बढ़ने का रास्ता दिखाता है…किसी भी चुनौती से निपटने के लिए रोशनी दिखाता है। दुनिया के सबसे लंबे संविधान में संशोधन की भी व्यवस्था है- जिससे वक्त के साथ संविधान को और तर्कसंगत…और गतिमान…और प्रासंगिक बनाया जा सके।
इसे संविधान को वक्त और लोगों की जरूरतों के हिसाब से अपडेट और अपग्रेड करने की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से समय-समय पर ये सुर भी उठते रहे हैं कि क्या अब भारत को नए संविधान की जरूरत है। इसी साल अगस्त महीने में प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइजरी काउंसिल के चेयरमैन बिबेक देबरॉय ने एक लेख के जरिए नया संविधान पर विचार करने की राय रखी…उसके बाद ये बहस भी शुरू हो गई कि देश का संविधान बदलने की तैयारी चल रही है?
ऐसे में समझने की कोशिश करेंगे कि क्या भारत में संविधान बदलना संभव है, इतिहास में कब-कब संविधान में बदलाव की बात उठी और उसका नतीजा क्या रहा ? क्या संविधान में संशोधन की कोई सीमा है या फिर प्रचंड बहुमत से लैस सरकारें Constitution के Basic Structure को बदल सकती हैं ? अगले कुछ वर्षों में संविधान में कहां-कहां बड़े संशोधन या बदलाव दिख सकते हैं? संसद के भीतर तस्वीर किस हद तक बदल सकती है? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम भारत एक सोच की आज की किस्त में…
25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा की बैठक में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो… अगर इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हुए तो यह खराब साबित हो जाएगा। संविधान चाहे जितना भी बुरा हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे हुए तो यह भी अच्छा साबित हो सकता है। अगर भारतीय संविधान की 74 साल की यात्रा को देखा जाए तो इमरजेंसी ही एक ऐसा दौर रहा… जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में काला अध्याय की तरह देखा जाता है।
उसके बाद सभी सत्ताधारी पार्टियों ने संविधान की भावना के हिसाब से ही देश को आगे बढ़ाने का काम किया है..चाहे वो प्रचंड बहुमत वाली सरकार हो या गठबंधन की सरकार। इस साल 14 अगस्त को बिबेक देबरॉय का एक लेख छपा – जिसका शीर्षक था There’s a case for ‘we the people’ to embrace a new constitution. लेख की टाइमिंग थी – स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ से ठीक एक दिन पहले।
माना जाता है कि बिबेक देबरॉय सत्ता के गलियारों में वो हस्ती हैं – जो मौजूदा सरकार के ज्यादातर फैसलों और रणनीति में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि बिबेक देबरॉय के लेख में नए संविधान कि बात सिर्फ एक Intellectual Discourse तक सीमित था या फिर संविधान में बड़े बदलाव की स्क्रिप्ट तैयार करने की पहले भी कोशिश होती रही है। वो साल 2017 का था । महीना सितंबर का…जमीन हैदराबाद की। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और जरूरत है इस पर गौर किया जाए… बिबेक देबरॉय का भी तर्क था कि हमारा मौजूदा संविधान बहुत हद तक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 पर आधारित है।
अगर थोड़ा और पीछे चलें तो साल 2000 में वाजपेयी सरकार ने संविधान समीक्षा आयोग बनाया था… कहा जाता है कि इंदिरा गांधी के दौर में भी कुछ ऐसे नेता थे – जो संविधान में बड़े बदलाव के पक्ष में दलील देते थे। लेकिन, एक बड़ा सच यही है कि पर्दे के पीछे चाहे जो भी कहा-सुना जाता रहा हो…लेकिन, सबको अपने लिए बेहतरी की उम्मीद संविधान के मौजूदा ढांचे में दिखती रही है।
वहीं, 2023 की दूरबीन से देखा जाए तो आने वाले वर्षों में संविधान में बदलावों का असर देश, समाज, संसद और विधानसभाओं में दिखना तय है। इसमें एक है – चुनाव का सिस्टम बदलना। ये भी बहुत हद तक मुमकिन है कि आने वाले वर्षों में संसद और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हों…सितंबर में एक देश, एक चुनाव की संभावना तलाशने के लिए बनी 8 सदस्यीय कमेटी के अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसी हफ्ते कहा कि एक साथ चुनाव कराना राष्ट्रहित में है।
राजस्थान के लोगों ने EVM का बटन दबाकर अपना फैसला सुना दिया है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के लोग का फैसला EVM में दर्ज है..तेलंगाना के लोग सोच रहे हैं कि वोट की चोट कहां की जाए । अगले साल कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव भी तय हैं…एक अरब चालीस करोड़ आबादी वाले विशालकाय लोकतंत्र में शायद ही कोई ऐसा मौसम गुजरे–जिसमें कहीं न कहीं चुनावी सरगर्मियां न चल रही हों…एक चुनाव खत्म होता है और दूसरे को लेकर तैयारियां शुरू हो जाती हैं। चुनाव का मतलब होता है-मोटा खर्चा।
चुनाव मतलब होता है- तय समय तक आचार संहिता की वजह से कई फैसलों में देरी। मंत्रियों को भी अपने सरकारी काम-काज से समझौता कर चुनाव प्रचार में उतरना पड़ता है…ऐसी स्थिति को बदल कर मोदी सरकार पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की स्क्रिप्ट पर काम कर रही है। इसके लिए सितंबर महीने में ही पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जा चुकी है…जो देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने की संभावनाओं को टटोल रही है।
अब सवाल उठ रहा है कि अगर एक साथ संसद और विधानसभा के चुनाव हुए तो क्या एक ही वोटर लिस्ट बनेगी। सवाल ये भी है कि अगर किसी राज्य में बीच में ही सरकार गिर गई और दोबारा नहीं बन पाई… तो क्या होगा? क्या बीच में चुनाव से गठित विधानसभा पूरे पांच साल चलेगी या शेष बचे समय तक। देश को संसद की नई इमारत मिल चुकी है। ऐसे में लोग ये भी हिसाब लगा रहे हैं कि पुरानी संसद से नई संसद में जितनी सीटें बढ़ाई गई हैं – वो सभी भरेंगी कब? साल 2026 में होने वाले परिसीमन के बाद लोकसभा की कितनी सीटें बढ़ेंगी? परिसीमन के बाद किन राज्यों के सांसदों की संख्या बढ़ सकती और किन राज्यों के सांसदों की घट सकती है… इसी तरह एक सवाल ये भी है कि महिला आरक्षण बिल संसद से कानून तो बन गया..लेकिन, इसका फायदा महिलाओं को कब और कैसे मिलेगा?
आने वाले वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का सिस्टम बदल जाएगा। परिसीमन से चुनावी क्षेत्र की सीमा नए सिरे से परिभाषित होगी…लोकसभा में सदस्यों की संख्या बढ़ जाएगा। एक अनुमान के मुताबिक, 2029 में लोकसभा में 78 सीटें बढ़ सकती हैं, जिसमें सबसे ज्यादा फायदा यूपी को होने की भविष्यवाणी की जा रही है। बीजेपी का एक बहुत पुराना वादा अभी भी अधूरा है – वो है समान नागरिक संहिता यानी Uniform Civil Code लागू करने का। उत्तराखंड की धामी सरकार UCC लागू करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है । तेलंगाना में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया है कि अगर सूबे में बीजेपी की सरकार बनती है तो सूबे में UCC लागू कराएंगे।
दूसरे बीजेपी शासित राज्य भी इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़े हैं। माना जाता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का वादा पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए ही मोदी सरकार ने 22वें लॉ कमीशन का कार्यकाल डेढ़ साल के लिए बढ़ाया, जो फरवरी 2023 में खत्म हो रहा था…फिलहाल जस्टिस ऋतुराज अवस्थी की अगुवाई वाले लॉ कमीशन के सामने सबसे बड़ी जिम्मेदारी UCC पर सरकार को अपनी सिफारिश भेजने की है। इससे लिए लॉ कमीशन ने बकायदा लोगों से सुझाव भी मांगे और लोगों ने लाखों की संख्या में अपनी राय भी भेजी। लेकिन, अभी तक गेंद लॉ कमीशन के पाले से बाहर निकली ही नहीं है। समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए संविधान में कई संशोधन भी करने पड़ सकते हैं।
अब सवाल उठता है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाएगा? लगता है कि मोदी सरकार एक साथ पूरे देश में UCC लागू करने की जगह बीजेपी शासित राज्यों में एक-एक लागू कराने के रास्ते आगे बढ़ेगी। दूसरा, लॉ कमीशन की रिपोर्ट ठीक लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले सार्वजनिक की जा सकती है… जिसमें चुनावों के दौरान बीजेपी सत्ता में वापसी के बाद सबके लिए एक जैसा सिविल कानून बनाने की बात जोरशोर से करती दिख सकती है। लेकिन, 2024 के बाद पूरे देश में चुनाव का सिस्टम बहुत हद तक बदलना तय है।
लोकसभा और विधानसभा के भीतर की सीटों पर एक तिहाई महिलाएं बैठी दिखेंगी। जैसे शुरू में कहा था कि भारत का संविधान को कागज पर लिखा दस्तावेज भर नहीं है…हमारे पुरखों ने इसे लंबी बहस और देश की जरूरतों के हिसाब से तैयार किया है। इसमें सभी शक्तियों का स्रोत हम भारत के लोगों को बनाया गया है। हमारा संविधान जीवंत है। इसमें वक्त के साथ बदलाव का रास्ता भी हमेशा खुला है…लेकिन, Basic Structure यानी मूल ढांचे में बदलाव की गुंजाइश नहीं है।