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मुंबई

Explainer: महाराष्ट्र में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे राज-उद्धव ठाकरे क्या साथ आएंगे? बीजेपी को फायदा या नुकसान

Uddhav Thackeray Raj Thackeray alliance: आज मुंबई के वर्ली में एक जनसभा आयोजित होनी है। पूरे देश की नजर इस रैली पर है। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे करीब 20 साल बाद एक ही पॉलिटिकल मंच पर होंगे। पहले यह रैली हिंदी के विरोध में की जानी थी लेकिन सरकार द्वारा फैसला बदलने के बाद अब इसे मराठी विजय दिवस के रूप कन्वर्ट किया गया है।

Author Written By: News24 हिंदी Author Edited By : Rakesh Choudhary Updated: Jul 5, 2025 07:48
Uddhav Thackeray Raj Thackeray alliance
उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे (Pic Credit-Social Media X)

Maharashtra Politics 2025: आज का दिन महाराष्ट्र की राजनीति के लिहाज से काफी अहम रहने वाला है। शिवसेना यूबीटी के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे आज मंच साझा करेंगे। मौका है मराठी विजय दिवस का। इस दिन का आयोजन इसलिए किया जा रहा है क्योंकि महाराष्ट्र सरकार को हिंदी अनिवार्यता के मुद्दे पर पीछे हटना पड़ गया है। लोगों को आकर्षित करने के लिए जगह-जगह आमंत्रण पत्र के स्वरूप में पोस्टर लगे हैं। पोस्टरों पर लिखा हम आपकी ओर से संघर्ष कर रहे थे। नाचते-गाते हुए आइए, हम आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे में आइये जानते हैं इस रैली के सियासी मायने क्या है?

दोनों भाइयों के सामने अस्तित्व का संकट सबसे बड़ी समस्या है। राज ठाकरे पार्टी में नेतृत्व को लेकर हुए विवाद के बाद 2005 में पार्टी से अलग हो गए। इसके बाद उन्होंने 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नामक नई पार्टी बनाई। वहीं उद्धव ठाकरे ने शिवसेना की कमान संभाली। राज ठाकरे की पार्टी का इतिहास में अब तक सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2009 के विधानसभा चुनाव थे। यहां पर पार्टी ने 13 सीटें जीती। इसके बाद पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता चला गया। पार्टी 2014 के चुनाव में 1 सीट, 2019 के चुनाव में 1 सीट और 2024 के चुनाव में 0 सीट पर सिमट गई। आज की तारीख में मनसे के पास कोई पार्षद, कोई विधायक और कोई सांसद नहीं हैं। हालांकि सांसद मनसे से कभी नहीं रहा।

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अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे दोनों भाई

कमोबेश कुछ ऐसा ही हाल अब धीरे-धीरे शिवसेना का भी होता जा रहा है। 2019 के चुनाव में बीजेपी से अलग होने के बाद पार्टी में पहली बार विरोध के स्वर सुनाई देने लगे। पार्टी ने विचारधारा के खिलाफ जाकर कांग्रेस और एनसीपी से गठबंधन किया। उद्धव ठाकरे करीब 2 साल से ज्यादा समय तक सीएम रहे। आखिर में एकनाथ शिंदे की अगुवाई में बगावत हुई। वक्त ऐसा आया कि उनके पास न पार्टी का नाम रहा, न सिंबल और न ही मालिकाना हक। इतिहास गवाह रहा है कि जब बात अस्तित्व की आती है लोग अपने पुराने झगड़े भूल जाते हैं। शिवसेना के पास 2019 में 57 विधायक थे। लेकिन पार्टी में बंटवारे के बाद अब उनके पास मात्र 20 विधायक हैं। क्योंकि 2024 के चुनाव में उनकी पार्टी सिर्फ 20 सीटें ही जीत पाई। वहीं शिवसेना शिंदे गुट के पास अभी 57 विधायक हैं।

बीएमसी-निकाय चुनाव बड़ी चुनौती

सियासी जानकारों की मानें तो कुछ ही समय में मुंबई नगरपालिका के चुनाव होने हैं। मुंबई महानगरपालिका का बजट कई राज्यों की इकोनॉमी के बराबर हैं। ऐसे में बीजेपी से लेकर हर पार्टी इस जगह पर काबिज होना चाहती है। दोनों भाइयों को साथ आने के लिए इससे बढ़िया मौका नहीं मिल सकता। दोनों अपने अस्तित्व और विरासत को बचाने के लिए साथ आए हैं। ऐसे में दोनों नेता साथ आकर गठबंधन कर सकते हैं।

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राज-उद्धव से गठबंधन करेगी बीजेपी!

सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस सबसे बीजेपी को क्या फायदा होगा? बीजेपी महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति करती आई है। महाराष्ट्र में पार्टी का उभार 1990 के बाद आया। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के समय में बाल ठाकरे ने गठबंधन किया और 1996 में पहली सरकार बनी। जिसके मुखिया थे मनोहर जोशी। दोनों पार्टियों के बीच करीब 23 साल तक गठबंधन रहा। यह गठबंधन 2019 में टूट गया। इसके बाद बीजेपी और ज्यादा मजबूत हुई। अब प्रदेश में छोटे भाई का रोल निभा रही बीजेपी पहली बार बड़े भाई की भूमिका में नजर आई। पार्टी ने 2024 के चुनाव में 132 सीटों पर जीत दर्ज की। जोकि महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास में उसका यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। ऐसे में अब दोनों भाई राजनीतिक ताकत बनते हैं तो यह बीजेपी के लिए भी खतरे की घंटी हो सकती है। हालांकि हिंदुत्व और मराठी के मुद्दे पर दोनों पार्टियां हमेशा से एक साथ रही है। ऐसे में जब वैचारिक मतभेद नहीं है तो हो सकता है कि राज ठाकरे की मदद से उद्धव और बीजेपी के बीच सबकुछ ठीक हो जाए।

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात है और वह यह है कि दोनों भाइयों का प्रभाव मुंबई और उसके आसपास के क्षेत्रों तक सीमित है। पूरे प्रदेश में दोनों भाइयों को सफलता मिले यह जरूरी नहीं है। विशेष तौर पर देहात में। ये भी एक बड़ा सवाल है। ऐसे में फिलहाल कयासबाजियों का दौर है लेकिन दोनों के पॉलिटिकल मंच साझा करने से दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल है।

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First published on: Jul 05, 2025 07:46 AM

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