One nation One election Anurradha Prasad Show: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। आजादी के अमृतकाल में वाकई इस बात पर ईमानदारी से मंथन होना चाहिए कि पिछले 75 साल में किस सोच के साथ भारत मजबूत हुआ? वो कौन सी सोच रही, जिसने देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर किया? कल मैं आपको बता चुकी हूं कि चाहे देश का नाम तय करना हो या आजादी के बाद चुनाव का मैकेनिज्यम तैयार करना, किस तरह संविधान सभा में खुली बहस के बाद गंभीर मसलों पर आपसी सहमति बनाई जाती थी। देश के हर नागरिक को इस बात का एहसास रहे कि भारत निर्माण में उसकी बराबर की हिस्सेदारी है। इसके लिए व्यस्क मताधिकार का इंतजाम किया गया। कैबिनेट मिशन प्लान के तहत चुनी गई संविधान सभा में पहुंचे ज्यादातर लोगों की पढ़ाई-लिखाई अंग्रेजी में हुई थी। कानून के अच्छे जानकार थे। लेकिन, उन्हें भारतीय परंपराओं और सामाजिक ताने-बाने की बहुत गहरी समझ थी, चाहें पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या भीमराव अंबेडकर हों..के. एम. मुंशी हों या फिर टी.टी.कृष्णामचारी…राजेंद्र प्रसाद हों या सच्चिदानंद सिन्हा। भले ही संविधान सभा में कांग्रेस का वर्चस्व था लेकिन, कांग्रेस के भीतर ही मुखर विरोधी सुर भी थे। संविधान सभा में बैठे हमारे पुरखे इतने खुले मन से आजाद भारत का मुस्कबिल चमकदार बनाने के लिए एक ऐसा दस्तावेज तैयार करने में जुटे थे। जिसके आधार पर हर विवाद को निपटाया जा सके..जहां बहुमत के आधार पर किसी अलहदा सोच को दबाने की कोशिश न हो, व्यावहारिकता और तर्क की कसौटी पर हर मुद्दे को कसा गया।
आज मैं आपको दो ऐसे मुद्दों के बारे में बताऊंगी-जिसके बारे में कह सकते हैं कि संविधान सभा में बहस अधूरी रह गयी। विद्वानों से सभी संविधान सभा ने भी उन दोनों मुद्दों को भविष्य की सरकारों के लिए छोड़ दिया गया। इसमें एक है– समान नागरिक संहिता और दूसरा है आरक्षण का मुद्दा। इन मुद्दों ने देश की चुनावी राजनीति को बहुत हद तक प्रभावित किया है। ऐसे में भारत एक सोच में आज बात एक कानून से आरक्षण तक की।
बीजेपी अब इस मुद्दे की तरफ बढ़ रही
पिछले कुछ वर्षों से रह-रह कर ये सुर सुनाई देते हैं कि मोदी सरकार एक देश, एक कानून की ओर बढ़ रही है। इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है। बीजेपी के पुराने बड़े मुद्दों में से सिर्फ एक देश, एक कानून का वादा ही अधूरा है। राम मंदिर बनाने से लेकर जम्मू-कश्मीर से 370 खत्म करने जैसा वादा पूरा हो चुका है। बीजेपी शासित कुछ राज्यों ने एक देश, एक कानून की ओर कदम बढ़ा दिए हैं तो कानून मंत्रालय के मातहत काम करने वाले Law Commission of India को Uniform Civil Code पर ग्राउंड वर्क करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके लिए लॉ कमीशन ने लोगों से सुझाव भी मांगे। जिसकी आखिरी तारीख 28 जुलाई थी यानी डेढ़ महीने से अधिक समय बीत चुका है। अभी तक ये साफ नहीं हुआ है कि लॉ कमीशन से सरकार को अपनी सिफारिश भेजी है या नहीं, या फिर अभी लोगों और संस्थाओं के सुझावों को लॉ कमीशन पढ़ने के काम में ही जुटा है। ऐसे में मौजूदा समय में एक देश, एक कानून पर क्या चल रहा है। इसे जानने से पहले आजादी के अमृत काल में ये समझना जरूरी है कि जब ये मसला संविधान सभा में पहुंचा तो इसे हमारे पुरखों ने किस तरह देखा।
यूरोप के 50 देशों के बराकर भारत की आबादी
23 नवंबर 1948 को लंबी बहस के बाद संविधान निर्माताओं ने ये सौगंध ली कि आने वाली सरकारें देश में समान नागरिक संहिता लागू करेगी। यानी हर भारतीय के जीवन यापन संबंधी कानून एक जैसे होंगे। संविधान में अनुच्छेद 44को मंजूरी मिल गयी। लेकिन संविधान का ये नीति निर्देशक तत्व आज तक लागू नहीं हुआ। राजनीति की धारा और समय के प्रवाह के साथ हिंदू-मुस्लिम, सेक्युलर-कम्युनल के नाम पर वोटों के ध्रुवीकरण की स्क्रिप्ट भी तैयार हुई। उसमें एक देश, एक कानून के नाम पर भी सियासी संभावना टटोलने का काम हुआ। एक सच ये भी है कि भारत इतना विशालकाय और विविधता वाला देश है, जहां एक अरब चालीस करोड़ लोग रहते हैं। यूरोप के 50 देशों को मिलाकर जितनी आबादी का आंकड़ा पहुंचता है, उससे ज्यादा अकेले भारत की ही जनसंख्या है। अफ्रीका के 54 देशों की आबादी को मिला दिया जाए तो भी भारत ही आबादी के मामले में बीस पड़ेगा। यहां के समाज में बहुत ज्यादा विविधता है, ऐसे में ये समझना भी जरूरी है किस सोच के साथ यूसीसी को लेकर कदम आगे बढ़ाए जा रहे हैं? किस तरह के बदलावों की चर्चा आकार ले रही है? विवाह से लेकर गोद लेने तक के नियमों में किस तरह के बदलाव दिख सकते हैं?
किस तरह सुलझेगा सिविल कोड का मुद्दा?
सिविल कोड पर सरकार के इक़बाल के साथ-साथ समाज का इक़बाल भी बहुत मायने रखता है। यहां कई अलग धर्म, वर्ग, जाति और व्यवस्था को मानने वाले लोग हैं। इसलिए सबके हितों और परंपराओं को ध्यान में रखते समान सिविल कानून बनाने में मुश्किलें बहुत हैं। ऐसे में आजादी के अमृत काल में समान नागरिक कानून के मुद्दे को हमारी संसद की नई इमारत में किस तरह सुलझाया जाता है, इसका इंतजार पूरे भारत को है। आरक्षण भी एक ऐसा मुद्दा है, जिसे एक तय समय के बाद खत्म होने का सपना हमारे संविधान निर्माताओं ने देखा था। लेकिन, वोट बैंक पॉलिटिक्स आरक्षण को हमेशा बनाए रखने में अपना फायदा देखती रही है। हमारे देश में आरक्षण की शुरुआत कहां से हुई और संविधान सभा में बैठे पुरखों ने इस मुद्दे को किस तरह से देखा…पहले ये समझ लेते हैं।
बिहार पहला राज्य जहां पिछड़ों को नौकरियों में मिला आरक्षण
संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में SC के लिए 15 फीसदी और ST के लिए साढ़े सात फीसदी आरक्षण तय किया, वो भी दस वर्षों के लिए। दस साल बाद आरक्षण की समीक्षा होनी थी, पर नेताओं ने कभी जाति के नाम पर भेदभाव खत्म करने की ईमानदार कोशिश नहीं की और आजाद भारत में जातियां सियासी बिसात पर गोटियों की तरह इस्तेमाल होने लगीं। आजादी के बाद कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने का रास्ता विरोधी पार्टियों की समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे में सोशलिस्ट राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ी जातियों की गोलबंदी का रास्ता निकला और संख्या के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी पर जोर दिया। नतीजा ये निकला कि साल 1967 में बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। साल 1977 में बिहार में पिछड़ों के लिए 26 फीसदी आरक्षण देने का फैसला हुआ। बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बना, जहां पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला। इसके बाद सामाजिक रूप से पिछड़ों की पहचान के लिए मंडल आयोग का गठन हुआ। जिसकी रिपोर्ट को वीपी सिंह सरकार ने लागू कर पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का रास्ता खोल दिया।
जातीय जनगणना के दांव से अपना पलड़ा भारी करने में जुटीं पार्टियां
ये आरक्षण का सम्मोहन ही था, जिसने बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार। यूपी में मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं को सूबे की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दिया। भारत के नक्शे पर खास जाति की नुमाइंदगी का दावा करने वाली कई राजनीतिक पार्टियां चमकने लगीं। आजादी के अमृतकाल में आरक्षण खत्म करने जगह कोटा के भीतर कोटा की बात जोर-शोर से हो रही है। जातीय जनगणना के दांव से अपना पलड़ा भारी और दूसरे का हल्का बनाने की स्क्रिप्ट भी तैयार की जा रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन बताता है। संघ की वैचारिक गर्भनाल से निकली बीजेपी जातीय गोलबंदी का कोई मौका नहीं छोड़ रही है तो कई ऐसी दूसरी पार्टियां भी हैं-जिनकी सियासी जमीन पूरी तरह जातीय गोलबंदी की परिक्रमा करती दिखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारे संविधान निर्माताओं एक तय समय के बाद आरक्षण खत्म करने का जो सपना देखा था, क्या वो कभी पूरा होगा? क्या आजादी के अमृत काल में हमारे नेता ईमानदारी से जात-पात और आरक्षण की राजनीति खत्म करने के बारे में सोचेंगे? क्या अगले 25 वर्षों में हमारा समाज इतना मजबूत हो जाएगा। जिसमें लोग आरक्षण लेने की जगह आरक्षण छोड़ने में गर्व महसूस करेंगे।
रिसर्च-स्क्रिप्ट: विजय शंकर
देखिए पूरा VIDEO…
यह भी पढ़ें: रवींद्रनाथ टैगोर का घर शांति निकेतन बना ग्लोबल हेरिटेज, 160 साल पुराना है इतिहास