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बिहार चुनाव में मुस्लिम वोट कितना अहम, 50 सीटों पर गेमचेंजर वोटर को कैसे साधेंगी राजनीतिक पार्टियां?

Bihar Election 2025: बिहार में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव आयोग ने कागजी तैयारी पूरी कर ली है। अब 4-5 अक्टूबर को आयोग की टीम बिहार का दौरा करेगी। इसके बाद विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होना है। वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक साधना शुरू कर दिया है। आज की सीरीज में हम बात करेंगे बिहार में मुस्लिम वोटरों की।

Author Written By: Anurradha Prasad Author Published By : Raghav Tiwari Updated: Sep 28, 2025 00:18
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Bihar Election 2025: बिहार में इन दिनों बहुत मंथन चल रहा है. मंथन इस बात को लेकर कि अबकी बार बिहार किसे चुनेगा? मंथन इस बात को लेकर कि अबकी बार नीतीश कुमार की सत्ता रहेगी या जाएगी? मंथन इस बात को लेकर कि प्रशांत किशोर के निशाने पर अब अगला कौन? मंथन इस बात को लेकर कि इस बार वोट जात-पात पर पड़ेगा या विकास और बदलाव के मुद्दे पर? मंथन इस बात को लेकर कि अबकी बार बिहार के मुस्लिम वोटर किसके साथ खड़े होंगे? सूबे की आबादी में मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी 17 फीसदी से अधिक है. ये समुदाय जिसके साथ खड़ा होता है, उसका पलड़ा बहुत भारी बना देता है. लेकिन, जिस बिहार में मुस्लिम समुदाय के वोटरों की संख्या करीब सवा करोड़ है. उस समुदाय के बिहार विधानसभा में सिर्फ 19 विधायक हैं.
आजादी के आंदोलन से आपातकाल के खिलाफ संघर्ष तक में मुस्लिमों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इस समुदाय से सिर्फ एक व्यक्ति ही बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा पाया, वो थे अब्दुल गफूर. मुस्लिम समुदाय से जितने भी उम्मीदवार विधानसभा पहुंचने में कामयाब रहे, उसमें अगड़ी जातियों का वर्चस्व रहा. ऐसे में ये जानना जरूरी है कि बिहार के मुसलमानों का वोटिंग पैटर्न क्या है? आखिर ये समुदाय वोट देने में आगे, लेकिन विधानसभा की दौड़ में कैसे पिछड़ जाता है? आजादी के बाद मुसलमान कांग्रेस से क्यों जुड़े. लालू यादव ने कांग्रेस के इस मजबूत वोट बैंक को अपने पाले में किस तरह खींचा? नीतीश कुमार के पसमांदा दांव से उन्हें कितना फायदा हुआ? बिहार के मुसलमानों के दिल में क्या है? क्या महागठबंधन मुस्लिम वोटरों को साथ जोड़े रखने में कामयाब रहेगा या नीतीश कुमार की योजनाएं मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में पूरा खेल पलट देंगी? बिहार के चुनावी अखाड़े में असदुद्दीन ओवैसी की एंट्री और जनसुराज पार्टी के प्रशांत किशोर की पॉलिटिक्स में किधर जाएंगे मुसलमान? बिहार के मुस्लिम वोटरों का रिमोट कहां है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.

50 सीटों पर गेमचेंजर हैं मुस्लिम

बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से करीब 50 सीटों पर मुस्लिम वोटर गेमचेंजर की भूमिका में माने जाते हैं. सीमांचल के 4 जिलों यानि किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया की 24 सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका में है. 11 विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 40 फीसदी या उससे अधिक है. 7 सीटों पर 30 से 40% के बीच मुस्लिम वोटर हैं. 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटरों की हिस्सेदारी 20 से 30 प्रतिशत के बीच है. अब सवाल उठता है कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी इस समुदाय के उम्मीदवार विधानसभा की रेस में क्यों पिछड़ जाते हैं? इस सवाल पर आने से पहले ये जानना जरूरी है कि हर 100 वोट में से 17 वोट बिहार में मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए किस तरह के समीकरण बैठाए जा रहे हैं? सूबे के मुसलमानों के जेहन में कौन से मुद्दे चल रहे हैं ?

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इस बार चार खानों में बटेंगे बिहार के मुस्लिम?

महागठबंधन में साझीदार आरजेडी को लगता है कि मुस्लिम उसके साथ खड़े होंगे. कांग्रेस को लगता है कि मुस्लिम वोटर हाथ के निशान पर EVM का बटन दबाएंगे. जेडीयू को लगता है कि नीतीश सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों में मुस्लिम समुदाय के गरीब भी हैं, जो जेडीयू के साथ खड़े होंगे. बीजेपी भी इस समुदाय के वोटरों को अपने साथ जोड़ने की कोशिशों में जुटी है. वहीं, जन सुराज पार्टी के कर्ताधर्ता प्रशांत किशोर मुस्लिम उम्मीदवारों को आबादी के अनुपात में टिकट देने की बात कह चुके हैं. इस बार भी हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी बिहार के चुनावी अखाड़े में हैं. पिछले चुनाव में उनकी पार्टी के सिंबल से 5 उम्मीदवारों ने चुनाव जीत कर सबको चौंका दिया था.
बिहार में ओवैसी की एंट्री को दूसरे तरीके से भी देखा जा सकता है. दरअसल, साल 2020 के चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच वोटों का अंतर करीब 11 हजार का रहा, लेकिन दोनों के बीच सीटों का अंतर रहा 15 का. ओवैसी की AIMIM को मिले सवा पच्चीस लाख से अधिक वोट. मतलब, मुस्लिम समुदाय का वोट बंटने का खामियाजा महाठबंधन को उठाना पड़ा. ऐसे में हिसाब लगाया जा रहा है कि क्या इस बार बिहार के मुस्लिम वोटर चार खानों में बंट जाएंगे? सवाल ये भी है कि क्या बिहार में सियासी दलों और नेताओं ने मुस्लिमों को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया? क्योंकि, आजादी के बाद हुए पहले बिहार विधानसभा चुनाव में भी सिर्फ 24 मुसलमान ही चुनाव जीत सके, जिसमें से 23 कांग्रेस से और एक निर्दलीय था. तब बिहार विधानसभा में सदस्यों की संख्या 330 हुआ करती थी. उसमें 14 शेख, 5 सैयद और एक पठान यानी मुस्लिमों के बीच की अगड़ी जातियों से ताल्लुक रखते थे. ऐसे में मुस्लिम समुदाय की बिहार विधानसभा नुमांदगी के राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र को समझना जरूरी है.

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किस पार्टी ने कब उतारे कितने मुस्लिम प्रत्याशी?

भले ही इस्लाम में जाति जैसी कोई चीज नहीं है. लेकिन, हमारे देश और बिहार के मुसलमान जाति और वर्गों में बंटे हैं. कुछ स्टडी बताती हैं कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों की पसंद नंबर वन महागठबंधन रहा है. साल 2015 के बिहार चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस साथ-साथ लड़े तब महागठबंधन को मुस्लिम समुदाय का करीब 80 फीसदी वोट मिला. 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार फिर एनडीए के जहाज पर सवार हो गए. सीमांचल में AIMIM मैदान में डट गई. इसके बाद भी महागठबंधन के खाते में मुस्लिम समुदाय का करीब 77 फीसदी वोट गया. आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी मुस्लिम उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है. 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने 50% से अधिक मुस्लिम आबादी विधानसभा क्षेत्रों में 4 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिसमें से सिर्फ एक ही चुनाव जीत पाया. जेडीयू ने भी 50% से अधिक मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में 4 मुस्लिमों को टिकट दिया … लेकिन, एक भी विधानसभा नहीं पहुंच पाया.

दो धाराओं में हैं मुस्लिम

बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव के सेंटरस्टेज में आने से पहले मुस्लिम समुदाय का एकतरफा वोट कांग्रेस के खाते में जाता था. दरअसल, आजादी की लड़ाई में बिहार के मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. सूबे के मुस्लिमों में दो धाराएं चल रही थीं. मुस्लिम लीग के हिमायती जहां पाकिस्तान दिवस मना रहे थे. वहीं, जमीयत मोमिन, जमीयत उलेमा, अहरार पार्टी हिंदुस्तान दिवस मना रही थी. ऐसे में बिहार के मुस्लिमों के बीच भीतरखाने संघर्ष चल रहा था. बंटवारा सामाजिक और आर्थिक रूप से अगड़े-पिछड़े मुस्लिम समुदायों के बीच भी था. पाकिस्तान बनने के बिहार के बाद लीगी नेता पाकिस्तान नहीं जा सके, जो जमींदार और ऊंची जातियों से आते थे. उनके सामने दिक्कत ये थी कि वो कम्युनिस्ट पार्टी में जा नहीं सकते थे और सोशलिस्ट भी अपनाने से कतरा रहे थे.
ऐसे में कांग्रेस से जुड़ना सूबे के मुस्लिम नेताओं को सबसे बेहतर विकल्प लगा. क्योंकि, मुस्लिम लीग और कांग्रेस का आर्थिक आधार कमोबेश एक जैसा था. ऐसे में मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस के साथ जुड़ गए. नतीजा ये रहा कि 1952 से 1970 तक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के सिंबल से अधिकतर मुस्लिम विधायक बने लेकिन, एक और ट्रेंड भी दिखा. 1950 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में मुसलमानों की नुमाइंदगी जहां 20 प्रतिशत थी, वो 1970 आते-आते गिरकर पांच से छह प्रतिशत तक आ गयी. 1970 के दशक में जब बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हुआ. तब सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अब्दुल गफूर थे. जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाली संपूर्ण क्रांति का मुसलमानों के एक वर्ग ने समर्थन किया, तब इस आंदोलन में अब्दुल बारी सिद्दीकी बहुत एक्टिव थे. वो जेल भी गए. लेकिन, बिहार के मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ ही खड़ा रहा . लेकिन, भागलपुर दंगा और बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के मुसलमान कांग्रेस से दूर होने लगे. लालू प्रसाद यादव में सूबे के मुसलमानों को अपना नया रहनुमा दिखा, तो MY यानी मुस्लिम+यादव समीकरण के सहारे 15 वर्षों तक लालू यादव की लालटेन की लौ बरकरार रही.

अब मुस्लिम किसके साथ?

चुनाव की दहलीज पर खड़े बिहार के मुसलमान हिसाब लगा रहे हैं कि सत्ता में चाहे कोई भी आया? उनकी जिंदगी कितनी बदली? वोट के बदलने उन्हें क्या मिला? बिहार के मुसलमानों ने नेताओं की इफ्तार पार्टियां भी देखी. सेक्यूलिज्म के नाम पर गठबंधन बनते और टूटते भी देखा. मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के नाम पर राजनीतिक पार्टियों ने जिन चेहरों को आगे किया, उसमें से ज्यादातर अगड़े रहे. ऐसे में बिहार का गरीब और पिछड़ा मुसलमान हिसाब लगा रहा है कि अबकी बार वोट का इस्तेमाल कैसे किया जाए? पिछले कुछ दशकों में बिहार में राजनीतिक चक्र जिस तरह चला है. उसमें अब सूबे के मुसलमान एक नहीं हैं.
मुस्लिम समुदाय अपने सामाजिक ताने-बाने में अगर अशराफ, अजलाफ और अरजाल में बंटा है, तो राजनीतिक रूप अगड़ा और पिछड़ा यानी पसमांदा में बंटा हुआ है. दोनों वर्गों की अपनी चिंताएं, प्राथमिकताएं और राजनीतिक पसंद-नापंसद हैं. बिहार के मुस्लिमों के वोटिंग पैटर्न पर संख्या और भूगोल दोनों का प्रभाव साफ-साफ दिखता है. पिछले चुनाव में सीमांचल में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की 5 सीटों पर जीत के मायने ये भी निकाले जा सकते हैं कि सूबे के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में नए राजनीतिक विकल्प की तलाश है, लेकिन जिन क्षेत्र में मुस्लिम वोटर बिखरे हैं.
वहां स्थानीय नेताओं और जातीय समीकरणों के समर्थन या विरोध के जरिए चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं. यही वजह है कि बिहार के चुनावी अखाड़े में खड़ी सभी पार्टियां मुस्लिम समुदाय के वोटरों को अपने-अपने लेंस से देख रही हैं और उन्हें अपने पाले में जोड़ने के लिए विकल्पों के खिड़की-दरवाजे खुला दिखाने की कोशिश कर रही हैं. आज बस इतना हीं. फिर मिलेंगे किसी ऐसे ही मुद्दे के साथ, जिससे जानना और समझना हम सबके लिए जरूरी होगा.

यह भी पढ़ें: बिहार में कोई जन मुद्दा या फिर वही जाति, विधानसभा चुनाव में कैसे पार लगेगी सत्ता की नैय्या?

First published on: Sep 28, 2025 12:14 AM

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