Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक विधानसभा चुनावों में पिछले चार दशकों से चली आ रही सियासी परिपाटी बदलने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तूफानी रफ्तार से चुनावी सभाएं कर रहे हैं। कर्नाटक को लेकर बीजेपी रणनीतिकारों के Over Confidence यानी अति आत्मविश्वास की सबसे बड़ी वजह है– पीएम मोदी का चेहरा। उसके बाद बीजेपी की डबल इंजन सरकार का काम, फिर वोट की सोशल इंजीनियरिंग। वहीं, कांग्रेसी दिग्गजों के लग रहा है कि अब बेंगलुरु की सत्ता में आने की उनकी बारी है। भ्रष्टाचार का मुद्दा बीजेपी की बोम्मई सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए काफी है। जेडीएस को भी सूबे के सियासी दंगल में अपने लिए भरपूर संभावना दिख रही है।
लेकिन, राजनीति संभावनाओं का खेल है, जिसमें कब कौन सिकंदर बन जाए? कौन सा मुद्दा किसकी जमीन खिसका दे और किसे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दे, इसकी भविष्यवाणी करना हमेशा से मुश्किल काम रहा है। लेकिन, कर्नाटक की राजनीति का मूल चरित्र क्या है? किन तत्वों से प्रभावित होती रही है? कर्नाटक राज्य का मौजूदा नक्शा कैसे तैयार हुआ? वहां की सियासत में किस तरह से लिंगायत और वोक्कालिगा बड़े ध्रुव बने? कर्नाटक के मुख्यमंत्री वाली कुर्सी पर इतनी फिसलन क्यों हैं? आपके मन में उठते इस तरह के कई सवालों के जवाब तलाशने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। कर्नाटक पॉलिटिक्स में समय के साथ आते उतार-चढ़ाव की कहानी को समझना होगा? ऐसे में आज मैं News 24 की एडिटर-इन-चीफ अनुराधा प्रसाद आपको कर्नाटक के कल…आज और कल की तस्वीर से रू-ब-रू करा रही हूं– अजब कर्नाटक की गजब राजनीति में।
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कर्नाटक की धरती उगलती है सोना
किसी भी चुनाव में वोटिंग के बाद आपकी अंगुली पर स्याही लगाई जाती है- जिसके निशान कई दिनों तक छूटते नहीं। वो स्पेशल स्याही सिर्फ कर्नाटक में ही बनती है। दुनिया के 30 से ज्यादा देश कर्नाटक की स्पेशल स्याही अपने यहां मंगवाते हैं। अगर आप कॉफी के शौकीन हैं तो भी आपका कर्नाटक से कनेक्शन जुड़ता है। क्योंकि, देश की 70 फीसदी से ज्यादा कॉफी का उत्पादन अकेले कर्नाटक करता है। भारत का 88 फीसदी से अधिक Gold कर्नाटक की खदानों से निकलता है यानी वहां की जमीन सोना उगलती है। बेंगलुरु शहर की पहचान भारत के सिलिकॉन वैली के तौर पर है। इसी शहर में Infosys और Wipro के हेडक्वार्टर हैं। भले ही बेंगलुरु में TCS का हेड क्वार्टर न हो लेकिन, दुनिया की इस दिग्गज आईटी कंपनी के कई बड़े दफ्तर बेंगलुरू में खड़े हैं।
कुछ लोग कर्नाटक को इंजीनियर पैदा करने वाली मिट्टी भी मानते हैं। लेकिन, सियासी लिहाज से भी कर्नाटक एक बहुत ही अहम प्रदेश रहा है। ऐसे में कर्नाटक पॉलिटिक्स के पन्नों को कहां से पलटना शुरू किया जाए, ये मेरे सामने एक बड़ा सवाल था। बहुत सोच विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची कि कर्नाटक की कहानी को इसके एक राज्य के रूप में आकार लेने के साथ शुरू करना बेहतर रहेगा।
1956 में सामने आया कर्नाटक का मौजूदा नक्शा
दरअसल, अंग्रेजों के दौर में कर्नाटक 20 से भी ज्यादा राज्यों में बंटा हुआ था। भौगोलिक रूप से जुड़े इस हिस्से को कन्नड़ भाषा आपस में जोड़ रही थी। ऐसे में अंग्रेजों के दौर में ही कर्नाटक को एक करने के आंदोलन ने जोर पकड़ा। जिसकी अगुवाई साहित्यकार और विचारक कर रहे थे। आजादी के बाद जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का काम शुरू हुआ, तो एक नवंबर 1956 को कर्नाटक का मौजूदा नक्शा सामने आया। तब इसे मैसूर के नाम से जाना जाता था। नए सूबे की कमान मिली पुराने कांग्रेसी एस. निजलिंगप्पा को, जिन्होंने ने कर्नाटक को अलग राज्य के रूप में आकार देने वाले आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी।
एस जिनलिंगप्पा का नाम इसलिए हमेशा याद किया जाएगा
1950 के दशक में कांग्रेस के सामने विपक्ष की ओर से कोई दमदार चुनौती नहीं थी। लेकिन, ज्यादातर राज्यों में सत्ता के लिए कांग्रेसियों के बीच ही महाभारत चरम पर थी और कर्नाटक इससे अलग नहीं था। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए कुर्सी खिसकाने का खेल तूफानी रफ्तार से जारी है। मुख्यमंत्री पर मुख्यमंत्री बदलते रहे। एस. निजलिंगप्पा के बाद बीडी जत्ती, एसआर कांथी, वीरेंद्र पाटिल और डी. देवराज उर्स सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। सबने अपने-अपने तरीके से कर्नाटक की तरक्की में योगदान दिया और राजनीतिक लकीर खींची। लेकिन, इतिहास में जब भी एस. निजलिंगप्पा का नाम आता है- उन्हें सबसे पहले इंदिरा गांधी के साथ टकरावों की वजह से याद किया जाता है। 1969 में कांग्रेस के बंटवारे के खलनायक के तौर पर देखा जाता है। इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में दोबारा वापसी की शुरुआत का एक पन्ना भी कर्नाटक के ही चिकमंगलूर से जुड़ता है लेकिन, वहां की पावर पॉलिटिक्स में एक बड़ा मोड़ देवराज उर्स के दौर में आया। 1970 के दशक में देवराज उर्स ने ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुस्लिमों को साधते हुए अपनी राजनीति गाड़ी आगे बढ़ानी शुरू की। इससे सूबे के लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों ही समुदाय के राजनीतिक वजूद पर खतरा मंडराने लगा।
1983 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी जनता पार्टी
कर्नाटक पॉलिटिक्स में एक बड़ा बदलाव साल 1983 में दिखा। चुनावों में जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन, सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा नहीं था। ऐसे में सूबे के लोगों ने पहली बार सत्ता के लिए गठबंधन का प्रयोग देखा। जिसमें रामकृष्ण हेगड़े को मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बनी। उनका सियासी बायोडाटा कांग्रेस से होते हुए जनता पार्टी तक पहुंचा था। कर्नाटक के सियासी मिजाज के मुताबिक ही रामकृष्ण हेगड़े को भी पीछे से लंगड़ी मारने का खेल जारी रहा। ऐसे में साल भर बाद ही खुद हेगड़े ने अपनी सरकार भंग करने की सिफारिश कर दी। कर्नाटक की राजनीति को एक और घटना से समझा जा सकता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद साल 1985 में हुए लोकसभा चुनावों में कर्नाटक में कांग्रेस को बड़ी कामयाबी मिली पर उसी साल सूबे के विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। रामकृष्ण हेगड़े ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। सत्ता में रहते लगे कई आरोपों की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे में जिस शख्स का नाम मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए फाइनल हुआ, उसका जिक्र अक्सर किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद गाहे-बगाहे आता रहता है। मैं बात कर रही हूं एस.आर.बोम्मई की। ये कर्नाटक के मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के पिता हैं।
2008 में कर्नाटक की राजनीति का नया अध्याय शुरू
कई पड़ावों और जोड़ तोड़ से होते हुए कर्नाटक की राजनीति 1990 के दशक में दाखिल हुई। साल 1994 में वोक्कालिगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एचडी देवगौड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। राजनीतिक हालात और किस्मत ने साल 1996 में उन्हें देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। संभवत: , ये कर्नाटक के वोक्कालिगा समुदाय के लिए भी गर्व का दौर रहा होगा लेकिन, कर्नाटक की राजनीति का एक नया अध्याय 2008 में शुरू हुआ, जब सूबे की 110 विधानसभा सीटों पर कमल खिल गया। दक्षिण भारत के किसी राज्य में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी। बीएस येदियुरप्पा नए हीरो की तरह उभरे। उसके बाद कर्नाटक की राजनीति तीन बड़े सियासी ध्रुवों के ईंद-गिर्द घूमने लगी। बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस।
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कर्नाटक के लोगों के मन में क्या है? इसे पढ़ना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है। वहां के लोगों ने सत्ता के लिए कई बेमेल गठबंधन देखे हैं। रिश्तों को बनते-टूटते देखा है। येदियुरप्पा की बगावत भी देखी है तो बेल्लारी में सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज की चुनावी टक्कर भी। पूर्ण बहुमत वाली सरकारों का नतीजा भी देखा है और त्रिशंकु विधानसभा के बाद पैदा सियासी संकट भी। गोल्ड माइन्स भी देखी है और आईटी कंपनियों में काम करने वाले नौजवानों की आंखों में चमक भी। ऐसे में अब कर्नाटक के लोग हिसाब लगा रहे हैं कि 10 मई को ईवीएम का किस तरह से इस्तेमाल करना है, जिससे उनकी जिंदगी की मुश्किलें थोड़ी और आसान हो सके। उनकी अगली पीढ़ी का मुस्तकबिल और चमकदार बन सके।
स्क्रिप्ट और रिसर्च : विजय शंकर