Bihar Election 2025: दो चरणों में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव का काउंटडाउन जारी है। चुनाव में एक-दूसरे पर बढ़त के लिए तरकश से नए-नए तीर निकाले जा रहे हैं । सोशल मीडिया के जरिए अपने पक्ष में लहर बनने की लगातार कोशिशें जारी है। बिहार में सब बोल रहे हैं। जमकर बोल रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं लेकिन बिहार के लोग खामोश हैं। वोटर चुप हैं। उनके मन को पढ़ने की कोशिश हर नेता, हर पॉलिटिकल पंडित कर रहा है लेकिन बिहार के मन को पढ़ना इतना आसान नहीं है? भारत के नक्शे में मौजूद बिहार एक राज्य है, एक विचार है, एक संस्कृति है या फिर राजनीति की एक प्रयोगशाला।
चुनावी रैलियों में युवाओं की बातें बहुत हो रही हैं। बिहार में हर चौथा वोटर Gen-G है, जो वोट के जरिए अपना विधायक चुनेगा। नई सरकार चुनेगा, जो सूबे के 13 करोड़ लोगों बेहतरी के लिए काम करेगी लेकिन बिहार किस मिजाज के साथ सरकार चुनता रहा है। वोट देता रहा है? चुनावी बेला में इसे भी जानना और समझना जरूरी है। बिहार के अतीत के पन्नों की बात करेंगे जिससे Gen-G को बिहार की राजनीति के बारे में जानकारी मिल सके। ऐसे में आज बात आजादी के बाद बिहार के राजनीति शास्त्र की।
बिहार का ‘राजनीति शास्त्र’
बिहार त्रेतायुग में राजा जनक, द्वापर युग में राजा जरासंघ की कर्मभूमि रही है। ऋषि वाल्मीकि भी बिहार की मिट्टी पर पैदा हुए। कौटिल्य ने भी उसी जमीन से दुनिया को शासन सूत्र दिया। बिहार की मिट्टी गौतम बुद्ध की तपोभूमि रही है। दुनिया को शून्य सीखाने वाले आर्यभट्ट की कर्मभूमि। शल्य चिकित्सा के जनक सुश्रुत की प्रयोगस्थली। कभी इसी पाटलिपुत्र से मौजूदा अफगानिस्तान तक की हुकूमत चलती थी, तब दुनिया में चर्चा पाटलिपुत्र की होती थी। बिहार हमेशा अपनी धुन में चला है, अपने तरीके से चला है। चाहे मुगलों का दौर रहा हो या अंग्रेजों का।
बिहार के चंपारण की धरती से महात्मा गांधी ने देश में सत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग किया, जिसका नतीजा 30 साल बाद देश की आजादी के रूप में निकला। ऐसे में बिहार के राजनीतिक मिजाज को समझने के लिए कैलेंडर को पलटते हुए 1947 पर ले चलते हैं। बिहार के लोगों ने भी 15 अगस्त 1947 को आजादी की खुली हवा में सांस ली। आजाद भारत की कमान पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों में थी, तो ब्रिटिश इंडिया में भी बिहार के लोगों ने अपनी अगुवाई के लिए श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह को चुना था। बिहार की इस जोड़ी को लोग श्रीबाबू और बाबू साहब के नाम से जानते थे। आजादी के बाद हुए पहले बिहार विधानसभा चुनाव में श्रीकृष्ण सिन्हा सर्वसम्मति से नेता चुने गए। श्रीबाबू मुख्यमंत्री बने तो बाबू साहब उप-मुख्यमंत्री, तब बिहार का राजनीति शास्त्र कुछ ऐसा रहा, जिसमें जमींदारी उन्मूलन कानून बना, तो उद्योग धंधे लगाकर बिहार की तस्वीर बदलने की कोशिश हुईं।
बिना मतभेद और मनभेद की राजनीति
बिहार में विकास और बदलाव के बीच एक और हवा में तेजी बह रही थी-जातिगत वर्चस्व और गैर-कांग्रेसवाद की हवा। श्रीबाबू और बाबू साहब के बीच भीतरखाने शीतयुद्ध भी जारी था। 1957 में बिहार चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे को लेकर बात इतनी बिगड़ी कि पंडित नेहरु ने दोनों को दिल्ली तलब किया। बड़ी मुश्किल से मामला शांत हुआ। चुनाव के बाद दोनों मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। विधायकों के बीच मतदान हुआ। बाबू साहब को कम वोट मिले यानी मुख्यमंत्री की दौड़ में पिछड़ गए। बाबू साहब तुरंत श्रीबाबू को बधाई देने उनके घर पहुंच गए। श्रीबाबू ने भी बिना लाग-लपेट कह दिया कि आपके बिना मेरी सरकार कैसे चल सकती है? अनुग्रह नारायण सिंह फिर उप-मुख्यमंत्री बना दिए गए। ये 1950 के दशक में बिहार का राजनीति शास्त्र था, जिसमें मतभेद था, मनभेद नहीं।
जातीय गोलबंदी के बीच गिरने लगा कांग्रेस का ग्राफ
श्रीकृष्ण सिंह की सियासत का अपना अंदाज था। बिना लाग-लपेट अपनी बात पूरी ठसक के साथ कह देते थे। लोगों के हित से जुड़े बड़े और कड़े फैसले लेने में उन्होंने जरा भी हिचक नहीं दिखाई। वो साल था 1961 का और तारीख 31 जनवरी। इसी दिन श्रीबाबू ने आखिरी सांस ली। उनकी मौत के बाद राजपूतों ने बिहार की गद्दी पर दावा ठोंका। बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री के तौर पर दीप नारायण सिंह ने शपथ ली, लेकिन सत्ता में सिर्फ 17 दिन ही रह पाए। भूमिहार और राजपूतों के बाद बारी आई ब्राह्मणों की। बिनोदानंद झा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। सत्ता के जोड़तोड़ और जातीय गोलबंदी के बीच कांग्रेस का ग्राफ तेजी से नीचे गिर रहा था।
सोशलिस्ट पार्टी की हार के बाद जयप्रकाश नारायण ने राजनीति से किनारा कर लिया। बिहार की सियासी जमीन पर फिसलन काफी बढ़ गई, जिसमें कांग्रेस के लिए पैर टिकाए रखना मुश्किल हो गया। सोशलिस्टों को डॉ राममनोहर लोहिया की अगुवाई में बिहार में सियासी जमीन तैयार करने का मौका मिल गया। बिहार में सोशलिस्टों के बड़े नेता थे, कर्पूरी ठाकुर। सिस्टम और सरकार से लोगों की नाराजगी का फायदा सोशलिस्टों को बिहार में मिला। आजादी के 20 साल बाद ही बिहार में सोशलिस्टों ने कांग्रेस की जमीन खिसका दी और पहली गैरकांग्रेसी सरकार के लिए जमीन तैयार हो गई। इसमें जनसंघ ने भी बड़ी भूमिका निभाई।
जब शुरू हुई पॉलिटिक्स की प्रयोगशाला
बिहार में सत्ता के लिए नए-नए प्रयोग हो रहे थे। सूबे के सामाजिक ताना-बाना के हिसाब से सियासतदां नए-नए समीकरणों पर काम कर रहे थे। बिहार में पिछड़ी जाति के वोटरों में नेताओं को बड़ा सियासी आसमान दिखाई दे रहा था। पिछड़ी जाति के लोगों में राजनीतिक जागरुकता तेजी से बढ़ रही थी। उनकी ताकत में इजाफा लगातार हो रहा था। ये पटना पॉलिटिक्स की प्रयोगशाला का कमाल था, जिसमें आजादी के 20 साल के भीतर एक दलित मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गया। दल-बदल का व्यहारिक पाठ भी भारत के दूसरे राज्यों ने बिहार विधानसभा में सत्ता के लिए जोड़-तोड़ से सीखा।
दो साल में 6 सरकारें बनीं और गिरीं। वो दौर था- 1967 से 1969 का। बिहार में सत्ता के लिए एक-दूसरे को लंगड़ी मारने का खेल टॉप गियर में चल रहा था। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल रही इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देकर कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों की सियासी जमीन खिसका दी। साल 1971 में इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत से केंद्र की सत्ता में आईं, इसका असर बिहार में भी दिखा। सोशलिस्ट और गठबंधन सरकारों से बिहार के लोगों का मोहभंग हुआ। बिहार के लोगों ने फिर कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से सत्ता में ला दिया लेकिन, वहां के नेताओं ने हुक्मरानों ने पिछली गलतियों से कोई खास सबक नहीं लिया। आलाकमान के इशारे पर मुख्यमंत्री बनाए और हटाए जाने लगे।
पटना यूनिवर्सिटी ने बदली राजनीति की धारा
सत्ता के लिए एक-दूसरे को लंगड़ी मारने की सियासत से बिहार का आम आदमी बहुत निराश और हताश होता जा रहा था। सबकी अपनी समस्याएं थीं। किसानों की अलग, नौकरीपेशा लोगों की अलग, कारोबारियों की अलग, छात्रों की अलग। पटना यूनिवर्सिटी के अंदर भी एक अलग तरह का ज्वालामुखी धधक रहा था। पटना यूनिवर्सिटी के कैंपस और बिहार की राजनीतिक सभाओं के लिए सबसे पसंदीदा जगह गांधी मैदान के बीच ज्यादा फासला नहीं है।
उस दौर में पटना यूनिवर्सिटी के अलग-अलग कॉलेजों के छात्र अक्सर गांधी मैदान में जमा होते और सूबे की समस्याओं पर घंटों मंथन करते। दरअसल, पटना यूनिवर्सिटी में नेताओं की नई पीढ़ी तैयार हो रही थी, जिनकी आंखों में पूरे देश की सियासत और सिस्टम को बदलने का सपना था। पटना यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति से ऐसी धारा निकली, जिसने पूरे देश राजनीतिक धारा और विचारधारा दोनों को बदला। कैसे यूनिवर्सिटी कैंपस से निकला आक्रोश एक बड़े जानआंदोलन में तब्दील हुआ ? और सत्ता के मद में चूर सियासतदानों को लोकतंत्र की ताकत का एहसास करा दिया।










