Bharat Ek Soch : देश में इन दिनों में दो मुद्दे सबसे अधिक चर्चा में हैं। पहला- पहलगाम आतंकी हमले का बदला भारत कैसे लेगा? दूसरा- जातीय जनगणना के लिए मोदी सरकार तैयार कैसे हो गई? दोनों ही सवालों के जवाब लोग अपने-अपने तरीके से खोजने की कोशिश कर रहे हैं। जाति हमारे सामाजिक ताने-बाने की सच्चाई है। हमारे देश में सामाजिक रिश्तों का आधार रही है, चुनावी राजनीति से लेकर वोटों की गोलबंदी तक में जाति ड्राइविंग सीट पर रही है।
विपक्षी पार्टियां लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग कर रही थीं। मोदी सरकार के जातीय जनगणना कराने के ऐलान के बाद से इसका क्रेडिट लेने की विपक्षी पार्टियों में होड़ लगी है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि जातीय जनगणना के बाद क्या? क्या जातीय जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आरक्षण का फायदा मिलेगा? जब दिनों-दिन सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं तो आरक्षण का फायदा कहां मिलेगा? क्या सरकार प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करेगी? अगर 10 सरकारी पदों की वैकेंसी निकली तो सरकार किस जाति को आरक्षण का फायदा देगी और किसे नहीं? क्या जातीय जनगणना से मुस्लिम समाज के भीतर भी जाति की दीवार ऊंची होगी? क्या जाति जनगणना से अब तक एकजुट माना जा रहा मुस्लिम समाज भी टूटेगा?
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सामाजिक व्यवस्था में कैसे बढ़ रही जातियों की संख्या?
कभी आपके जेहन में ये सवाल आया है कि करीब एक अरब पैतालीस करोड़ आबादी वाले विशालकाय भारत में कितनी जातियां हैं? जातियों के भीतर जातियां बढ़ती भी हैं। साल 1931 की जनगणना के समय देश में कुल 4147 जातियां रिकॉर्ड की गई थीं, लेकिन 2011 की जनगणना में ये संख्या बढ़कर 46.80 लाख तक पहुंच गई। ऐसे में अब सवाल उठता है कि क्या 2025 में देश में जातियों की संख्या 50 लाख या 55 लाख के निशान को भी पार तो नहीं कर गई होगी? आखिर हमारी सामाजिक व्यवस्था के भीतर जातियों की संख्या बढ़ कैसे रही है?
ऐसे में सरकार के सामने जातीय जनगणना की राह में पहली बड़ी चुनौती होगी, जातियों के वर्गीकरण की यानी Categorization of Caste की। दूसरी समस्या होगी कि लोग अपनी जातीय पहचान सही बताएं, क्योंकि लोग खुद को उस जमात में खड़ा करना चाहेंगे जहां आरक्षण का थोड़ा बहुत फायदा मिल सके। मसलन, बिहार में राय सरनेम भूमिहार भी इस्तेमाल करते हैं और ओबीसी कैटेगरी में आने वाले यादव भी। शर्मा टाइटल ब्राह्मण भी लगाते हैं और ओबीसी कैटेगरी में आने वाली एक खास जाति के लोग भी, इसी तरह की स्थिति पहाड़ियों में रावत टाइल को लेकर भी है।
जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी
भारत में एक नारा दशकों से लगता रहा है, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। सोशलिस्ट डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने समाज के पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए यूपी और बिहार में प्रयोग किया। इसका नतीजा ये रहा कि सत्ता में पिछड़े तो आए। लेकिन, देश में जातीय राजनीति के लिए जमीन भी तैयार हुई। लेकिन, हमलोग अभी 1931 के जातीय जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही अनुमान लगाते रहे हैं। माना जा रहा है कि इस साल सितंबर महीने में जातीय जनगणना का काम शुरू होगा। साल 1931 की जनगणना में पिछड़ी जातियों की संख्या 52 फीसदी बताई गई। इसी के आधार पर मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण मिला।
बिहार के जातीय सर्वे में ओबीसी की आबादी 63.13%
बिहार में हुए जातीय सर्वे में ओबीसी की गिनती अति पिछड़ा और पिछड़ा वर्ग के तौर पर हुई। इसके मुताबिक ओबीसी कैटेगरी में आने वाली आबादी 63.13 प्रतिशत है। तेलंगाना की आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 65 फीसदी बताई जा रही है। ज्यादातर राज्यों में प्रमुख जातियां अपनी संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर बताती रही हैं। ऐसे में जातीय जनगणना के आंकड़ों से एक बात साफ हो जाएगी कि किस जाति की संख्या कितनी है। लेकिन, अगली समस्या ये होगी कि ज्यादातर लोग खुद एक ऐसी जातीय कैटेगरी में शिफ्ट करने की जद्दोजहद करते दिख सकते हैं, जहां आरक्षण मिलने की संभावना अधिक हो। इसमें एक समस्या और है। जब देश में नौकरियां दिनों-दिन कम होती जा रही हैं या गिनती की वैकेंसी निकल रही है, उसमें समान कैटेगरी में खड़ी किस जाति को आरक्षण का लाभ दिया जाएगा, ये कैसे तय होगा? ऐसे में क्या कोटा के भीतर कोटा कल्चर और बढ़ेगा?
जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद सरकार पर बढ़ेगा दबाव
बीजेपी जातीय जनगणना का क्रेडिट लेने की कोशिश बिहार के सियासी अखाड़े में करेगी। लेकिन, जातीय जनगणना की प्रक्रिया पूरी होने में एक से डेढ़ साल का समय लगना तय है। ऐसे में 2026 के आखिर तक जातीय जनगणना के आंकड़ों के आने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसे में जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद यूपी और पंजाब विधानसभा का चुनाव हो सकता है, जहां उसका असर दिख सकता है। जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद सरकार पर रिजर्वेशन लिमिट यानी आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव बढ़ना तय है। इतना ही नहीं प्राइवेट कंपनियों में आरक्षण लागू करने की मांग जोर-शोर से उठ सकती है। जातीय जनगणना का साइड इफेक्ट मुस्लिम समुदाय पर भी दिखना तय है।
2011 की जनगणना में मुस्लिम की कितनी थी आबादी?
साल 2011 की जनसंख्या के मुताबिक, देश की आबादी में मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी 14 फीसदी से अधिक की थी। सामान्य तौर पर मुस्लिम वोटर एकजुट माना जाता है। लेकिन, जातीय जनगणना से मुस्लिम समुदाय के भीतर की जाति व्यवस्था भी खुलकर सामने आने के ग्रह-संयोग बनने लगे हैं। मसलन, बिहार में दो साल पहले हुए जातीय सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक, सूबे से 17.7 फीसदी मुसलमानों में से 4 फीसदी आबादी अगड़े मुसलमानों की है, बाकी पसमांदा और दलित मुसलमान हैं। OBC रिजर्वेशन में पसमांदा मुसलमानों की कुछ जातियां शामिल हैं। ऐसे में अगर आरक्षण के नाम पर मुस्लिम समुदाय भी आपस में जाति के नाम पर दीवार ऊंची करता दिखे तो हैरानी नहीं होगी?
यूपी-बिहार में सत्ता समीकरण ढाई जात के फॉर्मूले में
ये भी अजीब विडंबना है कि कभी जाति की राजनीति की काट के तौर पर धर्म के नाम पर वोटों के ध्रुवीकरण का प्रयोग हुआ यानी मंडल के जवाब में कमंडल। लेकिन, अब धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण कमजोर पड़ने के साथ जाति के जोड़-तोड़ के लिए रास्ता चौड़ा किया जा रहा है। एक दौर था- जब यूपी और बिहार में सत्ता समीकरण ढाई जात के फॉर्मूले में देखा जाता था। यूपी में मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम प्लस यादव वोट बैंक में दूसरी जातियों को जोड़कर सत्ता हासिल की तो बिहार में लालू यादव ने भी इसी फॉर्मूले को आजमाया। लेकिन, मोदी-शाह के दौर में हिंदुत्व+राष्ट्रवाद+विकास की हवा में जाति की राजनीति कमजोर होती दिखी और गरीब बनाम अमीर की राजनीति ने आकार लिया।
जानें बीजेपी ने क्यों किया जातीय जनगणना का ऐलान?
ऐसे में बीजेपी के दिग्गज नेता एक ओर जहां चुनावों में राष्ट्रवाद और विकास की बातें करते दिखते हैं तो वहीं बीजेपी रणनीतिकार जातीय समीकरणों को साधने पर फोकस करते रहे। शायद, 2024 लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी को महसूस हुआ कि धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण अब असरदार नहीं रहा। ऐसे में जातीय जनगणना का ऐलान कर सरकार ने एक तीर से दो निशाना साधा। पहला- विपक्ष का जातीय जनगणना कराने जैसे बड़े मुद्दे को एक झटके में हाईजैक कर लिया। दूसरा- आरक्षण कैटेगरी में जातियों को ऊपर-नीचे करने के लिए खिड़की दरवाजे खोल दिए।
जातीय जनगणना होने के बाद क्या उठेगीं मांगें?
संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने वाला कानून बन चुका है। लेकिन, ये जमीन पर कैसे और कब उतरेगा? इसका सबको इंतजार है। सवाल ये भी उठ रहा है कि कहीं जातीय जनगणना के आंकड़ों के बाद संसद और विधानसभाओं में ओबीसी के लिए भी सीटें रिजर्व करने की मांग तो नहीं उठने लगेगी? संविधान में शुरू में आरक्षण 10 वर्षों के लिए लागू किया गया था, लेकिन ये खत्म होने की जगह लगातार बढ़ ही रहा है। कई राज्यों में आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत के निशान को पार कर चुकी है। कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ओबीसी आरक्षण को 32 फीसदी से बढ़ाकर 51 फीसदी करने की तैयारी में है। अगर ये हो गया तो कर्नाटक में कुल आरक्षण 85 फीसदी हो जाएगा। तमिलनाडु में 69 फीसदी तो झारखंड में 77 फीसद आरक्षण है।
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फिलहाल, हमारे देश में कई कैटेगरी में रिजर्वेशन की व्यवस्था है- मसलन, Scheduled castes, Scheduled Tribes, Other Backward Classes, Economically Weaker Sections etc…ऐसे में जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद बड़ा बदलाव आरक्षण कैटेगरी में शामिल जातियों की लिस्ट में दिख सकता है। आरक्षण कैटेगरी में नई जातियां जुड़ सकती हैं और पहले से मौजूदा जातियां हटाई जा सकती हैं। दूसरा कोटे के भीतर कोटा बढ़ाने की मांग तेज होनी तय है। ऐसे में अब संघर्ष अगड़ी बनाम पिछड़ी जातियों में नहीं, आरक्षण के लिए एक ही कोटा के भीतर मौजूद जातियों में बढ़ना तय है। ऐसे में केंद्र सरकार अपने तरीके से ओबीसी, एससी, एसटी जातियों की लिस्ट तैयार करेगी, राज्य सरकारें अपने तरीके से। आरक्षण और दूसरी सरकारी सुविधाएं भी देने के लिए जातीय जनगणना के आंकड़ों का हवाला दिया जाएगा। ऐसे में जातीय जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद एक तरह से देश की चुनावी राजनीति में रीसेट बटन दबना तय है, जहां से सभी राजनीतिक दल नए सिरे से अपनी रणनीति को धार देते दिख सकते हैं?