आचार्य प्रशांत
World Mental Health Day: आज बहुत तेजी से बच्चे और व्यस्क, शिक्षा संबंधी या रोज़गार संबंधी असफलताओं के चलते अवसाद के शिकार बनते जा रहे हैं और फ़िर इसी अवसाद के चलते वे आत्महत्या करने का निर्णय तक ले लेते हैं, जो बहुत चिंताजनक और दुखदाई है।
अगर हम परीक्षाओं की बात करें तो देखो, अंक कितने आएंगे, नहीं आएंगे…उसके लिए कोई जादू-मंतर नहीं होता। मैं वही पुरानी सीख दे सकता हूं कि श्रम करोगे तो जो परिणाम आ रहा है, वह बेहतर होगा, लेकिन गारंटी या आश्वासन कुछ नहीं है, ख़ासतौर पर नौकरी जैसी चीज़ में। अगर कहीं पर रिक्त पद ही 10 हैं और उन पदों के लिए आवेदन करने वालों की संख्या एक लाख है तो उसमें शीर्ष 10 में आने के लिए श्रम ही काफी नहीं होता। बहुत हद तक खेल क़िस्मत का बन जाता है।
प्रतिभा है या नहीं, संयोग की बात
इसके अलावा जिस तरह की हमारी परीक्षाएं होती हैं, चाहे कॉलेज में या नौकरी में, उनमें नैसर्गिक प्रतिभा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। अगर किसी में जन्मजात प्रतिभा है ही गणित की तो उसे गणित में बाज़ी मारने के लिए दूसरों की अपेक्षा काफ़ी कम श्रम करना पड़ेगा। अब किसमें प्रतिभा है, किसमें नहीं है, यह बात संयोग की है। पैदा होते वक्त तुम अपने जींस का, अपने अनुवांशिक गुणों का फैसला करके नहीं पैदा होते तो यह सब संयोग ही है।
तुम्हारा अधिकार सिर्फ श्रम पर है, संयोगों पर नहीं। किसी भी परीक्षा के अंतिम परिणाम में श्रम के अलावा कई अन्य कारक भी होते हैं। श्रम तुम कर सकते हो, पर बाकी चीज़ें सांयोगिक होती हैं तो इसलिए यह बात रटने से कुछ ख़ास लाभ होता नहीं कि मेहनत करते जाओ, एक दिन सफलता ज़रूर तुम्हारे कदम चूमेगी, इत्यादि-इत्यादि। मेहनत आवश्यक होती है, पर काफ़ी नहीं होती। मेहनत नहीं करोगे तो उत्तीर्ण नहीं होंगे, यह तो 90 प्रतिशत तय है, पर मेहनत करोगे और उत्तीर्ण हो ही जाओगे, ऐसा कुछ निश्चित नहीं होता। तुम सिर्फ मेहनत करते चलो, क्योंकि उसी पर तुम्हारा बस है।
मेहनत करो, फल की अपेक्षा मत करो
संयोगों के प्रति बिलकुल अविचल हो जाओ, अक्रिय हो जाओ, अडिग हो जाओ, अनछुए रहो उनसे। कुछ भी हो, जान लो कि यह घटना तो यूं ही है, इसमें मेरा तो कोई हाथ नहीं, उस घटना को स्पर्श मत करने दो अपनी गहराई को, अपने हृदय को। बाहरी चीज़ों को अगर तुमने अपने केंद्र को स्पर्श करने दिया तो यह तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। पहली बात तो श्रम जी जान से करो। श्रम जब जी जान से करो, तब हार-जीत का फ़र्क़ यूं भी नहीं पड़ता फिर। तुम्हें पता होता है कि अधिकतम जो तुम कर सकते थे तुमने किया, अब परिणाम जो भी आए, उसकी बात करने से कोई लाभ नहीं।
मान लो श्रम नहीं भी किया तुमने, तो भी एक बात का ख़याल रखो- जीतना-हारना, यह सब बाहर-बाहर की बातें हैं। इनका प्रभाव अपनी आत्मा पर मत पड़ने देना। जो चीज़ आत्मिक है ही नहीं, उसको आत्मिक मत बना लेना। दिख भी रहा हो कि ग़लती हुई है, दिख भी रहा हो कि मेहनत में कमी रह गई तो भी स्वीकार कर लेना कि ग़लती हुई है। यह मत कह देना कि मैं ही ग़लत हूं।
बाहर की कोई भी चीज़ तुम्हारी आत्मा को परिभाषित नहीं कर सकती। तुमने लाख ग़लतियां कर ली हों, तुम लाख गए-गुज़रे हों, दबे-कुचले हों, हो सकता है कि तुम दुनिया के सबसे निकृष्ट और पतित आदमी हों, लेकिन फिर भी आत्मा तो तुम्हारी उतनी ही साफ़, उतनी ही आसमानी और उतनी ही पूजनीय है, जितनी सदा से थी। ग़लतियां मानो और ग़लतियों से सीखो! पर किसी भी ग़लती को ये अधिकार न दो कि वह तुम्हें ही ग़लत साबित कर दे।
(लेखक- संस्थापक, प्रशांत अद्वैत संस्था, वेदांत मर्मज्ञ, पूर्व सिविल सेवा अधिकारी)