Bharat Ek Soch : पूरे देश पर चुनाव का रंग चढ़ा हुआ है। मॉर्निंग वॉक पर लोग पार्कों में बातचीत करते मिल जाएंगे कि इस बार बीजेपी कितनी सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करेगी? कुछ दलील देते मिल जाएंगे कि कांग्रेस इस बार छुपी रुस्तम साबित होगी। कोई दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी का समीकरण समझाता दिख जाएगा तो कोई अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और ममता बनर्जी के वोट बैंक में गुना-भाग करता मिल जाएगा।
हम भारतीय राजनीतिक पसंद और नापसंद को लेकर कितने Argumentative हैं, इसका अंदाजा आपको इन दिनों किसी भी पान या चाय की दुकान पर भी चल जाएगा। लेकिन, आज हम राजनीति की बात बिल्कुल नहीं करेंगे। हम बात करेंगे आपके बच्चों की पढ़ाई की, जिसकी चिंता में हर मां-बाप टेंशन में है। 10वीं-12वीं बोर्ड की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं और अब रिजल्ट का इंतजार है। जो बच्चे 12वीं बोर्ड की परीक्षा दे चुके हैं- उनके दिमाग में सबसे बड़ी उलझन ये है कि आखिर एडमिशन कहां होगा?
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देश में तेजी से बढ़ रहा कोचिंग का चलन
इस बार मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं के लिए 36 लाख छात्रों ने फॉर्म भरा। यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए होने वाली CUET-UG के लिए करीब साढ़े तेरह लाख छात्रों ने आवेदन किया है। एडमिशन की चाह रखने वाले छात्र बहुत ज्यादा हैं और सीटें बहुत कम। ऐसे में Entrance Exam में अच्छी रैंकिंग के लिए कोचिंग का चलन बहुत तेजी से बढ़ा है।10वीं बोर्ड का एग्जाम दे चुके ज्यादातर मिडिल क्लास बच्चों के मम्मी-पापा की सबसे बड़ी टेंशन यही है कि NEET या JEE की कोचिंग के लिए लाखों रुपये की मोटी फीस का जुगाड़ कैसे हो? क्या हमारे देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था नहीं बन सकती है कि महंगी कोचिंग की जरूरत ही न पड़े? क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था को कोचिंग या ट्यूशन कल्चर से आजादी नहीं मिल सकती है? क्या नई शिक्षा नीति सही मायनों में छात्रों का समग्र यानी Holistic विकास करने में सक्षम है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम महंगी पढ़ाई से आजादी कब?
एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए छोटे से गांव से शहर आ रहे बच्चे
ये कहने में बहुत अच्छा लगता है कि कोचिंग की जरूरत क्या है? बिना कोचिंग के भी छात्र मेडिकल या इंजीनियरिंग के अच्छे कॉलेजों में दाखिला पा सकता है। लेकिन, ऐसी क्या वजह है कि बिहार के बेतिया का एक 16-17 साल का बच्चा कोचिंग के लिए राजस्थान के कोटा की ट्रेन पकड़ लेता है। यूपी के बस्ती का एक छात्र दिल्ली में JEE की तैयारी कराने के लिए कोचिंग में दाखिला लेता है। पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा के एक छोटे से गांव की लड़की डॉक्टर बनने का सपना लिए NEET की तैयारी के लिए कलकत्ता पहुंच जाती है। ये कहानी देश के लाखों बच्चों की है। क्योंकि, उन्हें पता है कि स्कूलों में जिस तरह की पढ़ाई हुई है। उसके बूते JEE-NEET में अच्छी रैंक लाना मुश्किल है। ज्यादातर माता-पिता को भी लगता है कि अगर किसी अच्छे कोचिंग में 10वीं के बाद ही दाखिला दिला दिया तो टॉप क्लास इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज में उनके बच्चों की दाखिला की राह आसान हो जाएगी। इसी सोच ने देश में कोचिंग और ट्यूशन कल्चर को बहुत हद तक बढ़ावा दिया है।
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कोटा में कोचिंग के लिए हर साल आते हैं 2 लाख छात्र
एक अनुमान के मुताबिक कोचिंग के शहर नाम से विख्यात कोटा में हर साल करीब 2 लाख छात्र कोचिंग के लिए पहुंचते हैं। वहां का कोचिंग कारोबार 6 हजार करोड़ रुपये से अधिक का हो चुका है। कोटा में कोचिंग फीस के तौर छात्रों को सालाना 50 हजार से डेढ़ लाख रुपये तक खर्च करना पड़ता है। एक स्टडी के मुताबिक, 2023 में देश में कोचिंग कारोबार करीब 58 हजार करोड़ रुपये का रहा। जिसके 2028 तक बढ़कर 1 लाख 34 हजार करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। ऐसे में समझा जा सकता है कि हमारे देश में कोचिंग को लेकर सम्मोहन कितना तेजी से बढ़ा है। इस साल जनवरी में ही प्राइवेट कोचिंग सेंटर को लेकर केंद्र सरकार ने एक गाइडलाइन्स जारी की। जिसके मुताबिक, कोचिंग संस्थान 16 साल से कम उम्र के बच्चों का एडमिशन नहीं ले सकेंगे।
कैसे रुकेगी कोचिंग कल्चर
अब बड़ा सवाल ये है कि क्या इससे देश में कोचिंग कल्चर पर रोक लगेगी? जरा सोचिए इंजीनियर और डॉक्टर बनने का प्रेशर एक 16-17 साल के बच्चे की जिंदगी को किस तरह बिल्कुल एक प्रैक्टिस मशीन बना देता है। जब एक बच्चा सोमवार से शुक्रवार तक रोजाना स्कूल जाता है। शनिवार और रविवार को पूरे दिन कोचिंग में क्लास करता है। बीच-बीच में उसे कोचिंग की ऑनलाइन क्लास और प्रैक्टिस में भी जुड़ना पड़ता है। ऐसे में एक कम उम्र के बच्चे के भीतर मौलिक सोच के लिए कितनी जगह बचती होगी? कोचिंग कल्चर सिर्फ इंजीनियरिंग या मेडिकल में दाखिले तक सीमित नहीं है। शहरी समाज में जहां पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं। ऐसे परिवारों के ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई ट्यूशन के भरोसे ही आगे बढ़ती है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि नई शिक्षा नीति किस तरह बच्चों को कोचिंग या ट्यूशन कल्चर से आजादी दिलाने में मददगार साबित हो सकती है?
पूरी जिंदगी शिक्षा के क्षेत्र में गुजारने वाले एक्सपर्ट की सोच है कि हमारे देश में कोचिंग और ट्यूशन कल्चर के फलने-फूलने की बड़ी वजह- कंपटीशन और स्कूली शिक्षा के बीच लगातार चौड़ी होती खाई है। किसी प्रतियोगी परीक्षा में आने वाले सवालों का पैटर्न स्कूली परीक्षा से अलग होता है। ये भी देखा गया है कि कई बार बच्चा इंजीनियरिंग या मेडिकल में दाखिले वाले कंपटीशन में तो अच्छा स्कोर हासिल कर लेता है, लेकिन स्कूली परीक्षा में उसका स्कोर गड़बड़ा जाता है।
स्कूलों की पढ़ाई के स्तर में हो सुधार
ऐसे में शिक्षाविदों की सोच है कि अगर स्कूल में पढ़ाई का स्तर सुधार दिया जाए, टीचरों की ट्रेनिंग पर खासा ध्यान दिया जाए, सवालों का पैटर्न कंपटीशन और स्कूल-कॉलेज में एक जैसा हो तो ऐसी स्थिति में छात्रों को कोचिंग संस्थानों की ओर देखने की मजबूरी नहीं रहेगी। आज की तारीख में दुनिया तेजी से बदल रही है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में बदलाव की जो रफ्तार है, उसमें एक ही स्किल या पढ़ाई के जरिए पूरी जिंदगी नौकरी में बने रहना मुश्किल है। इसलिए, अब हर नौकरी पेशा शख्स को तीन-चार साल में खुद को अपडेट और अपग्रेड करना होगा। ऑफलाइन या ऑनलाइन, फुल टाइम या पार्ट टाइम कोर्स करते रहना होगा। इसलिए सभी उम्र के लोगों को ताउम्र स्टूडेंट बनाए रखने का रास्ता राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के जरिए बनाया गया है।
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विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जिस रफ्तार से बदलाव हो रहा है- उसमें अब छात्रों के सामने करियर बनाने के लिए सिर्फ इंजीनियर या डॉक्टर बनने का ही रास्ता नहीं रह गया है। दूसरे कई ऐसे सेक्टर भी दिनों-दिन सामने आ रहे हैं- जिसमें बेहतर करियर के लिए अनंत संभावनाएं हैं। सरकार भी बहुत मुखर होकर कह रही है कि छात्रों के भीतर Entrepreneur Skills विकसित करने की जरूरत है, जिससे देश के होनहार Job Seeker की जगह Job Creator बनें। अब सवाल उठ रहा है कि जिस तरह से National Education Policy की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है- क्या उसके लिए हमारे देश में इतने स्कूल-कॉलेज हैं? क्या देश में इतने काबिल टीचर और प्रोफेसर हैं? अगर सरकारी स्कूल और कॉलेजों की स्थिति बेहतर है तो फिर इतनी संख्या में प्राइवेट स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी क्यों खुल रहे हैं? आखिर एक सामान्य मिडिल क्लास परिवार की कमाई का बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई में क्यों खर्च हो रहा है?
आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहे ज्यादातर सरकारी स्कूल
संविधान के मुताबिक 14 साल तक की उम्र के बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा मौलिक अधिकार है। पिछले महीने दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि बच्चे को शिक्षा पाने का मौलिक अधिकार है, पर अपनी पसंद के किसी खास स्कूल में नहीं। हर मां-बाप चाहते हैं कि उसका बच्चा अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़े, जिससे उसका करियर बेहतर बने। प्राइवेट स्कूलों ने वक्त के साथ अपने यहां पढ़ाई-लिखाई के स्तर को अपडेट और अपग्रेड किया। वहीं, देश के ज्यादातर सरकारी स्कूल पुराने ढर्रे पर चलते रहे, जहां शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा दूसरे भी बहुत से काम करने पड़ते हैं। ऐसे में सामान्य मिडिल क्लास परिवार बच्चों की बेहतर पढ़ाई के लिए हर महीने अपनी कमाई का मोटा हिस्सा खर्च करने को मजबूर हैं। अगर देश में स्कूली शिक्षा का लेबल एक जैसा कर दिया जाए तो महंगी पढ़ाई और कोचिंग दोनों से आजादी मिल सकती है।