Holi 2025: हिंदू धर्म में होली को वर्ष के सबसे बड़े त्योहारों में से एक माना जाता है। इस वर्ष होलिका दहन 13 मार्च 2025 को होगा और होली का पर्व 14 मार्च 2025 को मनाया जाएगा। होलिका दहन से लगभग एक महीने पहले ‘होली का डांडा’ गाड़ने की परंपरा होती है। हालांकि, शहरों में यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है और अब कम ही देखने को मिलती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसे आज भी पूरी श्रद्धा और नियमों के साथ निभाया जाता है। आइए जानते हैं कि ‘होली का डांडा’ क्या होता है, इसे कब रोपा जाता है और इसका धार्मिक महत्व क्या है?
होली का डांडा क्या है
होली का रंगों से भरा उत्सव केवल एक दिन की खुशियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी तैयारियां हफ्तों पहले से शुरू हो जाती हैं। इन्हीं तैयारियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है होली का डांडा रोपने की परंपरा, जो कई स्थानों पर, विशेष कर शहरों में, धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, लेकिन गांवों-कस्बों में आज भी इसे पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह परंपरा भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका की कथा से जुड़ी है।
गांव या मोहल्ले के किसी प्रमुख स्थान, जैसे चौक, चौराहे या मंदिर परिसर में दो डांडे रोपे जाते हैं, जो आमतौर पर ‘सेम के पौधे’ से बनाए जाते हैं। इन सेम के पौधों को ही डांडा कहते हैं। होलिका दहन के समय, प्रहलाद के प्रतीक वाले डांडे को आग में जलने से बचा लिया जाता है, जबकि होलिका के प्रतीक वाले डांडे को जलने दिया जाता है। यह घटना उस पौराणिक कथा को याद दिलाता है, जिसमें होलिका आग में जलकर भस्म हो गई थी, जबकि भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद सुरक्षित रहे थे।
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कब रोपते हैं होली का डांडा?
डांडा गाड़ने के बाद, इसके चारों ओर गाय के गोबर से बने उपले और लकड़ियां सहेजकर रखी जाती हैं। इन उपलों को ‘भरभोलिए’ कहा जाता है। इन्हें आकार देकर बड़े-बड़े छेद किए जाते हैं ताकि वे अच्छे से सूख जाएँ। जब ये पूरी तरह तैयार हो जाते हैं, तो इनकी माला बनाकर होली की अग्नि में अर्पित किया जाता है। यह अनुष्ठान केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो लोगों को एकसाथ जोड़ती है और आपसी मेल-जोल और भाईचारे को बढ़ावा देती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, होली का डांडा माघ महीने की पूर्णिमा के दिन गाड़ा जाता है। इस वर्ष 2025 में यह तिथि 12 फरवरी, बुधवार को पड़ रही है।
भरभोलिए का महत्व
होलिका दहन के रिवाज में भरभोलिए का बहुत अधिक महत्व है। होली की परंपरा में उपयोग किए जाने वाले विशेष उपलों, जो गाय के गोबर से बने कंडे होते हैं और इनके बीच में छेद होता है, को भरभोलिए कहते हैं। इस छेद में मूंज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए यानी कंडे होते हैं। होलिका दहन के धार्मिक अनुष्ठान में भरभोलिए को होलिका दहन के समय अग्नि में अर्पित किया जाता है। होलिका में आग लगाने से पहले इस भरभोलिए की माला से बहनें अपने भाइयों की नजर उतारती हैं। भरभोलिए को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर आग में फेंक दिया जाता है। माना जाता है कि भरभोलिए बुरी शक्तियों को नष्ट करते हैं और परिवार में सुख-समृद्धि लाते हैं।
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डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी धार्मिक शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।