आज के समय में शिक्षा को लेकर लोगों की जागरूकता तो बढ़ी है, लेकिन इसके साथ ही प्राइवेट स्कूलों में फीस बढ़ोतरी एक गंभीर मुद्दा बन गया है। हर साल ट्यूशन फीस के साथ-साथ अन्य शुल्कों में बेतहाशा बढ़ोतरी से अभिभावक परेशान हैं। यही कारण है कि अब देशभर में पेरेंट्स एकजुट होकर इसका विरोध कर रहे हैं और सरकार से एक स्पष्ट, पारदर्शी व सख्त कानून की मांग कर रहे हैं।
क्या है पूरा मामला?
दिल्ली-एनसीआर समेत देश के कई हिस्सों में प्राइवेट स्कूलों ने बिना किसी स्पष्टीकरण के 15% से 25% तक फीस बढ़ा दी है। फीस बढ़ोतरी सिर्फ ट्यूशन फीस तक सीमित नहीं है, बल्कि कंप्यूटर फीस, स्मार्ट क्लास, स्पोर्ट्स फीस, डेवलपमेंट चार्ज, एडमिशन फीस जैसी अलग-अलग कैटेगरी में भी मनमानी वसूली की जा रही है। इसके परिणामस्वरूप, मिडिल क्लास पेरेंट्स की जेब पर भारी बोझ पड़ रहा है। कई अभिभावकों को लोन लेकर बच्चों की पढ़ाई जारी रखनी पड़ रही है।
अभिभावकों का विरोध और नाराजगी
हालांकि, अब अभिभावक चुप बैठने को तैयार नहीं हैं। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में प्रदर्शन किए जा रहे हैं। पोस्टरों और नारों में उनका गुस्सा साफ दिखाई दे रहा है। एक महिला अभिभावक के पोस्टर पर लिखा था: “STOP FEE HIKES, WE ARE NOT ATMs – MAKE EDUCATION AFFORDABLE”
यह पोस्टर आज देशभर के हजारों माता-पिताओं की भावना को दर्शाता है।
पेरेंट्स की प्रमुख मांगें:
1. फीस बढ़ाने से पहले पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाए और अभिभावकों से सहमति ली जाए।
2. एक सख्त और स्पष्ट सरकारी कानून बनाया जाए जो स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाए।
3. स्कूलों की फाइनेंशियल रिपोर्टिंग सार्वजनिक की जाए, जिससे पता चल सके कि शुल्क किस कारण से बढ़ाया जा रहा है।
4. शिक्षा को लाभ का साधन नहीं, बल्कि सेवा के रूप में माना जाए।
कोर्ट की टिप्पणी और कानूनी स्थिति
अभिभावकों को हाल ही में अदालत से थोड़ी राहत मिली है। दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा, “स्कूलों को प्रॉफिट कमाने वाले संस्थानों की तरह नहीं चलाया जाना चाहिए।” यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान आई, जिसमें स्कूलों द्वारा फीस बढ़ोतरी के खिलाफ आवाज उठाई गई थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई स्कूल प्रॉपर्टी मालिक को किराए या हिस्सेदारी देने की शर्त पर चल रहा है, तो ऐसे मॉडल पर पुनर्विचार होना चाहिए।
सरकार की चुप्पी
अब तक राज्य सरकारें इस मुद्दे पर कुछ कदम उठा चुकी हैं, लेकिन ऑल इंडिया लेवल पर कोई स्पष्ट कानून नहीं है जो फीस नियंत्रण को लेकर लागू हो। कुछ राज्यों में फीस रेगुलेशन एक्ट है, लेकिन उनका भी पालन सही तरीके से नहीं हो रहा।
आंदोलन का अगला कदम
फेडरेशन ऑफ पेरेंट्स एसोसिएशन जैसे संगठनों ने साफ कहा है कि अगर सरकार ने शीघ्र कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो आंदोलन को और व्यापक किया जाएगा। सोशल मीडिया पर भी #StopFeeHike ट्रेंड कर रहा है, जिससे साफ है कि यह सिर्फ कुछ लोगों की लड़ाई नहीं, बल्कि एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा बन चुका है।
फीस बढ़ोतरी के कारण राजनीतिक दल भी आमने-सामने
दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में अचानक बढ़ी फीस को लेकर जहां माता-पिता और छात्र परेशान हैं, वहां राजनीतिक दल भी इस मुद्दे पर आमने-सामने आ गए हैं। आम आदमी पार्टी (AAP) ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) पर आरोप लगाया है कि वह “एजुकेशन माफिया” के साथ मिलकर बच्चों और अभिभावकों का शोषण कर रही है। वहीं, दिल्ली के शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए नए उपायों की घोषणा की है।
355 प्राइवेट स्कूलों को मिली सरकारी जमीन, पर नहीं हो रहा पालन
मंत्री आशीष सूद के अनुसार, दिल्ली सरकार ने 355 प्राइवेट स्कूलों को सरकारी जमीन दी है। इस शर्त पर कि वे कोई भी फीस बढ़ाने से पहले शिक्षा विभाग को सूचित करें और अनुमति लें। लेकिन राजधानी में 1677 स्कूल ऐसे हैं, जो बिना वैध अनुमति के, अवैध जमीनों पर चल रहे हैं। ये स्कूल मौजूदा नियमों के दायरे से बाहर हैं, जिससे सरकार की निगरानी व्यवस्था प्रभावित हो रही है। हालांकि, सरकार अब ऐसे स्कूलों की निगरानी के लिए एक नया सिस्टम विकसित कर रही है ताकि इन पर नियंत्रण लगाया जा सके।
प्राइवेट स्कूलों में क्या है फीस बढ़ाने का नियम
दिल्ली में स्कूल फीस बढ़ोतरी को नियंत्रित करने के लिए 1973 का दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम और नियम (DSEAR) लागू है। इसके तहत, सरकारी जमीन पर चलने वाले स्कूलों को हर साल अप्रैल में फीस बढ़ोतरी का प्रस्ताव ऑनलाइन देना होता है। शिक्षा निदेशालय (DoE) उस प्रस्ताव की समीक्षा करता है, और बिना अनुमोदन के कोई फीस नहीं बढ़ाई जा सकती।
हालांकि, 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि स्कूलों को फीस बढ़ाने के लिए DoE से पूर्व अनुमति की जरूरत नहीं है – बशर्ते वे मुनाफा न कमाएं। इस फैसले के बाद स्कूलों को ज्यादा छूट मिल गई, जिससे सरकार की निगरानी कमजोर हो गई।
ऑडिट सिस्टम और उसकी खामियां
प्राइवेट स्कूलों की फीस व्यवस्था की पारदर्शिता पर सवाल उठते रहे हैं। प्राइवेट स्कूल इंटरनल ऑडिट कराते हैं, लेकिन उसकी रिपोर्ट सरकार को देना अनिवार्य नहीं है। अधिकतर स्कूल खुद को ‘नॉन-प्रॉफिट’ दिखाते हैं, लेकिन इनकी ऑडिट रिपोर्ट्स की गहराई से जांच नहीं होती। वहीं, इसके विपरीत, सरकारी स्कूलों में इंटरनल और एक्सटर्नल दोनों प्रकार के ऑडिट होते हैं, जिससे उनकी कार्यप्रणाली ज्यादा पारदर्शी रहती है।
फी एनोमली कमेटी – एक अच्छा कदम, लेकिन निष्क्रिय
90 के दशक में दुग्गल कमेटी की सिफारिश पर दिल्ली सरकार ने फी एनोमली कमेटी बनाने की घोषणा की थी, ताकि माता-पिता फीस बढ़ोतरी के खिलाफ शिकायत कर सकें। 2017 में अदालत ने आदेश दिया कि हर जिले में एक तीन सदस्यीय समिति होनी चाहिए जिसमें जिला उप शिक्षा निदेशक, जोनल उप शिक्षा अधिकारी और एक चार्टर्ड अकाउंटेंट शामिल हों।
इसके लिए शिकायतकर्ता को 100 रुपये के शुल्क के साथ आवेदन करना होता है, और कमेटी को 90 दिनों में समाधान देना होता है। लेकिन हकीकत यह है कि यह समिति ज्यादातर मामलों में केवल कागजों तक ही सीमित रही है।
PMU का गठन और उसकी भूमिका
2023 में दिल्ली सरकार ने दो प्रोजेक्ट मैनेजमेंट यूनिट्स (PMUs) का गठन किया, जो प्राइवेट स्कूलों द्वारा दी गई फीस बढ़ोतरी की प्रस्तावना की जांच करते हैं। चार्टर्ड अकाउंटेंट्स की टीमें स्कूलों के फाइनेंशियल डॉक्यूमेंट्स का एनालिसिस करती हैं और यह तय करती हैं कि फीस में वाकई बढ़ोतरी की जरूरत है या नहीं।
BJP सरकार का नया प्रस्ताव
अब बीजेपी सरकार ने हर जिले में SDM के नेतृत्व में नई कमेटी बनाने का प्रस्ताव रखा है। ये कमेटियां प्राइवेट स्कूलों में फीस बढ़ोतरी से संबंधित शिकायतों की जांच करेंगी। साथ ही, एक नया शिकायत तंत्र शुरू किया गया है, जिसमें पेरेंट्स अपनी शिकायतें [ddeact1@gmail.com] पर भेज सकते हैं।
इस सिस्टम के साथ क्या है चुनौती?
इन सभी सुधारों को लागू करने के लिए शिक्षा विभाग को पर्याप्त संसाधनों और कर्मचारियों की जरूरत है। एक अधिकारी ने कहा कि “जब मीडिया में कोई मामला उठता है, तो थोड़ा ध्यान जरूर मिलता है, लेकिन बाद में सब ठंडा पड़ जाता है।” कर्मचारियों की कमी के चलते शिकायतों का समाधान करना कठिन होता जा रहा है।
स्कूल प्रशासन का तर्क
वहीं, स्कूल प्रशासन का कहना है कि बढ़ती लागत जैसे टीचर्स की सैलरी, इंफ्रास्ट्रक्चर और बिजली-पानी जैसे खर्चों के कारण उन्हें फीस बढ़ानी पड़ती है। लेकिन अभिभावक इसे मनमानी बताते हैं और कहते हैं कि शिक्षा एक सेवा है, व्यवसाय नहीं। दरअसल, दिल्ली में बड़ी संख्या में बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, इसलिए एक छोटी सी फीस बढ़ोतरी भी हजारों परिवारों को प्रभावित करती है।
दिल्ली में स्कूल फीस बढ़ोतरी का मुद्दा अब सिर्फ एक आर्थिक विषय नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समान अवसर की लड़ाई बन चुका है। सरकार, अदालतें और समाज को मिलकर यह तय करना होगा कि क्या शिक्षा एक मूलभूत अधिकार है या एक महंगा सौदा?
इस लड़ाई में अभिभावकों की एकजुटता और हिम्मत काबिल-ए-तारीफ है। लेकिन जब तक एक पारदर्शी और सख्त कानून नहीं बनता, तब तक यह संघर्ष जारी रहेगा। शिक्षा को व्यापार से मुक्त करना अब वक्त की सबसे बड़ी मांग है।