दशकों पहले की बात है। बंटवारे के बाद दिल्ली आ बसे पंजाबी रिफ्यूजियों की एक बस्ती किंग्सवे कैंप के एक मोहल्ले में मात्र एक घर में टेलीविजन था। हफ्ते में एक बार कोई फिल्म आती या फिल्मी गानों का कार्यक्रम ‘चित्रहार’, तो बच्चों-बड़ों की भीड़ वहीं जुटती। लेकिन जब कभी अभिनेता मनोज कुमार का कोई गाना या फिल्म दिखाई जाती तो बड़ी उम्र के दर्शकों में खासा उत्साह नजर आता। कोई न कोई बुजुर्ग तो बोल ही देता-‘यह तो अपना हरिकृष्ण है, हमारे साथ खेला करता था।’ वहां मौजूद बच्चे यह बात हैरानी से सुनते। तब किसे पता था कि हैरान होते उन बच्चों में से एक आगे चल कर फिल्म पत्रकारिता का रास्ता अपनाएगा और ऐसा भी दुख भरा दिन आएगा कि उसे उन्हीं हरिकृष्ण गोस्वामी यानी मनोज कुमार को श्रद्धांजलि देता आलेख लिखना पड़ेगा। 4 अप्रैल, 2025 वही दुख भरा दिन है जिसकी सुबह यह मनहूस खबर लेकर आई कि मनोज कुमार अब दैहिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन मनोज कुमार जैसे लोग कहीं जाते नहीं हैं। अपने सिनेमा से वह हमारे दिलों में तो सदा ही रहेंगे-भारत कुमार बन कर।
सिनेमा से प्यार
हरिकृष्ण को सिनेमा से प्यार तो बचपन में ही हो चला था। दस बरस की उम्र में उन्होंने ‘जुगनू’ फिल्म देखी जिसका नायक सूरज फिल्म के अंत में मर जाता है। इसके कुछ ही समय बाद उन्होंने उसी चेहरे को एक और फिल्म के होर्डिंग पर देखा तो हैरान हुए। बाल-सुलभ जिज्ञासा उपजी और पता चला कि फिल्मों में किसी का ‘मरना’ असल में मरना नहीं होता और ‘जुगनू’ के नायक दिलीप कुमार ही अब ‘शहीद’ के हीरो बन कर आ रहे हैं। यह तो बढ़िया है-बालक हरिकृष्ण ने सोचा कि बड़े होकर यही काम किया जाए ताकि हर बार एक नई जिंदगी, एक नया किरदार जीने को मिल सके। यहां से सिनेमा के प्रति आसक्ति बढ़ी और हरिकृष्ण फिल्में देखने व उनमें डूबने लगे। कुछ बरस बीते और एक दिन उन्हें दिल्ली में हुए फिल्म ‘टांगा वाली’ के प्रीमियर शो में जाने का अवसर मिला जिसके निर्देशक लेखराज भाकरी उनके रिश्तेदार थे। प्रीमियर में सज-संवर कर पहुंचे हरिकृष्ण को देख कर लेखराज बोले-अरे, तुम तो हीरो लगते हो! हरिकृष्ण ने खट से जवाब दिया-तो बना दीजिए हीरो। घर-परिवार में विचार-विमर्श हुआ और दो महीने बाद वह अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर तब के बंबई शहर जा पहुंचे-हीरो बनने के लिए।
मुश्किल डगर का राही
फिल्मी दुनिया में उनके कजिन लेखराज भाकरी मौजूद तो थे लेकिन फिल्मों की राह आसान नहीं थी। भाकरी ने उन्हें अपनी अगली फिल्म ‘फैशन’ में एक रोल भी दिया और इस तरह से 19 साल की उम्र में उन्होंने 90 साल के आदमी का किरदार निभा कर अपना अभिनय सफर आरंभ किया। इसके बाद भी छुटपुट फिल्मों में उन्हें काम मिला और पढ़ने-लिखने के अपने शौक के चलते उन्होंने कुछ फिल्मी लेखकों के लिए घोस्ट-राइटिंग भी की, मगर पैर जमा कर लगाई जाने वाली ऊंची छलांग अभी बाकी थी। इस बीच सलाह मिली कि हरिकृष्ण जैसा नाम किसी फिल्मी हीरो पर नहीं जंचेगा तो उन्होंने अपने प्रिय अभिनेता दिलीप कुमार की फिल्म ‘शबनम’ में उनके किरदार मनोज के नाम पर अपना नाम मनोज कुमार रख लिया। समय ने पलटी मारी और एक ही हफ्ते में उन्हें ‘कांच की गुड़िया’ व ‘पिकनिक’ जैसी दो फिल्में मिल गईं। यहां से गाड़ी चली और विजय भट्ट की ‘हरियाली और रास्ता’ की सफलता से इस गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली।
देश की बात
‘हरियाली और रास्ता’ की कामयाबी के बाद मनोज कुमार के प्रचारक मित्र केवल पी. कश्यप ने उनके साथ एक फिल्म बनाने की इच्छा प्रकट की। मनोज ने बताया कि उनके पास एक आइडिया है। वह आइडिया हर किसी को पसंद आया और मनोज ने उस पर रिसर्च शुरू कर दी। इस तरह से जो फिल्म बन कर सामने आई उसका नाम था-‘शहीद’। इस फिल्म को शहीद भगत सिंह पर बनी तमाम फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यहां तक कि भगत सिंह की माता विद्यावती ने भी मनोज कुमार पर अपना भरपूर प्यार बरसाया और वह अपने अंतिम समय तक मनोज कुमार को अपने बेटे की तरह मानती रहीं। ‘शहीद’ ने मनोज कुमार को एक और भी अनन्य प्रशंसक दिया। एक रात उनके फोन की घंटी बजी और एक महान व्यक्तित्व ने ‘शहीद’ में उनके काम की सराहना करते हुए उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया। अगले ही दिन मनोज कुमार दिल्ली में थे जहां उनके सामने बैठे थे देश के महान सपूत और तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री। शास्त्री जी ने उनसे अपने दिए नारे ‘जय जवान जय किसान’ पर सिनेमा जैसे अत्यंत प्रभावी माध्यम के द्वारा देश की आम जनता तक उनका संदेश पहुंचाने के लिए कोई फिल्म बनाने का आग्रह किया। बताते हैं कि उसके बाद मनोज कुमार ने दिल्ली से मुंबई की रेल-यात्रा में इस विषय पर एक फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार कर ली थी। एक ऐसी फिल्म जिसके नायक तो वह थे ही साथ ही बतौर निर्देशक भी यह उनकी पहली फिल्म थी। लेकिन अफसोस यह कि 1967 में इस फिल्म ‘उपकार’ के आने से पहले शास्त्री जी इस दुनिया से जा चुके थे।
भारत कुमार का जन्म
‘उपकार’ में अपने किरदार का नाम मनोज ‘राम’ रखना चाहते थे लेकिन फिर उन्हें लगा कि इससे इस चरित्र की तुलना लोग भगवान राम के चरित्र से करने लगेंगे जबकि वह पहले किसान और फिर सैनिक बनने वाले इस नायक के द्वारा आम भारतीय जनमानस पर प्रभाव छोड़ना चाहते थे। तब उन्होंने इस किरदार को ‘भारत’ नाम दिया। इस फिल्म के आने के बाद वह एक दिन फिल्मीस्तान स्टूडियो में थे जहां फिल्मीस्तान के बॉस शशधर मुखर्जी ने उनका स्वागत ‘आओ भारत, कैसे हो’ कहते हुए किया। यहां से मनोज के नाम के साथ भारत का नाम जुड़ा जो कालांतर में उनकी अन्य फिल्मों-‘पूरब और पश्चिम’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’ आदि से उनके साथ गहराई से जुड़ता गया और लोग उन्हें भारत कुमार के तौर पर भी जानने लगे।
आम लोगों पर असर
मनोज कुमार की बनाई देशभक्ति वाली फिल्मों ने विभिन्न दर्शकों पर कैसा प्रभाव छोड़ा इस पर लंबी रिसर्च की जा सकती है। लेकिन कुछ एक किस्से हैं जो बताते हैं कि कैसे लोग उनकी फिल्मों से प्रभावित हुए। बिहार से आए एक धनी व्यक्ति का किस्सा है जिन्होंने उनके पांव छूकर माफी मांगते हुए बताया कि वह अपने यहां अनाज की जमाखोरी किया करते थे ताकि उसे ऊंची कीमत पर बेच सकें लेकिन ‘उपकार’ देखने के बाद उन्हें खुद पर शर्म आई और वह सुधर गए। भारत से प्रतिभाओं के पलायन पर बनी उनकी फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ देखने के बाद विदेशों से भारत लौटी प्रतिभाओं में विश्वविख्यात प्लास्टिक सर्जन डॉ. नरेंद्र पांड्या का किस्सा अक्सर सुनाया जाता है। राजनीति के मैदान से उछले नारे ‘मांग रहा है हिन्दुस्तान, रोटी कपड़ा और मकान’ पर उन्होंने ‘रोटी कपड़ा और मकान’ बनाई जिसमें देश में बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई की बात की गई। संयोग यह कि इस आलेख के लेखक ने अपने जीवन में सबसे पहले यही फिल्म देखी थी।
बहुमुखी मनोज
कैमरे के सामने नाच न पाने की अपनी कमजोरी को स्वीकारने वाले मनोज के भीतर गीत-संगीत को लेकर जबर्दस्त समझ थी। यही कारण है कि उनकी फिल्मों के गाने अक्सर बहुत सुरीले और असरदार होते थे जो दशकों बाद भी गाए, गुनगुनाए जाते हैं। अभिनय, लेखन, निर्देशन, संगीत, कैमरा, कोरियोग्राफी, संपादन जैसे फिल्म निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में वाजिब दखल रखने वाले मनोज कुमार ने अपना पूरा जीवन सिनेमा को दिया। उन्हीं की फिल्म ‘क्रांति’ के ‘चना जोर गर्म बाबू…’ वाले गीत से एक पंक्ति को उठा कर कहूं तो उन जैसे फिल्मकार कम ही होंगे जिन्होंने न सिर्फ सिनेमा को ऊपर उठाया बल्कि उस सिनेमा के जरिए माटी का कर्ज भी चुकाया। अलविदा, भारत कुमार। आप कहीं नहीं गए, यहीं हैं-भारत की माटी में, हमारे दिलों में, जय हिन्द…!
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय दीपक देश के चुनिंदा फिल्म समीक्षकों की संस्था ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
ये लेखक के निजी विचार है.