Bharat Ek Soch: आज संविधान दिवस है। आज ही के दिन यानी 26 नवंबर, 1949 को आजाद भारत का संविधान तैयार हुआ था। संविधान की क्या अहमियत होती है ये समाज में आर्थिक रूप से सबसे कमजोर दिखने वाले किसी शख्स से पूछिए, जब वो अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिए, अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाता है। ये संविधान की ताकत और उसमें अटूट भरोसा ही है। इसमें राज्य सरकारें और बड़ी संस्थाएं अपने विवादों को निपटने का रास्ता खोजती हैं। लोगों के फैसले का सम्मान करते हुए सत्ता में बैठी पार्टियां विपक्ष की भूमिका को सिर झुकाकर कबूल करती हैं। संविधान के हिसाब से देश चल रहा है या नहीं, यह देखने की जिम्मेदारी न्यायपालिका के पास है।
जिस तरह कोई शिल्पकार वर्षों अपनी छेनी और हथौड़ी से किसी पत्थर पर एक कृति की रचना करता है, उसमें एक सोच, सपना, शिद्दत, कड़ी मेहनत और धैर्य का मिश्रण होता है। ठीक उसी तरह संविधान सभा के करीब 300 सदस्यों की आंखों में भी एक बुलंद, खुशहाल और संपन्न भारत का सपना था। विशाल भारत की विविधता को एकता के धागे में जोड़ने वाली सोच थी। हर आंख से आंसू पोछने की ख्वाहिश थी। भारत को ऐसा राष्ट्र बनाने की इरादा था जिसमें देश के हर नागरिक को इस बात का एहसास रहे कि भारत निर्माण में उसकी बराबर की हिस्सेदारी है। कैबिनेट मिशन प्लान के तहत चुनी गई संविधान सभा में पहुंचे ज्यादातर लोगों की पढ़ाई-लिखाई अंग्रेजी में हुई थी। कानून के अच्छे जानकार थे, लेकिन उन्हें भारतीय परंपराओं और सामाजिक ताने-बाने की बहुत गहरी समझ थी।
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कांग्रेस के भीतर ही थे विरोधी सुर
चाहे पंडित जवाहरलाल नेहरू हों, भीमराव अंबेडकर हों, के. एम. मुंशी हों टी.टी. कृष्णामचारी हों, राजेंद्र प्रसाद हों या सच्चिदानंद सिन्हा हों। भले ही संविधान सभा में कांग्रेस का वर्चस्व था, लेकिन कांग्रेस के भीतर ही मुखर विरोधी सुर भी थे। संविधान सभा में बैठे हमारे पुरखे इतने खुले मन से आजाद भारत को चमकदार बनाने के लिए एक ऐसा दस्तावेज तैयार करने में जुटे थे, जिसके आधार पर हर विवाद को निपटाया जा सके, जहां बहुमत के आधार पर किसी अलहदा सोच को दबाने की कोशिश न हो व्यावहारिकता और तर्क की कसौटी पर हर मुद्दे को कसा गया। संविधान सभा के सामने एक ऐसा ही मुद्दा था, जिसे यूनिफॉर्म सिविल कोड कहते हैं।
सबकी खुशहाली और तरक्की मकसद
ये भारत के संविधान में समाहित शक्तियों का ही कमाल है जिसमें बर्फ से ढंकी हिमालय की चोटियों पर रहने वाले लोगों के साथ दक्षिण भारत में समंदर की लहरों से दो चार होने वाले लोगों को भी अपने लिए समान अवसर दिखता है। भले ही बोली अगल हो, परंपराएं अलग हों, खान-पान अलग हो, लेकिन संविधान सबको एक धागे में जोड़ देता है। इसी तरह पश्चिम में कच्छ के रेगिस्तान से पूरब में ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले लोगों को भी अपनी तरक्की का रास्ता भारत के विशाल, उदार और समावेशी संविधान में दिखता है। संविधान तैयार करने में 2 साल 11 महीना और 18 दिन लगे। हर मुद्दे पर संविधान सभा में जमकर बहस हुई। इसका मकसद था आजाद भारत में सबकी खुशहाली और तरक्की का रास्ता निकालना।
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गंभीर मुद्दा था-समान नागरिक संहिता
संविधान सभा के सामने कई बहुत ही पेचीदा मुद्दे भी थे जिन पर सहमति बनाना आसान नहीं था। ऐसा ही एक गंभीर मुद्दा था-समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड का। पूरे भारत की नजर संविधान सभा की बैठक पर जमी हुई थी. एक ऐसे मसले पर बहस होनी थी जिसका असर पूरे भारत पर पड़ने वाला था। ये मसला था- समान नागरिक संहिता का। संविधान के अनुच्छेद 44 के प्रस्तावित प्रारूप 35 पर आखिरी बहस के लिए सदस्य पहुंच चुके थे। बहस की शुरू हुई तो मद्रास से संविधान सभा के सदस्य मुहम्मद इस्माइल साहब ने कहा अपने विशिष्ट निजी कानून का पालन करना उसके मानने वालों की जीवन प्रणाली का अनिवार्य अंग है। वह उनके धर्म संस्कृति का अनिवार्य अंग है। लोगों के विशिष्ट निजी कानूनों में हस्तक्षेप का अर्थ उन लोगों के उन तौर-तरीकों के साथ दखलंदाजी करना होगा जो इन कानूनों का पालन पीढ़ियों, अनेक युगों से करते आ रहे हैं।
मुस्लिम लीग के नेता ने क्या कहा
संविधान सभा में एक सोच ये भी थी कि समाज का हर वर्ग अपने निजी कानूनों से संचालित होने के लिए आजाद होगा, तो दूसरों से उसके हितों का टकराव नहीं होगा। मद्रास मुस्लिम लीग के नेता बी. पोकर साहब बहादुर ने बहस को आगे बढ़ते हुए कहा, अंग्रेज इस देश को जीतने के बाद किस तरह से 150 साल तक यहां शासन चलाते रहे, इसकी वजह ये थी कि उन्होंने इस देश के विभिन्न समुदायों के निजी कानूनों के पालन की गारंटी दी थी। हमने इस देश के लिए जो आजादी हासिल की है क्या उसका अर्थ है कि हम अंतरात्मा की स्वतंत्रता, धार्मिक आचरण की स्वतंत्रता और अपने निजी कानून के पालन की स्वतंत्रता को त्याग कर पूरे देश पर एक समान नागरिक संहिता थोपने वाले हैं?
हुसैन इमाम ने क्या कहा
सबकी अपनी-अपनी दलील, अपनी-अपनी चिंताएं थीं। संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर तीखी बहस जारी थी। बहस को आगे बढ़ाते हुए बिहार से चुन कर संविधान सभा पहुंचे हुसैन इमाम ने उदाहरण देते हुए समझाने की कोशिश की। उत्तर भारत में सबसे ज्यादा सर्दी पड़ती है तो दक्षिण भारत अत्यधिक गर्म है। असम में दुनिया की सबसे ज्यादा-करीब 400 इंच बारिश होती है, जबकि राजपूतानों के रेगिस्तान में बरसात होती ही नहीं है। इतनी विविधता वाले देश में क्या नागरिक कानून में एकरुपता लाना संभव है?
के एम मुंशी ने क्या कहा
संविधान सभा के कई सदस्यों ने कॉमन सिविल कोड की जोरदार वकालत की। इनमें से एक थे के एम मुंशी। वे बांबे प्रॉविन्स से चुनकर आए थे। उन्होंने संविधान सभा में कहा कि आखिरकार हम एक विकासशील समाज हैं। आज हम इस मोड़ पर हैं जहां धार्मिक व्यवहार में दखल दिए बिना देश की एकता और अखंडता जरूरी है। आज हमें ये सोचना होगा कि कौन सा विषय धार्मिक आस्था से जुड़ा है और कौन सा नहीं। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य ऐसे ही धर्मनिरपेक्ष विधान का है ।
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विवादित मानकर डाला नीति निर्देशक तत्वों की श्रेणी में
संविधान सभा में कॉमन सिविल कोड पर बहस का लब्बो-लुआब था कि बिना धार्मिक आस्था से छेड़छाड़ के कैसे सभी धर्म, वर्गों और समाज के लिए एक जैसा सिविल कानून बनाया जाए? ऐसे में इसे विवादित मानकर नीति निर्देशक तत्वों की श्रेणी में डालकर भविष्य की सरकारों के लिए छोड़ दिया गया। मतलब, जिन मुद्दों को संविधान सभा ने बहुत अधिक विवादित समझा, उनमें उलझने की जगह उन्हें भविष्य के लिए छोड़ दिया। 23 नवंबर 1948 को लंबी बहस के बाद संविधान निर्माता इस नतीजे पर पहुंचे कि आने वाली सरकारें देश में समान नागरिक संहिता लागू करेंगी। यानी हर भारतीय के जीवन यापन संबंधी कानून एक जैसे होंगे। संविधान में अनुच्छेद 44 को मंजूरी मिल गयी, लेकिन संविधान का ये नीति निर्देशक तत्व आज तक लागू नहीं हुआ। भारत को आजादी बंटवारे की कीमत पर मिली थी। ऐसे में संविधान सभा के सामने एक सवाल ये भी था कि जब मुस्लिम राष्ट्र के नाम पर पाकिस्तान बना तो क्या भारत को हिंदू राष्ट्र होना चाहिए। इस मुद्दे पर भी संविधान सभा के विवेकशील और भारतीय परंपरा की रग-रग से परिचित सदस्यों ने एक ऐसी राह निकाली जिसमें सभी धर्मों के लोगों को भारत में अपनी तरक्की के बंद दरवाजे बराबर खुलते दिखें।
कांग्रेस के अंदर नए भारत के स्वरुप को लेकर विवाद
संविधान सभा में कांग्रेस पूर्ण बहुमत में थी, लेकिन कांग्रेस के अंदर नए भारत के स्वरुप को लेकर विवाद था। कुछ की राय थी कि मुसलमान अलग देश लेकर चले गए, भारत को हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए, लेकिन कांग्रेस का एक हिस्सा भारत के सर्वधर्म समभाव को बनाए रखना चाहता था। बंटवारे के दस दिन बाद ही संविधान सभा में अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठा, सब अपना-अपना राग अलाप रहे थे। मद्रास के मुस्लिमों ने अपने लिए अलग निर्वाचन की मांग की। बी. पॉकर बहादुर ने संविधान सभा में कहा कि दूसरों के लिए मुस्लिम समुदाय की जरुरतें समझना बहुत मुश्किल है। अगर अलग निर्वाचन की व्यवस्था खत्म हो जाती है तो मुस्लिम समुदाय को लगेगा कि सरकार में उनकी नुमाइंदगी कम है और उनकी आवाज कम सुनी जा रही है।
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साफ मना कर दिया सरदार वल्लभभाई पटेल
देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल किसी भी कीमत पर धर्म के आधार पर अलग निर्वाचन के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि जो लोग ऐसा (धर्म के आधार पर अलग निर्वाचन) चाहते हैं उनकी जगह पाकिस्तान में है, यहां नहीं। हम एक राष्ट्र की बुनियाद रख रहे हैं, जो लोग देश को फिर से बांटना चाहते हैं, उनके लिए यहां कोई जगह नहीं है।
संविधान सभा में मजहब के नाम पर आरक्षण की मांग को 7 में से 5 मुस्लिम सदस्यों ने भी खारिज कर दिया। कहा जाता है कि संविधान सभा के तत्कालीन सदस्य के टी शाह संविधान में सेक्युलरिज्म के कॉन्सेप्ट को शामिल करना चाहते थे, जिसके लिए शाह ने संशोधन के जरिए तीन बार कोशिश की, लेकिन कहा जाता है कि डॉक्टर भीम राव आंबेडकर इसके पक्ष में नहीं थे। संविधान सभा में नए सिरे से अल्पसंख्यकों की परिभाषा गढ़ने का काम शुरू हुआ।
आरक्षण की मांग खारिज
संविधान सभा में धर्म के नाम पर आरक्षण की मांग खारिज हो गई, लेकिन समाज के पिछड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने का रास्ता एक तय समय तक के लिए आरक्षण में हमारे संविधान निर्माताओं ने देखा। संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में SC के लिए 15 फीसदी और ST के लिए साढ़े सात फीसदी आरक्षण तय किया, वो भी दस वर्षों के लिए। दस साल बाद आरक्षण की समीक्षा होनी थी, लेकिन, नेताओं ने कभी जाति के नाम पर भेदभाव खत्म करने की ईमानदार कोशिश नहीं की और आजाद भारत में जातियां सियासी बिसात पर गोटियों की तरह इस्तेमाल होने लगीं और आज भी इस्तेमाल हो रही हैं।
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आरक्षण पर संविधान सभा के भीतर जमकर बहस
जातीय आरक्षण पर संविधान सभा के भीतर भी जमकर बहस हुई थी। तीखी बहस का नतीजा निकला कि अगर अनुसूचित जाति के साथ-साथ समाज के पिछड़े तबके के लोगों को 10 साल के लिए संविधान में विशेषाधिकार दिए जाएं तो सदियों से ये पिछड़े लोग बाकी समाज के बराबर पहुंच जायेंगे। ऐसे में प्रोफेसर के.टी. शाह का तर्क था कि नौकरियों में यदि आरक्षण नहीं होगा तो अफसर अपनी इच्छानुसार पक्षपात करेंगे। बिहार से चुनकर संविधान सभा पहुंचे चंद्रिका राम ने आरक्षण के प्रस्ताव को लेकर सीधे संविधान सभा के सदस्य सेठ दामोदर स्वरूप पर निशाना साधा। दामोदर स्वरूप यह चाहते हैं कि जनसंख्या के सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, फिर वो इस धारा में पिछड़े वर्गों की भलाई के प्रावधान पर क्यों आपत्ति कर रहे हैं ।
अंबेडकर ने दी कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने की धमकी
संविधान सभा में तर्क दिया गया कि अनुसूचित जाति के लोगों को अच्छी योग्यता के बाद भी अच्छी नौकरी नहीं मिलती। उनके साथ जातिगत आधार पर भेदभाव किया जाता है। अंबेडकर समेत दूसरे नेताओं ने चुनाव, नौकरियों और यहां तक की कैबिनेट में भी आरक्षण की मांग उठा दी। तनातनी यहां तक बढ़ी कि अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने तक की धमकी दे दी। ऐसे में आरक्षण के कट्टर विरोधी सरदार पटेल को भी पीछे हटना पड़ा। अंबेडकर की दलील थी कि जहां तक बात अनुसूचित जाति की है तो दूसरे अल्पसंख्यकों को पहले ही लंबे वक्त से सहूलियतें मिल रही हैं। वह पहले ही लंबे वक्त तक सुविधाएं भोग चुके हैं। मुसलमान 1892 से सुविधा भोग रहे हैं। ईसाइयों को 1920 से सुविधाएं मिली हुई हैं। अनुसूचित जाति को तो सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं। इसलिए उन्हें ज्यादा लंबे वक्त तक सुविधाएं दी जानी चाहिए, लेकिन एक बार में 10 साल तक के लिए रिजर्वेशन का प्रस्ताव पास हो चुका है तो मैं इसे स्वीकार करता हूं। हालांकि इसे बढ़ाने का विकल्प हमेशा रहना चाहिए।
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स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कैसे हो?
ऐसे में संविधान सभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए एक तय समय तक के लिए आरक्षण पर सहमति बनी। वोट बैंक पॉलिटिक्स आरक्षण को हमेशा बनाए रखने में अपना फायदा देखती रही है। संविधान सभा के सामने एक बड़ा मुद्दा था कि आजाद भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कैसे हो? क्योंकि देश में चुनाव का ढांचा तो अंग्रेजों के दौर में भी खड़ा होना शुरू हो चुका था, लेकिन वो बहुत सीमित था। बुलंद गणतंत्र को सफल लोकतंत्र में तब्दील करने के लिए संविधान सभा के भीतर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने पर भी जमकर बहस हुई। संविधान सभा के सामने एक बड़ा सवाल ये भी था कि बगैर निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रणाली के लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता है।
प्रांतों और राज्यों के लिए निर्वाचन आयोग
साल 1949 में दिल्ली की प्रचंड गर्मी और आजादी की खुली हवा के बीच 15-16 जून को संविधान सभा में एक बहुत ही गंभीर मुद्दे पर बहस हुई, जिसमें एक ऐसी व्यवस्था बनाने की बात कही जा रही थी जिसमें चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त को कार्यपालिका के दबाव और प्रभाव के मुक्त रखने की बात हो रही थी। ऐसे में 15 जून, 1949 को डॉक्टर अंबेडकर ने एक संशोधन प्रस्ताव रखते हुए कहा कि पहले के प्रस्तावित अनुच्छेद में प्रावधान था कि केंद्रीय विधान मंडलों के दोनों सदनों के लिए एक आयोग और प्रत्येक प्रांतों और राज्यों के लिए एक पृथक निर्वाचन आयोग हो जिसे राज्यपाल या राज्यप्रमुख नियुक्त करे, लेकिन संशोधित प्रस्ताव में यह कहा गया है कि निर्वाचन का काम एक ही आयोग के हाथ में रखा जाये और उसकी सहायता सहायक प्रादेशिक आयुक्त करें।
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मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति
इस संशोधन प्रस्ताव को लाने के पीछे कई दलीलें दी गईं। पंडित हृदय नाथ कुंजरू जैसे संविधान सभा सदस्य डॉक्टर अंबेडकर की दलीलों से सहमत नहीं थे तो प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना चुनाव आयोग नियुक्त करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। एक मशवरा ये भी था कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से हो। संविधान सभा में लंबी जिरह के बाद फैसला हुआ कि चुनाव आयोग को इस तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष रखा जाए। इसका तानाबान कुछ इस तरह से रहे, जिसमें कोई भी सत्ताधारी पार्टी चुनाव आयोग और इसमें अहम पदों पर बैठे अधिकारियों को प्रभावित न कर सके।
भाषा को लेकर विवाद
संविधान सभा ने बड़ी शिद्दत से भारतीय लोकतंत्र की कामयाबी के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग पर मुहर लगा दी। संविधान ने 26 जनवरी, 1950 को भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र तो बना दिया तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग ने भारत को दुनिया का सबसे मुखर लोकतंत्र बनाने में अहम भूमिका निभाई। चुनाव-दर-चुनाव से भारतीय लोकतंत्र और मजबूत होता गया। आज की तारीख में भारतीय लोकतंत्र दुनिया के सामने एक आदर्श मॉडल की तरह खड़ा है। भारत में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। मतलब हर चार कोस पर भाषा बदल जाती है। कश्मीर के लोगों की भाषा अलग, यूपी-बिहार के लोगों की अलग, पश्चिम की बोली से पूरब की बोली का मेल नहीं। दक्षिण भारत के राज्यों की भाषा अलग, अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी आई।
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संविधान सभा में जमकर बवाल
संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य अंग्रेजी बोलने-लिखने और पढ़ने में सहज थे। ऐसे में ये भी सवाल उठा कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या हो? ऐसे में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के मुद्दे पर संविधान सभा में जमकर बवाल हुआ। जिस जुबान को भारत के करीब आधे लोग बोल और समझ लेते हैं वो राजभाषा है यानी सरकारी कामकाज की भाषा। इस जुबान को राष्ट्रभाषा बनाने की सबसे तगड़ी वकालत संविधान सभा में हुई और विरोध भी वहीं हुआ। संविधान सभा में अंग्रेजी बोलने वालों की तादाद अच्छी-खासी थी, जिसमें से एक थे- गोपाल स्वामी आयंगर। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि हमें अंग्रेजी को कई साल तक रखना होगा। तर्क दिया कि कोर्ट-कचहरी से लेकर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी बहुत भीतर तक घुसी हुई है।
सी राजगोपालाचारी भी अंग्रेजी की वकालत कर रहे थे तो दक्षिण के नेताओं ने अलग राह पकड़ रखी थी। वो अंग्रेजी का विरोध तो कर रहे थे, लेकिन हिंदी कबूल करने को तैयार नहीं थे। दंगल हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर भी चल रही थी। दोनों जुबान में थोड़ा अंतर है। जहां हिंदी पर संस्कृत की तगड़ी छाप है। वहीं, हिंदुस्तानी अंग्रेजों के जमाने में लोगों की जुबान पर चढ़ी एक ऐसी भाषा है, जिसमें आम बोलचाल वाले संस्कृत, अरबी, फारसी के शब्द इस्तेमाल होते हैं।
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आर वी धुलेकर ने क्या तर्क दिया
10 दिसंबर 1946 को जब संयुक्त प्रांत से संविधान सभा पहुंचे आर वी धुलेकर ने हिंदुस्तानी में बोलना शुरू किया तो इस पर ऐतराज जताया गया। इसपर उन्होंने कुछ इस अंदाज में जवाब दिया “जो हिंदुस्तानी नहीं जानते, उन्हे हिंदुस्तान में रहने का हक नहीं है। जो लोग यहां भारत का संविधान बनाने आए हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा के सदस्य होने के लायक नहीं है। अच्छा हो वे इस सभा से चले जायें।” धुलेकर की बात सुनकर संविधान सभा दंग रह गयी। अध्यक्ष के आसन से ऑर्डर-ऑर्डर की आवाज आने लगी, लेकिन वे रुके नहीं, बोलते रहे । बहस लगातार चलती रही।
हिंदी के पक्ष में सबसे तगड़ी दलील पुरुषोत्तम टंडन, सेठ गोविंद दास, डॉ. रघुवीर जैसे नेता दे रहे थे तो अब्दुल कलाम आज़ाद ने हिंदुस्तानी के पक्ष में दलीलें दीं। भाषा को लेकर चल रही बहस के बीच तरह-तरह के फार्मूले आ रहे थे। कोई शुरू में 10 साल अंग्रेजी को रखने की वकालत कर रहा था तो कोई 15 साल तक। दक्षिण के नेताओं का अपना सुर था। उनमें से एक थे- टी टी कृष्णामचारी। उन्होंने कहा कि पहले हमने अंग्रेजी को नापसंद किया। मुझे भी ये भाषा पसंद नहीं, क्योंकि हमें जबरन शेक्सपीयर और मिल्टन के बारे में पढ़ना पड़ता है, जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं, लेकिन अब मेरी वो उम्र नहीं कि जबरन थोपी गई हिंदी सीख सकूं।
हिंदी बनी राष्ट्रभाषा
14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा में प्रस्ताव आया कि हिंदुस्तानी की जगह हिंदी को देश की भाषा माना जाए। कुछ सदस्य हिंदी के पक्ष में थे तो कुछ हिंदुस्तानी के पक्ष में । जब आम राय नहीं बन पायी तो मतदान हुआ। हिंदुस्तानी पर हिंदी भारी पड़ी। फैसला हुआ देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिंदी को राजभाषा बनाने का और हिंदी राजभाषा बन गयी, लेकिन, आज भी सरकारी काम-काज से अंग्रेजी रिटायर नहीं हुई है। हिंदी को राष्ट्राभाषा बनाने को लेकर अक्सर आवाज उठती
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26 जनवरी 1950 को भारत को मिला अपना संविधान
गर्मा-गरम बहस और विवादों के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत को अपना संविधान मिला, जिसकी नज़रों में भारत का हर नागरिक बराबर है, कानून सबको एक चश्मे से देखता है। सभी नागरिकों को गरिमामय जीवन जीने के लिए मूल अधिकार दिए गए हैं। संविधान का ठीक से पालन हो रहा है या नहीं इसे देखने के लिए एक निष्पक्ष न्यायपालिका है। समय-समय पर संविधान में संशोधन भी हुए। 1976 में 42 वें संशोधन के जरिए समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्र की एकता और अखंडता को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों के जरिए समय-समय पर विवादित मसलों से धुंध हटाने की कोशिश की है।
भारत का संविधान इतना उदार, इतना विशाल, इतना समावेशी और इतना परिवर्तनशील है कि वक्त के साथ हम भारत के लोग के शक्ति स्त्रोत और पथ प्रदर्शक के रूप में हमेशा कई कदम आगे दिखता है। हमारे देश के संविधान की सबसे बड़ी ताकत है यहां के लोगों, यहां की संस्थाओं, यहां की सियासी पार्टियों, यहां के सामाजिक ताने-बाने का भरोसा। यही वजह है कि हर सत्ताधारी पार्टी ने समय के साथ संविधान को प्रासंगिक बनाए रखने की पूरी ईमानदारी से कोशिश की है। अगर कभी किसी ने थोड़ा-बहुत दाएं-बाएं होने की कोशिश की तो उसे सुप्रीम कोर्ट ने आइना दिखाने में देर नहीं लगाई।
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