बिहार में मौसम का मिजाज तेजी से बदल रहा है. राजनीति भी उसी रफ्तार से बदल रही है. चुनावी रंग के आगे त्योहारों का रंग फीका पड़ने लगा है. दीपावली और छठ से अधिक चर्चा इस बात को लेकर हो रही है कि अबकी बार किसे चुनेगा बिहार? वहां के मतदाता अगले पांच वर्षों के लिए अपना भाग्य विधाता किसे चुनेंगे? लेकिन, आज मैं इस मुद्दे पर बात नहीं करूंगी. मैं बिहार की मिट्टी पर पैदा हुई हूं, वहां की आबोहवा में पली-बढ़ी हूं. वहां के लोगों के मिजाज को देखा-समझा और जिया है. किताबों में पढ़ा कि सम्राट अशोक के दौर में पाटलिपुत्र किस तरह दुनिया में सत्ता का बड़ा केंद्र हुआ करता था? किस तरह आचार्य चाणक्य ने राजा-प्रजा के बीच अधिकार और कर्तव्य का सूत्रपात किया? बिहार ने किस तरह दुनिया को आधुनिक विश्वविद्यालयों की राह दिखाई? मध्यकाल में शेरशाह सूरी ने दुनिया को सड़कों की अहमियत समझाई? अंग्रेजों के दौर में बिहार किस तरह एग्रो इंडस्ट्री का बड़ा हब हुआ करता था? पटना किस तरह ऊंची तालीम का एक बड़ा केंद्र हुआ करता था?
बिहार से धन की देवी लक्ष्मी क्यों रूठ गईं?
अक्सर मेरे मन में सवाल उठता है कि आखिर वो कौन से हालात बने, जिसमें बिहार से धन की देवी लक्ष्मी रूठ गईं? बिहार में नए कल-कारखाने खुलने की जगह बंद होने लगे? पढ़ाई के लिए बिहार के युवा प्रदेश छोड़ने लगे? युवा 15-20 हजार रुपये की नौकरी के लिए देश के दूसरे हिस्सों की ट्रेन पकड़ने लगे? वहां के लोगों की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से करीब 40 प्रतिशत कम क्यों है? इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय 1 लाख 84 हजार 205 रुपये है और बिहार में प्रति व्यक्ति आय 66 हजार 828 रुपये, यानी देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से 40% से भी कम. बिहार के ज्यादातर लोग समझ नहीं पाते हैं कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में वो फिसड्डी क्यों हैं? जिस तरह बिहार के लोग दिल्ली, मुंबई, सूरत, बेंगलुरु, चेन्नई जैसे शहरों में रोजी-रोटी के लिए जाते हैं, ठीक उसी तरह देश के दूसरे हिस्सों से लोग बिहार क्यों नहीं आते हैं? इसकी एक वजह ये भी है कि बिहार में उत्तर प्रदेश, झारखंड, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की तरह फैक्ट्रियां नहीं हैं. Annual Survey of Industries 2023-24 के मुताबिक, बिहार में सिर्फ 3386 फैक्ट्रियां खड़ी थीं, देश भर की फैक्ट्रियों में बिहार की फैक्ट्रियों की हिस्सेदारी 1.3% रही. ऐसे में जब बिहार में फैक्ट्रियों की भारी कमी है तो लोगों को रोजगार कहां मिलेगा?
बिहार उद्योग-धंधों के मामले में पिछड़ने की क्या है वजह?
सरकार के E-Shram पोर्टल पर बिहार के 3.16 करोड़ लोग रजिस्टर्ड हैं, जिन्हें नौकरी की तलाश है. अगर इन लोगों को बिहार में रोजगार का मौका नहीं मिलेगा तो नौकरी की तलाश में देश के दूसरे हिस्सों का रुख करेंगे. बिहार के मेहनती लोगों के पसीने से दूसरे राज्यों की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी. ऐसे में समझना जरूरी है कि बिहार उद्योग-धंधों के मामले में पिछड़ने की वजह क्या है?
बिहार से लक्ष्मी के रूठने की एक बड़ी वजह फैक्ट्रियों की कमी है. फैक्ट्रियां हैं नहीं तो सूबे के लोगों को रोजगार कहां से मिलेगा? जब बिहार की जमीन पर लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा तो लोग देश-विदेश के लिए ट्रेन-प्लेन पर सवार होंगे ही. इस चुनाव में भी रोजगार को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश तेजस्वी यादव ने की. उन्होंने महागठबंधन की सरकार बनने पर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वादा किया है तो नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री रोजगार योजना के तहत सूबे की महिलाओं के खाते में 10 हजार रुपये ट्रांसफर कराए हैं. अगले 5 वर्षों में एक करोड़ नौकरी या रोजगार देने का वादा किया है. जन सुराज पार्टी के संयोजक प्रशांत किशोर भी रोजगार और पलायन के मुद्दे पर बिहार की सत्ता में बदलाव का ख्वाब देख रहे हैं. लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि जब 20 वर्षों से नीतीश कुमार की सरकार है तो फिर बिहार में उद्योगों की बहार क्यों नहीं आई? उद्योगों को प्रोत्साहन देने वाली नीतियां आईं. उद्योग प्रस्ताव आए लेकिन, उद्योग प्रस्तावों की तुलना में उद्योग क्यों नहीं लगे? क्या आजादी के बाद कभी बिहार में उद्योग-धंधा लगाने की ईमानदारी से कोशिश नहीं हुई और अगर हुई तो फिर उस पर ब्रेक कैसे लगा?
बिहार से झारखंड के अलग होने से पहले यहां की धरती बेशकीमती खनिजों से भरी थी लेकिन, उसका पूरा फायदा बिहार को नहीं मिला. बिहार की खनिज संपदा का इस्तेमाल देश के दूसरे हिस्सों तक औद्योगिक विकास की बुलंद कहानी लिखने के लिए किया गया. बिहार के हुक्मरान जात-पात की राजनीति में उलझे रहे और यहां के लोगों को भी उसमें उलझाए रखा. कमाई के मामले में बिहार के पिछड़ने की एक और वजह है वहां से ब्रेन ड्रेन, यानी प्रतिभा पलायन भी है. Bihar Caste Survey Report के आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 5.52 लाख छात्र देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई करते हैं. एक बच्चा ऊंची तालीम में पांच साल लगाता है. इस हिसाब से सालाना 1 लाख 10 हजार बच्चे पढ़ाई के लिए बिहार से बाहर निकल रहे हैं. इसमें से बहुत कम वापस बिहार लौटते हैं. अगर बिहार में भी टेक्निकल पढ़ाई के लिए अच्छे सरकारी या प्राइवेट कॉलेज या यूनिवर्सिटी की भरमार होती तो शायद बिहार के बच्चे पढ़ाई के लिए बाहर नहीं जाते. इससे न सिर्फ बिहार का पैसा बाहर जा रहा है बल्कि बिहार का टैलेंट भी बाहर निकल रहा है. जिसका फायदा बिहार को नहीं मिल रहा है. ऐसे में ये समझना जरूरी है कि वो कौन से हालात बने, जिसमें बिहार के बच्चों ने पढ़ाई के लिए ट्रेन पकड़ना शुरू किया और वहां खड़े उच्च शिक्षा के केंद्रों की स्थिति क्या है?
कानून व्यवस्था की स्थिति भी एक बड़ी वजह
पिछले कई दशकों से बिहार जिस मिजाज के साथ आगे बढ़ा, उसमें शायद कारोबारियों को बिहार की डगर आसान नहीं दिखी. टेक्निकल पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी खोलना भी बिहार में पहाड़ चढ़ने जैसा रहा है. कृषि प्रधान बिहार में बढ़ती आबादी के साथ खेतों का आकार दिनोंदिन छोटा होता गया लेकिन, वहां के किसानों का बड़ा वर्ग पारंपरिक खेती से ऊपर नहीं सोच पाया. ऐसे में बिहार के किसान कमाई के मामले में देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में बहुत पीछे रह गए. बिहार में सामंती सोच के लोगों ने अपनी जमीन पर नए प्रयोग और बदलावों का ना तो स्वागत किया, ना ही बाहरियों को बिहार में जमने दिया. बिहार से लक्ष्मी के रूठने की एक वजह वहां की कानून-व्यवस्था की स्थिति भी है. कभी बिहार के अलग-अलग हिस्सों में बाहुबलियों की अघोषित हुकूमत चला करती थी. अपहरण, फिरौती, हत्या और डकैती सामान्य बात थी. राजनीति और अपराधियों के बीच गठजोड़ की भी कई कहानियां हैं. उस दौर के बिहार की तस्वीर बॉलीवुड फिल्मकारों ने शूल, अपहरण, मृत्युदंड, गंगाजल जैसी फिल्मों के जरिए पेश करने की कोशिश की.
बिहार में लालू यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल में जंगलराज का मुद्दा आगे कर नीतीश कुमार 2005 में सत्ता में आए. नीतीश राज में कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश भी हुई लेकिन, क्राइम का ग्राफ इशारा कर रहा है कि अभी बिहार में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.
कारोबारी घरानों को भरोसे की दरकार
अगर किसी को हमेशा अपनी जान-माल का डर सताता रहेगा तो फिर कोई उद्योगपति अपनी पूंजी क्यों लगाएगा? क्या सिर्फ कागजों पर औद्योगिक नीतियां सामने आने से उद्योग-धंधे खड़े हो जाएंगे? क्या मुफ्त जमीन देने के सरकारी वादे पर कोई उद्योगपति अरबों रुपये का निवेश करेगा? शायद नहीं. कारोबारी घरानों को हमेशा इस भरोसे की दरकार होती है कि उनकी पूंजी सुरक्षित है. उनके बिजनेस प्रोजेक्ट के रास्ते में आने वाले स्पीड ब्रेकर्स सरकार हटाने में मदद करेगी. इसी तरह अगर कोई यूनिवर्सिटी लगाना चाहता है तो उसे सरकार से कई तरह की मदद और एक बेहतर माहौल की उम्मीद होती है. इसी तरह राज्य से युवा तब पढ़ाई के लिए बाहर नहीं जाते हैं, जब उन्हें लगता है कि जिस संस्थान में दाखिला लेने जा रहे हैं वहां बेहतर भविष्य की गारंटी है. युवा तब रोजगार के लिए बाहर नहीं जाते, जब उन्हें लगता है कि नौकरी और तरक्की के बेहतर मौके राज्य के भीतर ही मौजूद हैं. ऐसे में दीपावली के मौके पर बिहार के सियासतदानों को… बिहार के सामाजिक ताने-बाने में खड़े लोगों को ईमानदारी से सोचने की जरूरत है कि कहां-कहां खुद में और सिस्टम में बदलाव की जरूरत है, जिससे धन की देवी लक्ष्मी बिहार पर, बिहार के लोगों पर मेहरबान हों.