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बीजेपी-शिवसेना राज में मातोश्री कैसे बना महाराष्ट्र का पावर सेंटर?

Maharashtra Assembly Election 2024: महाराष्ट्र में 20 नवंबर को विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। जबकि नतीजे 23 नवंबर को आएंगे। आइए, इस चुनाव से पहले महाराष्ट्र की राजनीति को गहराई से जानने की कोशिश करते हैं।

Edited By : Pushpendra Sharma | Updated: Oct 23, 2024 17:23
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Bharat Ek Soch Maharashtra Election
भारत एक सोच।

Maharashtra Assembly Election 2024: कुछ महीने पहले महाराष्ट्र के कद्दावर नेता ने कहा कि मेरी निजी संपत्ति पर मेरे बेटे-बेटियों का हक है, लेकिन मेरी राजनीतिक विरासत पर पहला हक कार्यकर्ताओं का होना चाहिए। उनकी बात में साफगोई थी। एक ईमानदार सोच थी। चुनावी राजनीति में वोटर तय करता है कि किसे कुबूल करना है और किसे खारिज? अबकी बार पश्चिमी महाराष्ट्र में 83 साल के शरद पवार अपनी सियासी जमीन अपने ही भतीजे अजित पवार से बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।

क्षेत्र के मराठा नेताओं को भीतरखाने लग रहा है कि टिकटों के बंटवारे में महाविकास अघाड़ी में शरद पवार की ज्यादा चलेगी। वहीं, महायुती में अजित पवार कुछ खास नहीं कर पाएंगे। ऐसे में सियासी वजूद बचाने के लिए पश्चिमी महाराष्ट्र के कई मराठा नेताओं को शरद पवार में बेहतर संभावना दिख रही है। शायद इसी वजह से कोल्हापुर राजघराने से ताल्लुक रखनेवाले मराठा नेता समरजीत सिंह घाटगे बीजेपी छोड़ कर शरद पवार की छतरी तले खड़े हो गए हैं।

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बीजेपी का रास्ता हो सकता है मुश्किल 

पश्चिमी महाराष्ट्र में बीस से अधिक सीटें ऐसी हैं- जहां अजित पवार गुट के दावेदारों से अधिक मजबूत बीजेपी के दावेदार हैं। इस क्षेत्र के मराठा वोटबैंक में सेंधमारी के लिए बीजेपी ने अजित पवार को अपनी ओर मिलाया था। अगर क्षेत्र के दमखम वाले मराठा नेता शरद पवार के पाले में खड़े हो गए, तो बीजेपी का रास्ता मुश्किल और अजित पवार की राजनीति किनारे लगते देर नहीं लगेगी। महाराष्ट्र में कई छोटे राज्यों जैसी खूबियां हैं। विदर्भ का मिजाज अलग है। मराठवाड़ा अलग ढर्रे पर चलता है। कोकण के मुद्दे अलग हैं। वहीं, उत्तर महाराष्ट्र की अलग समस्या है। सभी पार्टियां हर क्षेत्र के वोटरों को साधने के लिए अलग रणनीति पर आगे बढ़ रही हैं। विरोधियों को ललकारने के लिए क्षेत्र के हिसाब से मुद्दों को धार देने का काम भी जारी है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि 1990 के दशक में महाराष्ट्र की राजनीति किस तरह बदली। बीजेपी-शिवसेना राज में मातोश्री कैसे बना महाराष्ट्र का पावर सेंटर? कैसे टूटा बीजेपी-शिवसेना का 25 साल पुराना दोस्ताना। महाराष्ट्र पॉलिटिक्स के मिडनाइट चैप्टर से लेकर सत्ता के लिए बनते-बिगड़ते रिश्तों तक आज हर अहम पन्ने को पलटने की कोशिश करेंगे।

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चुनावी अखाड़े में टेस्टिंग बलून!

पिछले 10 वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में रिश्ते चाहे जिस तरह से परिभाषित हुए हों, पुराने रिश्ते टूटे हों या जुड़े हों, लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि महाराष्ट्र में पिछले 10 साल में प्रति व्यक्ति आय बढ़कर डबल से अधिक हो चुकी है। साल 2014 में प्रति व्यक्ति औसत आय एक लाख 25 हजार रुपये थी, जो 2024 में बढ़कर दो लाख 77 हजार रुपये हो चुकी है। आंकड़ों से इतर महाराष्ट्र का आम आदमी भी हिसाब लगा रहा है कि उनकी रोजमर्रा की जिंदगी आसान हुई या मुश्किल? कोई मराठा आरक्षण के मुद्दे पर नेताओं को सबक सिखाने के लिए कमर कसे हुए हैं तो विदर्भ के किसान अच्छे दिनों के इंतजाम में बैठे हैं? इन सभी मुद्दों का चुनावी अखाड़े में टेस्टिंग बलून की तरह आना तय है। अब कैलेंडर को पीछे पलटते हुए 1989 में लेकर चलते हैं।

गठबंधन के शिल्पकार प्रमोद महाजन

भारत को कंप्यूटर युग में ले जाने वाले राजीव गांधी भी हिंदू-मुस्लिम राजनीति में बुरी तरह उलझ गए। 1989 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी और प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह, जिन्होंने आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकाला। बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी राम रथ पर सवार हुए और देश की राजनीति मंडल-कमंडल के खांचों में बंट गई। सियासी हलचल के बीच 1989 में शिवसेना और बीजेपी ने हाथ मिलाया। इस गठबंधन के शिल्पकार थे बीजेपी के प्रमोद महाजन। 1990 में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर महाराष्ट्र का चुनाव लड़ा। इस दोस्ती का फायदा दोनों दलों के दिखा, लेकिन निर्दलीयों के समर्थन से शरद पवार सरकार बनाने में कामयाब रहे। मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में नेतृत्व संकट पैदा हो गया। ऐसे में प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश लिए शरद पवार मुंबई से दिल्ली पहुंचे, लेकिन पीएम रेस में पी.वी. नरसिम्हा राव सब पर भारी पड़े। उसके बाद में दो घटनाएं हुईं- एक बाबरी ढांचा गिराया जाना। तब देश के गृह मंत्री की कुर्सी पर थे- एस.बी. चव्हाण और दूसरी मुंबई में सीरियल ब्लास्ट। जिसमें ढाई सौ से अधिक लोगों की जान गई और 700 से अधिक जख्मी हुए।

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बाला साहेब ठाकरे के इशारे पर सीएम करने लगे काम 

बाल ठाकरे की राजनीति के तीन मजबूत स्तंभ थे। पहला, प्रखर राष्ट्रवाद…दूसरा प्रचंड हिंदूवाद और तीसरा प्रखर महाराष्ट्रवाद। यही वजह है कि पाकिस्तान से रिश्ते के विरोध में बाल ठाकरे के इशारे पर 1991 में शिवसैनिक मुंबई में वानखेड़े स्टेडियम की पिच खोद डालते हैं। मंदिर आंदोलन में शामिल होने के लिए शिवसैनिक महाराष्ट्र से अयोध्या पहुंच जाते हैं। मराठियों की आवाज पहले से ही शिवसेना बुलंद कर रही थी। महाराष्ट्र अगले विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा था। साल 1995 में चुनाव की घंटी बजी…बीजेपी-शिवसेना दोनों के निशाने पर थी- कांग्रेस। नतीजों के बाद शिवसेना-बीजेपी की सरकार बनी, जिसमें मुख्यमंत्री बने मनोहर जोशी और उप-मुख्यमंत्री बनाए गए बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे। मनोहर जोशी एक बात अच्छी तरह समझ रहे थे कि वो तभी तक मुख्यमंत्री हैं- जब तक मातोश्री में बैठे बाला साहेब ठाकरे चाहते हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री जोशी बाला साहेब ठाकरे के इशारे पर काम करने लगे।

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मातोश्री बना पावर सेंटर 

शिवसेना-बीजेपी सरकार में विदेशी मेहमानों को भी पता था कि मुंबई में सबसे प्रभावशाली एड्रेस कौन सा है। मातोश्री सत्ता का नया पावर सेंटर बन गया। उधर, शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली। 1999 में लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए। कांग्रेस और NCP अलग-अलग चुनाव लड़े लेकिन सत्ता के लिए गलबहियां में भी देर नहीं। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। उसके बाद NCP भी UPA की जहाज पर सवार हो गई और शरद पवार मनमोहन सरकार में कृषि मंत्री बनाए गए।

शिवसेना की ड्राइविंग सीट पर आए उद्वव ठाकरे

दूसरी ओर, शिवसेना में ठाकरे परिवार के भीतर उत्तराधिकार की लड़ाई खुलकर सामने आने लगी। संजय निरुपम और नारायण राणे जैसे नेताओं ने रास्ता बदल लिया। बाल ठाकरे ने शिवसेना की कमान बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपी तो भतीजा राज ठाकरे ने अलग पार्टी बना ली। 17 नवंबर, 2012 को बाल ठाकरे ने मातोश्री में आखिरी सांस ली। जिन्हें करीब 20 लाख लोगों ने नम आंखों से मुंबई की सड़कों पर विदाई दी। इसके बाद शिवसेना की ड्राइविंग सीट पर उद्वव ठाकरे आ गए। दूसरी ओर, बीजेपी भी अटल-आडवाणी युग से मोदी-शाह युग में आ गई। साल 2014 में शिवसेना-बीजेपी का 25 साल का दोस्ताना टूट गया। दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव में उतरीं, लेकिन सत्ता की मजबूरी ने दोनों को फिर एक छतरी के नीचे ला दिया।

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MNS को क्यों हुआ नुकसान?

महाराष्ट्र की राजनीति में एक और शख्स का जिक्र करना जरूरी है, जिसमें कभी बाल ठाकरे का अक्स देखने की कोशिश होती थी। जिसकी महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना ने मुंबई में गैर-मराठियों के खिलाफ अभियान चला रखा था। आखिर शिवसेना से जुदा होने के बाद राज ठाकरे राजनीति में कुछ खास क्यों नहीं कर पाए? क्या राज ठाकरे का बार-बार स्टैंड बदलना MNS के लिए घातक साबित हुआ? क्योंकि, 2014 में राज ठाकरे ने नरेंद्र मोदी को समर्थन का ऐलान किया। वहीं, 2019 आते-आते वो बीजेपी के विरोध में खड़े हो जाते हैं। इस साल लोकसभा चुनाव के दौरान मुंबई की रैली में पीएम मोदी, एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार के साथ मंच साझा करते हैं । लेकिन, पिछले 18 वर्षों में राज ठाकरे की MNS अपने लिए सियासी जमीन क्यों नहीं तैयार कर पाई। ये भी यक्ष प्रश्न है? साल 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे पर जमकर खींचतान हुईं।

5 दिन बाद पलट गई बाजी 

आखिरी वक्त में मुश्किल से डील सील हुई। उसके बाद शतरंज की बिसात पर गोटियां इस तरह चली गईं कि जिसे कोई छापामार राजनीति का नाम देता है तो कोई विश्वासघात। राजनीति 360 डिग्री ऐसे घुमी की 12 दिन बाद रात में अचानक राष्ट्रपति शासन हट गया। रात के अंधेरे में मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस और उप-मुख्यमंत्री के रूप में अजीत पवार ने शपथ ली, लेकिन पांच दिन बाद फिर बाजी पलटी। शिवसेना, NCP और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी- जिसमें मुख्यमंत्री बने उद्धव ठाकरे। ढाई साल बाद फिर खेल हुआ और शिवसेना टूट गई। अबकी बार महाराष्ट्र की कमान एकनाथ शिंदे के हाथों में गई। उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे देवेंद्र फडणवीस। कहा जाता है कि फडणवीस ने शिवसेना और NCP दोनों तोड़कर उद्धव ठाकरे और शरद पवार से हिसाब बराबर कर लिया।

घटक दलों के बीच सहमति सबसे मुश्किल काम

महाराष्ट्र के चुनावी अखाड़े में महाविकास अघाड़ी और महायुति दोनों गठबंधन के सामने कमोवेश एक ऐसी चुनौतियां हैं। टिकट एक, दावेदार अनेक। 288 सीटों पर घटक दलों के बीच सहमति बनाना सबसे मुश्किल काम है। गठबंधन के भीतर कई सीटों पर दावेदारों में उन्नीस-बीस का अंतर है। ऐसे में टिकट कटने ने नाराज नेताओं के बागी बनने का खतरा सभी दलों को सता रहा है। साथ ही मराठा आरक्षण का मुद्दा महाराष्ट्र में NDA को डेंट मार सकता है। डर इसका भी है कि कहीं टिकटों के बंटवारे के मुद्दे पर मौजूदा गठबंधन का समीकरण न बदल जाए?

क्या सही लगेगा तीर? 

ऐसे में महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे हिसाब लगा रहे होंगे कि लोकसभा चुनाव में तो उनके दल का स्ट्राइक रेट बेहतर रहा, लेकिन क्या विधानसभा चुनाव में भी उनका तीर सही लगेगा? कुछ ऐसी ही टेंशन से अजीत पवार, शरद पवार, उद्धव ठाकरे की भी होगी? कांग्रेस के रणनीतिकार भी हिसाब लगा रहे होंगे कि जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के चुनावी नतीजों का महाराष्ट्र में किस तरह का साइड इफेक्ट दिखेगा। वहीं, महाराष्ट्र का आम आदमी भी हिसाब लगा रहा है कि किसे वोट देने पर उसकी रोजमर्रा की मुश्किलें कम होंगी। उसके बच्चों का भविष्य बेहतर होगा?

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Edited By

Pushpendra Sharma

First published on: Oct 23, 2024 05:21 PM

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