कहा जाता है बिहार जो आज सोचता है, वो पूरा देश कल सोचता है. इतिहास के पन्नों में कई ऐसे टर्निंग प्वाइंट का जिक्र है,जहां से बिहार ने पूरे देश को नई राह दिखाई. इससे पहले आपको बताया कि कैसे बिहार की जमीन पर गैर- कांग्रेसवाद की स्क्रिप्ट तैयार हुई? कैसे सत्ता के लिए जोड़-तोड़ में व्यस्त हुक्मरानों का जनता से सरोकार कम होता जा रहा था? अगड़े-पिछड़े के शोर में नेताओं की सियासत तो चमक रही थी लेकिन, आम आदमी की किस्मत के बंद दरवाजों को खोलने की ईमानदार कोशिश नहीं हो रही थी. ऐसे में दो वक्त की रोजी-रोटी के जुगाड़ में हैरान – परेशान और हताश आम आदमी का सरकार और सिस्टम से भरोसा लगातार उठता जा रहा था. ऐसे में जन-असंतोष की गर्भ से एक ऐसा आंदोलन पैदा हुआ. जिसने पटना से दिल्ली तक की सियासत को हिला दिया, सत्ता के नशे में चूर हुक्मरानों को लोकतंत्र की असली ताकत का एहसास करवाया.
बिहार की जमीन समय-समय पर बदलाव और आंदोलन की गवाह रही है. वो साल 1973 का था. सितंबर-अक्टूबर आते-आते लोगों में एक अजीब की बेचैनी, सिस्टम और सरकार को लेकर आक्रोश बढ़ता जा रहा था. नेताओं का लोगों से सरोकार दिनों-दिन कम होता जा रहा था. सत्ता के लिए एक ऐसी अंधी दौड़ जारी थी, जिसमें आम आदमी के दुख-दर्द को सुननेवाला कोई नहीं था. ऐसे हालात के बीच बिहार के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की आंखों में एक ऐसे सिस्टम का सपना पलने लगा, जिससे समाज के कमजोर आदमी की बात सत्ता पक्ष गंभीरता से सुने और इसका केंद्र बना पटना यूनिवर्सिटी कैंपस.
छात्रों के दबाव में चिमन भाई पटेल को देना पड़ा इस्तीफा
पटना से करीब 1800 किलोमीटर दूर अहमदाबाद के छात्र भी हॉस्टल में खाना एकाएक महंगा होने से भड़के हुए थे. मेस बिल में बढ़ोत्तरी की एक बड़ी वजह मूंगफली तेल का महंगा होना भी था. अहमदाबाद के छात्रों के निशाने पर थे गुजरात के मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल. आंदोलनकारी छात्रों के दबाव में चिमन भाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा. इधर बिहार के लोग भी महंगाई से त्राहिमाम कर रहे थे. बेरोजगार और छात्र पहले से ही सरकार से खफा थे. अब इस फेहरिस्त में किसान और मजदूर भी शामिल हो गए. सरकार को लोगों के बीच धधकते असंतोष का अंदाजा हो चुका था. 18 मार्च से बिहार विधानसभा का बजट सत्र शुरू हो रहा था, पटना में सुरक्षा के पहले से ही कड़े इंतजाम थे. सुबह-सुबह ही छात्र पटना में विधानसभा के पास शहीद स्मारक की ओर पहुंचने लगे. पटना की सड़कों करीब 50 हजार छात्र जमा हो चुके थे. इसमें से तीन-चौथाई कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र और बाकी बेरोजगार थे. सचिवालय के तीनों दरवाजों पर छात्र जमे हुए थे. भीतर सीआरपी और पुलिस के जवान राइफल और डंडों के साथ अफसरों के इशारे का इंतजार कर रहे थे.
18 मार्च, 1974 को पटना की सड़कों पर जो कुछ हुआ, उसने सूबे की गफूर सरकार को हिला दिया. एक ओर छात्रों का आक्रोश था. दूसरी ओर लाठी-गोली के साथ तैयार पुलिस. छात्रों का आक्रोश एक ऐसी अनगाइडेड मिसाइल बन चुका था, जिसका नतीजा कुछ भी हो सकता था. छात्रों के लिए जयप्रकाश नारायण एक ऐसे राजनीतिक संन्यासी की तरह थे, जो सत्ता से दूर रहकर व्यवस्था में बदलाव की बात करते थे. उन दिनों पटना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम गोविंदाचार्य देख रहे थे. ऐसे में गोविंदाचार्य, रमाकांत पांडेय और लखनलाल श्रीवास्तव जयप्रकाश नारायण के घर पहुंचे. आंदोलन की अगुवाई करने की अपील की. आंदोलन से जेपी के जुड़ने से छात्रों का उत्साह कई गुना बढ़ गया. सिस्टम में सुधार और भ्रष्टाचार के खिलाफ तो मोर्चा जेपी ने पहले ही खोल रखा था. अब बारी थी-सीधी लड़ाई की. जेपी ने वही रास्ता अपनाया, जो उन्होंने गांधीजी से सीखा था. पटना की सड़कों मौन जुलूस निकला और तख्तियों पर लिखा था- क्षुब्ध ह्दय है बंद जुबान और हमला चाहे जैसा होगा हाथ हमारा नहीं उठेगा.
इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी चिंता- कांग्रेस को दोबारा कैसे खड़ा किया जाए ?
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालते के बाद आंदोलन से छात्रों के साथ-साथ सूबे के बेरोजगार और बुजुर्ग भी बड़े पैमाने पर जुड़ गए. लोगों को लगने लगा कि मौजूदा व्यवस्था उनके सपनों को पूरा नहीं कर सकती है. उनके सपने जेपी की क्रांतिकारी सोच से ही पूरा हो सकते हैं. ये सत्ता के मिजाज वाले बिहार के आम आदमी का नया मिजाज था. तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इतना दबाव बढ़ा कि उन्होंने देश में इमरजेंसी लगा दी. इसके पीछे एक जेपी का आंदोलन था और दूसरा अदालत का फैसला. इमरजेंसी के दौरान पूरे देश को एक तरह से जेलखाना बना दिया गया. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान जैसे कई युवा नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया. इमजेंसी का अंधेरा छटा और चुनाव की घंटी बजी तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. पार्टी के भीतर भी उनके तौर-तरीकों पर सवाल उठने लगा. इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी चिंता ये थी कि कांग्रेस को दोबारा कैसे खड़ा किया जाए ? ऐसे में उन्हें कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने का रास्ता भी बिहार की जमीन से दिखा.
कर्पूरी ठाकुर ने जब पिछड़ों को आरक्षण देने का फैसला किया तो उनका सूबे के अभिजात्य वर्ग यानी Power Elite ने कड़ा विरोध किया. इसमें उनकी सरकार के कुछ अगड़ी जातियों के मंत्री भी थे, जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे लेकिन, कर्पूरी ठाकुर की समाजवादी राजनीति सामाजिक न्याय के एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी थी. वो सिस्टम से भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते थे. बैक डोर से पहले अस्थाई बहाली बाद में नियमित करनेवाले खेल को खत्म करना चाहते थे. जनता पार्टी के अंदर ही कर्पूरी ठाकुर का विरोध चलता रहा और अप्रैल 1979 में उनकी सरकार गिर गईं. बेलछी दौरे के बाद से इंदिरा ने अपनी खोयी जमीन को वापस पाने का रास्ता तैयार कर लिया था. ढाई साल के अंदर ही इंदिरा की केंद्र की सत्ता में वापसी हो गयी और बिहार भी एक बार फिर कांग्रेस को मिल गया. 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 169 सीटें मिली. मतलब, सरकार बनाने के लिए पूर्ण बहुमत. ये चुनाव लालू प्रसाद यादव के लिए भी बहुत अहम था. दरअसल, लालू यादव 1980 में लोकसभा चुनाव हार गए. ऐसे में उन्होंने विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई और सोनपुर सीट से बिहार विधानसभा पहुंच गए. नई भूमिका के लिए लेकिन, उस दौर में बिहार की सियासत में डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र की तूती बोलती थी. उसके बाद कांग्रेस में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए लंगड़ी मारने का ऐसा खेल हुआ, जिसका संभवत: साइड इफेक्ट ये रहा कि पिछले 35 वर्षों से किसी कांग्रेसी ने बतौर मुख्यमंत्री शपथ नहीं ली.
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1980 के दशक में बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी एक तरह से म्युजिकल चेयर जैसी हो गयी जिस पर बैठने वाले फटाफट बदल रहे थे. गोली-बंदूक की मदद से जमीन बचाने और हथियाने की लड़ाई उस बिहार की जमीन पर लड़ी जा रही थी, जहां से पूरी दुनिया ने युद्ध की जगह शांति का संदेश लिया. वहां जमीन के लिए खून-खराबा. अगड़ी-पिछड़ी जातियों के बीच खूनी-मारकाट, वक्त ने सब कुछ बदल दिया.










