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Religion

मजार पर क्यों चढ़ाते हैं हरे रंग की चादर, क्या है इसके पीछे की असली वजह?

आपने अक्सर दरगाहों में देखा होगा कि मजार पर हरे रंग की चादर चढ़ाई जाती है। वैसे तो चादर चढ़ाना श्रद्धा और सम्मान का एक विशेष तरीका है। वहीं, कुछ लोग अपनी मन्नत मांगने और उसके पूरी होने पर भी चादर चढ़ाते हैं। ज्यादातर दरगाहों और मजारों पर हरे रंग की चादर ही चढ़ाई जाती है। आइए जानते हैं कि मजार पर चादर चढ़ाने क्यों चढ़ाई जाती है और यह हरे रंग की ही क्यों होता है?

Author Written By: News24 हिंदी Author Edited By : Mohit Tiwari Updated: Jul 5, 2025 15:20
ajmer sharif
Credit- news24 gfx

भारत में सूफी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मजारों पर चादर चढ़ाने की परंपरा है। यह प्रथा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को भी दर्शाती है। मजार, जो सूफी संतों या पीरों की समाधि स्थल होती हैं। यहां पर चादर चढ़ाना श्रद्धा और सम्मान का एक विशेष तरीका माना जाता है। वहीं, इस्लाम धर्म को मानने वाले हरे रंग की ही चादर चढ़ाते हैं।

मजार पर चादर चढ़ाना एक प्रतीकात्मक कार्य है, जो सूफी संतों के प्रति श्रद्धा, प्रेम और कृतज्ञता व्यक्त करने का माध्यम है। चादर, जो आमतौर पर हरे कपड़े, फूलों, इत्र या अन्य पवित्र वस्तुओं से सजी होती है, यह उस सूफी संत की शिक्षाओं और उनके आध्यात्मिक प्रभाव के प्रति सम्मान का प्रतीक होती है। यह प्रथा सूफी परंपरा में विशेष रूप से प्रचलित है, जहां उन पीरों और संतों को अल्लाह के सबसे करीब माना जाता है, और उनकी मजारों को आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र माना जाता है।

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इसके अलावा, चादर चढ़ाने का कार्य लोग अपनी मनोकामनाओं को व्यक्त करने के लिए भी करते हैं। लोग अपनी इच्छाओं, दुखों या प्रार्थनाओं के साथ मजार पर चादर चढ़ाते हैं। इसके साथ ही उनको विश्वास होता है कि संत उनकी प्रार्थनाओं को ईश्वर तक पहुंचाएंगे। हालांकि यह परंपरा हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में समान रूप से प्रचलित है।

कहां से शुरू हुई यह परंपरा?

चादर चढ़ाने की परंपरा सूफीवाद से गहराई से जुड़ी हुई है। सूफीवाद इस्लाम का एक रहस्यवादी रूप है, जो प्रेम, भक्ति और अल्लाह के साथ एकता पर जोर देता है। भारत में सूफी संतों जैसे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, और हजरत मखदूम साहब आदि ने सूफी परंपराओं को बढ़ावा दिया। इन संतों की मजारों पर चादर चढ़ाने की प्रथा मध्यकाल से चली आ रही है।

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इस प्रथा का उल्लेख विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक स्रोतों में मिलता है। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह (अजमेर शरीफ) के ऐतिहासिक दस्तावेजों में चादर चढ़ाने की प्रथा का जिक्र है। ‘तारीख-ए-फरिश्ता’ और ‘आइन-ए-अकबरी’ जैसे ग्रंथों में मजारों पर श्रद्धालुओं द्वारा चादर चढ़ाने और अन्य भेंट चढ़ाने की प्रथाओं का वर्णन मिलता है। ये दस्तावेज बताते हैं कि मुगल सम्राटों, जैसे अकबर और जहांगीर, ने भी अजमेर शरीफ दरगाह पर चादर और अन्य भेंट चढ़ाई थी।

क्या है इसका धार्मिक आधार?

इस्लाम में मजारों पर चादर चढ़ाने की प्रथा का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख कुरान या हदीस में नहीं मिलता। हालांकि, सूफी परंपराओं में यह प्रथा ‘जियारत’ (पवित्र स्थानों की यात्रा) और ‘तबर्रुक’ (पवित्र वस्तुओं से आशीर्वाद प्राप्त करना) से जुड़ी हुई है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह प्रथा मध्य एशियाई और फारसी सूफी परंपराओं से भारत आई, जहां संतों की समाधियों पर सम्मान स्वरूप कपड़ा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित थी।

‘रिसाला-ए-चिश्तिया’ और ‘मलफूजात-ए-निजामुद्दीन’ जैसे सूफी ग्रंथों में संतों की मजारों पर श्रद्धा व्यक्त करने के लिए चादर चढ़ाने का जिक्र है। ये ग्रंथ बताते हैं कि चादर चढ़ाना केवल एक रस्म नहीं, बल्कि संत की शिक्षाओं को याद करने और उनके मार्ग पर चलने की प्रेरणा लेने का एक तरीका है।

क्या है इसका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व?

मजार पर चादर चढ़ाने की प्रथा भारत में सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। सूफी मजारें, जैसे अजमेर शरीफ, दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह, और फतेहपुर सीकरी की सलीम चिश्ती की दरगाह, विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोगों को एक दूसरे से जोड़ती हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग ही मजार पर मत्था टेकने जाते हैं। यहां पर कई और धर्मों के लोग भी अपनी हाजिरी लगाते हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख और अन्य समुदायों के लोग एक साथ मजारों पर चादर चढ़ाते हैं, जो साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देता है।

इसके अलावा, चादर चढ़ाने की प्रथा स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करती है। मजारों के आसपास के बाजारों में चादर, फूल, और अन्य पूजा सामग्री की बिक्री से कई लोगों की आजीविका चलती है। यह प्रथा पर्यटन को भी बढ़ावा देती है, क्योंकि देश-विदेश से लाखों लोग इन मजारों पर आते हैं।

क्या कहते हैं विद्वान?

कुछ रूढ़िवादी इस्लामी विद्वानों का मानना है कि मजारों पर चादर चढ़ाना और अन्य ऐसी प्रथाएं इस्लाम की मूल शिक्षाओं के खिलाफ हैं, क्योंकि वे इसे ‘बिदअत’ (नवाचार) मानते हैं। उनका तर्क है कि इस्लाम में केवल अल्लाह की इबादत की जानी चाहिए, और मजारों पर चादर चढ़ाना शिर्क (अल्लाह के साथ साझेदारी) के समान है। हालांकि, सूफी विद्वान इस प्रथा को प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक मानते हैं, न कि पूजा।

हरे रंग की ही क्यों होती है चादर?

मजारों पर विशेष रूप से हरे रंग की चादर, दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में सूफी परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हालांकि, यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि चादर चढ़ाना इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।

यह एक सांस्कृतिक प्रथा है, जो सूफी परंपराओं और स्थानीय रीति-रिवाजों से विकसित हुई है। कुछ इस्लामी विद्वानों, जैसे रज़ीउल इस्लाम नदवी (जमात-ए-इस्लामी हिंद), का कहना है कि मजारों पर चादर चढ़ाना शरीयत में अनिवार्य नहीं है और यह इस्लाम की सादगी की शिक्षाओं के विपरीत हो सकता है, क्योंकि इस्लाम कच्ची और सादी कब्रों को प्राथमिकता देता है। वहीं, हरे रंग की चादर का उपयोग इस्लाम में इसके प्रतीकात्मक महत्व के कारण होता है। इस्लाम में हरा रंग बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।

जन्नत से जोड़ा गया है हरा रंग

कुरान में हरे रंग को स्वर्ग (जन्नत) से जोड़ा गया है। कुरान की सूरह अल-रहमान (55:76) और सूरह अल-इंसान (76:21) में स्वर्ग के निवासियों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे हरे रंग के वस्त्र पहनते हैं, जो रेशम और भारी जरी के बने होते हैं। यह हरा रंग शांति, समृद्धि और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है।

पैगंबर मोहम्मद (स.अ.व.) की है पसंद

पैगंबर की शिक्षाओं और जीवन की घटनाओं का संग्रह, जिसको हदीस के नाम से जाना जाता है। इसमें उल्लेख है कि पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हरा रंग पसंद था। सुनन अबू दाऊद में हज़रत अबु रमसा (रज़ी) के हवाले से कहा गया है कि उन्होंने पैगंबर को हरे रंग की धारीदार चादर पहने देखा था।

शांति और खुशहाली का प्रतीक

हरा रंग इस्लाम में शांति, खुशहाली और प्रकृति से जोड़ा जाता है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, यह रंग मानसिक शांति और आध्यात्मिक सुकून प्रदान करता है। इस कारण मस्जिदों की दीवारें, कुरान को रखने वाले कपड़े, और मजारों पर चढ़ाई जाने वाली चादरें अक्सर हरे रंग की होती हैं।

सूफी और शिया परंपराओं में महत्व

हरा रंग शिया इस्लाम में विशेष रूप से लोकप्रिय है, जहां इसे पवित्रता और पैगंबर के परिवार (अहल-ए-बैत) से जोड़ा जाता है। सूफी परंपराओं में भी हरा रंग आध्यात्मिकता और संतों के प्रति सम्मान का प्रतीक है। हालांकि, इसका उपयोग सुन्नी परंपराओं में भी व्यापक है, जैसे सऊदी अरब और पाकिस्तान के झंडों में भी यह आपको देखने को मिल सकता है।

इस्लामी ग्रंथों में उल्लेख

हरे रंग और मजार पर चादर चढ़ाने की प्रथा का उल्लेख इस्लामी ग्रंथों में सीधे तौर पर नहीं मिलता है। हालांकि कुरान सूरह अल-रहमान (55:76) में ‘वे हरी गद्दियों और सुंदर कालीनों पर टिके होंगे।’ यह आयत स्वर्ग में हरे रंग की गद्दियों और शांति का वर्णन करती है।

सूरह अल-इंसान (76:21) में लिखा है कि ‘उनके पास हरे रंग के रेशमी वस्त्र और जरी के कपड़े होंगे, और उन्हें चांदी के कंगन पहनाए जाएंगे।’ यह आयत स्वर्ग के निवासियों के हरे वस्त्रों का उल्लेख करती है। इन आयतों से हरे रंग का स्वर्ग और पवित्रता से संबंध स्थापित होता है, जिसके कारण यह रंग मजारों पर चादर के रूप में उपयोग किया जाता है।

हदीसों में कब्रों को सादा और कच्चा रखने की सलाह दी गई है। माना जाता है कि पैगंबर ने कहा कि कब्रों को पक्का नहीं करना चाहिए। इस आधार पर, कुछ विद्वान मजारों पर चादर चढ़ाने को शरीयत के खिलाफ मानते हैं।

क्या चादर चढ़ाना इस्लाम में अनिवार्य है?

इस्लाम में चादर चढ़ाना शरीयत का हिस्सा नहीं है। यह एक सांस्कृतिक प्रथा है, जो सूफी परंपराओं और स्थानीय रीति-रिवाजों से प्रभावित है।

डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी इस्लामिक मान्यताओं और कुछ विचारों पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।

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First published on: Jul 05, 2025 03:20 PM

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