Kullu Dussehra 2024: कुल्लू का दशहरा पूरे देश में बेहद खास और सबसे अनोखा है। इसकी सबसे यूनिक बात तो यही है कि जब पूरे देश में दशहरा उत्सव समाप्त होता है, तब यहां दशहरे का समारोह शुरू होता है। इस साल कुल्लू दशहरे का 7 दिवसीय समारोह 13 से 19 अक्टूबर, 2024 तक चलेगा। आइए जानते हैं, कुल्लू दशहरे से जुड़ी कुल्लू घाटी के देवता भगवान रघुनाथ जी कथा क्या है, यहां का दशहरा अनूठा क्यों है और इससे जुड़ी और रोचक विशेषताएं क्या हैं?
रघुनाथजी स्वयं करते हैं निरीक्षण
कुल्लू घाटी में दशहरा एक हफ्ते चलने वाला सबसे बड़ा त्योहार है। इस त्योहार की शुरुआत भगवान रघुनाथजी और दूसरे देवताओं के जुलूस यात्रा से होती है। भगवान रघुनाथजी एक रथ पर सवार होकर पूरी कुल्लू घाटी का निरीक्षण करते हैं और जनता को दर्शन देते हैं। इस जुलूस में गांव के सभी देवी-देवता भी शामिल होते हैं। इस उत्सव को ढालपुर मैदान में संपन्न किया जाता है, जिसे इस मौके पर दुल्हन की तरह सजाया जाता है।
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बेहद रोचक है रघुनाथजी के कुल्लू आने की कथा
सोलहवीं शताब्दी में कुल्लू पर राजा जगत सिंह शासन था। उन्हें पता चला कि दुर्गादत्त नाम के एक किसान के पास कई बेशकीमती और सुंदर मोती हैं। राजा ने सोचा कि ये कीमती मोती तो राजा के पास होने चाहिए। लालच में राजा ने दुर्गादत्त को मोती सौंपने का आदेश दिया और न देने की सूरत में फांसी देने का आदेश दिया। अपने भाग्य की इस विकट समस्या को देखर दुर्गादत्त ने आग में जलकर आत्महत्या कर ली और राजा को शाप दिया, “जब भी तुम खाओगे, तुम्हारे चावल कीड़े के रूप में दिखाई देंगे और पानी खून के रूप में दिखाई देगा।”
इस श्राप के कारण राजा जगत सिंह का दुर्भाग्य शुरू हो गया। तब भाग्य से निराश राजा को एक ब्राह्मण से सलाह दिया, “शाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान राम के राज्य अयोध्या से रघुनाथ देवता को कुल्लू लाना होगा।” इस सुझाव को मानकर राजा ने एक ब्राह्मण को अयोध्या भेजा।
एक दिन ब्राह्मण ने मौका पाकर अयोध्या के रघुनाथ मंदिर से देवता को चुरा लिया और कुल्लू की यात्रा पर वापस निकल पड़ा। जब अयोध्या के लोगों ने अपने प्रिय रघुनाथ को लापता पाया तो कुल्लू के ब्राह्मण की खोज में निकल पड़े। सरयू नदी के तट पर वे ब्राह्मण के पास पहुंचे और उनसे पूछा, “आपने रघुनाथजी को क्यों चुराया?”
तब ब्राह्मण ने कुल्लू राजा के शाप की कहानी सुनाई। अयोध्या के लोगों ने रघुनाथ को उठाने का प्रयास किया, लेकिन अयोध्या की ओर वापस जाते समय उनका वजन बढ़ गया कि उठाना असंभव हो गया, जबकि कुल्लू की ओर जाते समय उनका भार बेहद हल्का हो गया। तब इसे रघुनाथजी का एक संकेत मानकर अयोध्या वासियों ने रघुनाथजी ब्राह्मण को ही सौंप दिया।
कुल्लू पहुंचने पर रघुनाथ को कुल्लू राज्य के राज्य देवता के रूप में स्थापित किया गया। रघुनाथजी को देवता के रूप स्थापित करने के बाद राजा जगत सिंह ने रघुनाथजी का चरणामृत पिया, तब जाकर उसका शाप हटा। कहते हैं, यह घटना दशहरे के समय हुई थी। तब से रघुनाथजी को दशरथ रथ में पूरे कुल्लू में घुमाया जाता है।
यहां नहीं होता है रावण दहन
हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है, जो कई मायनों में खास है। यहां दशहरे के दौरान न तो रामलीला होती है और न ही रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं। इतना ही नहीं, इस मौके पर यहां आतिशबाजी जलाना भी मना है। इस दशहरे की कहानी और हिमाचल की देव परंपराएं इसे सबसे अलग और सबसे खास होती है।
कुल्लू घाटी को क्यों कहते हैं देवभूमि?
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार महर्षि जमदग्नि के तीर्थयात्रा से लौटने के बाद कुल्लू के मलाणा में उपदेश देने के लिए गए। अपने सिर पर उन्होंने विभिन्न देवताओं की अठारह मूर्तियों से भरी एक टोकरी रखी। चंदरखानी पास से गुजरते हुए एक भयंकर तूफान आया। तूफान में अपने पैरों पर टिके रहने के लिए संघर्ष करते हुए महर्षि जमदग्नि की टोकरी उनके सिर से गिर गई और टोकरी की मूर्तियां और छवियां अनेक स्थानों बिखर गईं। बाद में यहां के लोगों ने उन मूर्तियों और छवियों को भगवान के रूप में आकार और रूप लेते हुए देखा, तो वे उनकी पूजा करने लगे। कहते हैं, तब कुल्लू घाटी में देवता की पूजा शुरू हुई।
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