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आर्टिकल 370 हटाए जाने के बाद कितने बदले जम्मू-कश्मीर के हालात?

Jammu-Kashmir: 5 अगस्त, 2019…ये वो तारीख है, जिसने जम्मू-कश्मीर की पूरी आवाम को हैरान कर दिया। पूरे भारत के लोगों को भी ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि जो काम मोदी सरकार ने एक झटके में कर दिया, वो पहले क्यों नहीं हो पाया? 5 अगस्त, 2019 को ही जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाले […]

Edited By : Bhola Sharma | Updated: Aug 9, 2023 13:13
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Jammu-Kashmir: 5 अगस्त, 2019…ये वो तारीख है, जिसने जम्मू-कश्मीर की पूरी आवाम को हैरान कर दिया। पूरे भारत के लोगों को भी ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि जो काम मोदी सरकार ने एक झटके में कर दिया, वो पहले क्यों नहीं हो पाया? 5 अगस्त, 2019 को ही जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाले जम्मू-कश्मीर और भारत के दूसरे हिस्सों में अंतर करने वाले अनुच्छेद 370 को अतीत बना दिया गया था। 35A को भी इतिहास के पन्नों तक सीमित कर दिया गया।

केंद्र सरकार के चार साल पुराने इस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में रोजाना सुनवाई चल रही है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच इस मसले पर सुनवाई कर रही है। लेकिन, मैं आपसे देश की सबसे बड़ी अदालत में चल रही जिरह की बात नहीं करूंगी।

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मैं आपको बताने की कोशिश करुंगी कि 370 हटाए जाने के बाद यानी पिछले चार वर्षों में जम्मू-कश्मीर के हालात कितने बदले? वहां के लोगों की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आए हैं? वहां के लोगों के मन में अब कौन से सवाल घुम रहे हैं? क्या देश के दूसरे हिस्सों में रह रहे विस्थापित कश्मीरी वापस लौट चुके हैं? एक देश, एक कानून के बाद भी दूसरे हिस्सों से कितने लोग बसने के लिए कश्मीर पहुंचे? पिछले चार वर्षों में हालात सामान्य होने के बाद भी वहां विधानसभा चुनाव क्यों नहीं हुए? जम्मू-कश्मीर के मौजूदा सियासी समीकरण किसके पक्ष में और किसके खिलाफ हैं? कश्मीर में जब भी बड़ी हलचल या बदलाव हुए तो वहां के लोगों ने उसे किस तरह से लिया? उसमें सियासत ने अपने लिए किस तरह संभावना देखी? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम कश्मीर के मन में क्या है?

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अब पर्यटकों के पहुंचने का बन रहा रिकॉर्ड

जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को इतिहास बने चार साल बीत चुके हैं। लेकिन, अगर आप वहां के किसी खुली सोच के सामान्य आदमी से पूछेंगे कि पिछले चार साल में जम्मू-कश्मीर की आबोहवा में किस तरह के बदलाव दिखे तो वो एक झटके में कहेगा कि कुछ महीनों तक घरों में जरूर बंद रहना पड़ा। इंटरनेट सेवाएं ठप रहीं, घरों के बाहर सेना और सुरक्षाबलों के हथियारों से लैस जवान ही दिखते थे। अक्सर रात के सन्नाटे को सुरक्षाबलों के काफिले की सायरन बजाती गाड़ियां तोड़ती थीं लेकिन, अब पूरी तस्वीर बदल चुकी है। श्रीनगर के लाल चौक पर देर रात तक रौनक रहती है। हर साल कश्मीर में पर्यटकों के पहुंचने का नया रिकॉर्ड बन रहा है। इससे डल झील में शिकारा चलाने वालों के चेहरे खिले हुए हैं। कश्मीर में अमन है। पत्थरबाजी की घटनाएं और अलगाववादियों द्वारा हड़ताल का ऐलान अब इतिहास की बात हो चुकी है। आतंकवादी घटनाओं में भी कमी आई है। श्रीनगर में मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वालों की लाइन लगी रहती है। छोटे शहरों में भी सिनेमा हॉल खुलने लगे हैं। पिछले हफ्ते श्रीनगर में मुहर्रम का जुलूस निकला। पिछले तीन दशकों से श्रीनगर में मुहर्रम का जुलूस निकालने पर रोक थी। लेकिन, कश्मीर में अब बदलाव की बयार चल रही है। जिससे वहां का आम आदमी भी महसूस कर रहा है।

भारत की कूटनीति के आगे सभी हुए फेल

ब्रिटिश-बहरीनी मूल के एक सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर हैं, अमजद ताहा। उनका जम्मू-कश्मीर पर एक ट्वीट गजब का वायरल है। उन्होंने ट्वीट किया कि पिछली उथल-पुथल के बावजूद, यह क्षेत्र यानी कश्मीर अब भविष्य की पीढ़ियों के लिए आशा का संकेत देता है। मतलब, जम्मू-कश्मीर पर मोदी सरकार ने जो रास्ता पकड़ा है, उसमें मुस्लिम वर्ल्ड के देशों को भी बड़ी संभावना दिख रही है। पिछले चार साल में जम्मू-कश्मीर में हालात बदलने में एक ओर सरकार की चौतरफा रणनीति ने काम किया। दूसरी ओर इंटरनेशनल फैक्टर्स भी मददगार साबित हुए। मोदी सरकार ने ऐसी कूटनीतिक बिसात बिछाई, जिसमें पहले से ही आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान दुनिया में शून्य बट्टा सन्नाटे में आ चुका था। मुस्लिम वर्ल्ड के देशों से भी भारत ने अच्छा राब्ता बनाया। इसमें अहम भूमिका निभाई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल ने।

ऐसे में जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला लिया तो पाकिस्तान को दुनिया के किसी बड़े देश का साथ नहीं मिला। यहां तक की सऊदी अरब और यूएई भी भारत के साथ खड़े रहे। तुर्की जरूर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की लाइन का समर्थन करता रहा लेकिन, बदली परिस्थितियों में इस मुद्दे पर अब तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यब अर्दोआन मुंह बंद रखने में ही अपने मुल्क की बेहतरी देख रहे हैं। पिछले चार साल में जम्मू-कश्मीर में हालात में सुधार की एक और बड़ी वजह रहा है पाकिस्तान में उथल- पुथल और उसका कमजोर पड़ना।

क्या कमल खिलने का अभी समय नहीं?

जम्मू-कश्मीर को केंद्र सरकार उप-राज्यपाल के जरिए चला रही है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर में विकास और बदलाव की कितनी तेज बयार चल रही है। लेकिन, एक सवाल ये भी है कि 370 और 35A खत्म किए जाने के बाद कश्मीर में देश के दूसरे हिस्से के लोगों ने कितनी जमीन खरीदी? कितने लोगों ने वहां अपना आशियाना बना कर धरती के जन्नत में रहते का फैसला लिया है? आतंकवाद के दौर में कश्मीर छोड़ने वाले कितने लोगों ने बदली फिदा में वापसी की है? एक और सवाल जम्मू-कश्मीर के लोगों को अक्सर परेशान करता है कि जब सब कुछ सामान्य है तो फिर उन्हें अपनी सरकार चुनने का मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है? Delimitation के बाद भी केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव क्यों नहीं करा रही है? क्या बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में कमल खिलने के लिए अभी अनुकूल मौसम नहीं लग रहा है?

कश्मीरियो ने हर बदलाव को स्वीकारा

बीजेपी रणनीतिकार अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर के नतीजे पूरे देश पर असर डालेंगे? बीजेपी जम्मू को लेकर तो कॉन्फिडेंट हो सकती है लेकिन कश्मीर घाटी में पूरी तरह कॉन्फिडेंट नहीं है। शायद, पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के बाद भी बीजेपी रणनीतिकारों के मन में कुछ खटक रहा हो। ऐसे में माना जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में अब 2024 के लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव की भी घंटी बजेगी। इतिहास गवाह रहा है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने हर बदलाव को स्वीकार किया है और चुनौतियों का डट कर मुकाबला किया है। चाहे वो 1980 के दशक में आतंकवाद का दौर रहा हो या आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर का भारत में शामिल होने का फैसला। वहां के लोगों के मन में कौन सा संघर्ष चलता रहा है। इसे समझने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटना भी जरूरी है।

यहां की आबोहवा में साझा विरासत का घोल

जम्मू-कश्मीर हजारों साल से एक ऐसे फलसफे पर आगे बढ़ता रहा है जो किसी से बैर नहीं, सबको साथ लेकर चलना सिखाता है। कश्मीर की आबोहवा में हिंदू, बौद्ध और इस्लाम की साझा विरासत घुली-मिली है। सूफी-संतो की धरती रही है। ज्ञान-विज्ञान की धरती रही है। जिसमें हर तरह के विचारों के लिए सम्मान था। करीब ढाई हजार साल पहले सम्राट अशोक के दौर में कश्मीर में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। छठी शताब्दी में इस क्षेत्र में अपने तरह का शैव दर्शन विकसित हुआ। 10वीं सदी में शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन ने यहां के लोगों को अपनी को आकर्षित किया। मुस्लिमों के पैर कश्मीर की जमीन पर पड़ने के साथ इस्लाम के विस्तार की कोशिशें भी तेज हुईं। कश्मीर अलग-अलग धर्मों के बीच तालमेल बैठाता आगे बढ़ता रहा। इस साझी संस्कृति को कश्मीरियत का नाम दिया गया। कश्मीर के लोगों ने हर बदलाव को खुले दिल से कबूल किया। कालचक्र के साथ तख्त पर चाहे किसी मजहब का शासक रहा हो। वहां के लोगों ने भाईचारे और इंसानियत के धागे को कमजोर नहीं पड़ने दिया।

कश्मीर को लहूलुहान बनाने में पाकिस्तान ने नहीं छोड़ी कसर

जिस कश्मीर में सामाजिक समरसता और बराबरी के लिए शादी-ब्याह या किसी खास आयोजन के मौके पर साथ बैठकर त्रामी में खाने की परंपरा थी। जहां पंडित टाइटल हिंदू भी लगाते हैं और मुस्लिम भी। जहां ज्ञान की रोशनी फैलाने वाले किसी भी शख्स को पंडित कहने का रिवाज था। उसी खूबसूरत कश्मीर को लहूलुहान करने में खुराफाती पाकिस्तान ने कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां के सेब के बागों में रोफ और सुफियाना सुनाई देते थे। वहां गोली और बम की आवाज गूंजने लगी। छकरी-सहरवी की जगह आतंकियों और अलगाववादियों की धमकियां तेज होने लगी। ऐसे में कश्मीरी अवाम के सामने एक ओर सुरक्षाबलों के जवान तो दूसरी ओर बंदूक ताने आतंकी। तीसरी ओर कश्मीर के नाम पर वोट बैंक पॉलिटिक्स करने वाले सफेदपोश।

चार साल पहले जम्मू-कश्मीर ने एक नई राह पकड़ी। बदलाव की राह। अनुच्छेद 370 और 35A के लबादे को उतारने की राह। लेकिन, एक सच ये भी है कि जहां 370 खत्म होने के चार साल बाद कश्मीर की फिज़ा बदली-बदली सी लग रही है। वहां का आम आदमी सुकून महसूस कर रहा है। वहीं, सियासत जम्मू-कश्मीर में भी वोट-बैंक के लिए जाति और मजहब के नाम पर अपने लिए संभावना तलाशती दिख रही है। इससे अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान होगा तो वो कश्मीरियत का होगा। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के लोग मन ही मन चाहते हैं कि बदलाव और विकास की ऐसी ही बयार चलती रहे। अब उनके अमन और शांति को किसी की नज़र न लगे।

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Edited By

Bhola Sharma

Edited By

Manish Shukla

First published on: Aug 05, 2023 09:00 PM

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