भारत और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की 1971 की लड़ाई पर आधारित फिल्म पिप्पा और इसमें म्यूजिक देने वाले सुर सम्राट एआर रहमान दो दिन से विवादों में हैं। विवाद फिल्म के एक गाने ‘करार ओई लोहो कपट’ पर है। आरोप है कि रहमान ने इस गीत की आत्मा पर चोट की है, जिसके बाद बंगाल से बांग्लादेश तक विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस गाने को विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम ने लगभग 100 साल पहले लिखा था। अब हर कोई जानना चाह रह रहा है कि ये विद्रोही कवि आखिर कौन थे और उनके इस गाने पर विवाद क्यों खड़ा हो गया। क्यों एआर रहमान जैसे संगीतकार विवादों में आ गए कि उन्हाेंने विद्रोही कवि का अपमान किया है? इन तमाम सवालात का जवाब हम यहां इस आर्टिकल में देने का प्रयत्न कर रहे हैं।
वर्धमान जिले में स्थित चुरुलिया में ईमाम के घर पैदा हुए थे काजी नजरूल
काजी नजरूल इस्लाम को बांग्ला साहित्य का सिरमौर कवि कहा जाता है। उनका जन्म 24 मई 1899 को बंगाल के वर्धमान जिले में स्थित चुरुलिया में ईमाम काजी फकीर अहमद के घर हुआ था, जो बहुत ही निर्धन परिवार आते थे। बचपन में खोए-खोए से रहने की वजह से लोग उन्हें दुक्खू मियां कहकर बुलाते थे। उनकी शुरुआती तालीम मजहबी तालीम के रूप में गांव में ही हुई। महज 10 साल की उम्र थी, जब पिता के इंतकाल के बाद उन्होंने मस्जिद की देखभाल शुरू कर दी थी।
हिंदू-इस्लाम धर्मों पर अनेक रचनाएं हुईं प्रसिद्ध
इसके बाद किशोरावस्था में ही नाटक मंडलियों के साथ काम करते-करते कविता और साहित्य की दूसरी विधाओं का ज्ञान भी उन्होंने हासिल कर लिया। सामाजिक न्याय, समानता, मानवता, साम्राज्यवाद के विरोध, उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह और धर्म-भक्ति आदि प्रासंगिक विषयों पर उन्होंने बड़ी संख्या में कविता, संगीत, संदेश, उपन्यास और कहानियां लिखीं। अपनी जिंदगी में कवि नजरूल ने न सिर्फ 3 हजार के करीब गीतों की रचना की, बल्कि ज्यादातर को आवाज भी दी। इन गीतों को आज भी नजरूल गीति नाम से जाना जाता है। जहां तक इस रुचि की शुरुआत की बात है, उनके चाचा फजले करीम की अपनी संगीत मंडली थी, जो पूरे बंगाल में कार्यक्रम किया करती थी। नजरूल ने इस मंडली के लिए गाने लिखे। उसी दौरान उन्होंने बांग्ला भाषा लिखनी सीखी, संस्कृत का भी ज्ञान जुटाया और कभी बांग्ला तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे। इसका असर उनके बहुत से नाटकों पर देखने को मिला। नजरूल ने सिर्फ इस्लाम ही नहीं, बल्कि हिंदू भक्ति पर भी कई रचनाएं लिखी। देवी दुर्गा की भक्ति में गाया जाने वाला उनका श्यामा संगीत और कृष्ण भक्ति के गीत व भजन भी खासे प्रचलित हुए।
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1917 में कवि बन गए थे ब्रिटिश फौजी
जवान हुए तो 1917 में तत्कालीन सैन्य-राजनैतिक हालात में रुचि होने के चलते वह ब्रिटिश आर्मी में भर्ती हो गए। कराची कैंट में तैनाती के दौरान काम का ज्यादा बोझ नहीं होने के कारण उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा। बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगौर और शरत चंद्र चटोपाध्याय को तो फारसी में रूमी और खय्याम को पढ़ा। 1919 में ‘एक आवारा की जिंदगी’ नामक पहली किताब छपी तो कुछ महीने बाद पहली कविता ‘मुक्ति’ छपी। विद्रोही कवि काजी नजरूल की निजी जिंदगी भी कुछ दिलचस्प नहीं थी। 1920 में ब्रिटिश आमी की बंगाल रेजिमेंट को भंग कर दिया गया तो नजरूल कलकत्ता में आकर बस गए। कलकत्ता में उन्होंने ‘मुसलमान साहित्य समिति’ और ‘मुस्लिम भारत’ नामक अखबार के दफ्तर में डेरा डाला। इसी अखबार में उनका पहला उपन्यास ‘बंधन हारा’ एक सीरियल के रूप में छपा।
1922 में ‘विद्रोही’ नामक एक कविता ने उन्हें रातों-रात लोकप्रिय बना दिया। देखते-देखते यह कविता क्रांतिकारियों का प्रेरकगीत बन गई और नजरूल को ‘विद्रोही कवि’ के नाम से जाना जाने लगा…
ऐसी थी नजरूल की निजी जिंदगी
उस जमाने के जाने-माने पब्लिशर अली अकबर खान की भतीजी नर्गिस के साथ नजरूल की सगाई हुई, लेकिन 18 जून 1921 को तय शादी की तारीख पर अली अकबर खान ने नजरूल पर शादी के बाद दौलतपुर में रहने का कॉन्ट्रैक्ट साइन करने का दबाव डाला तो उन्होंने निकाह से इनकार कर दिया। बाद में उन्हें प्रमिला नामक हिंदू लड़की से इश्क हो गया और दोनों धर्मों की कट्टरता के बावजूद उन्होंने प्रमिला से शादी कर ली। देश की आजादी के बाद कवि नजरूल की जिंदगी काफी तकलीफ में बीती। अधेड़ उम्र में ही ‘पिक्स रोग’ से ग्रसित हो जाने के कारण बाकी जिंदगी में वह साहित्यकर्म से अलग हो गए। 1952 आते-आते तो हालात इतने बुरे हो गए कि उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ा। 1962 में पत्नी के निधन के बाद तो लगभग सब खत्म ही हो गया।
एक जन्मदिन मनाने के लिए ढाका ले जाया गया, लेकिन नहीं लौटे नजरूल
उधर, इसके बाद 1971 में भारत और पाकिस्तान की लड़ाई के बाद जब बांग्लादेश अलग देश बन गया तो बांग्ला भाषा में साहित्य सेवा के चलते फरवरी 1972 में बांग्लादेश ने नजरूल को अपना ‘राष्ट्रकवि’ घोषित कर दिया। उन्हें डी. लिट की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया गया। दूसरी ओर भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया था। उधर, भारत आए तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान ने काजी नजरूल इस्लाम को अपने देश ले जाने की इच्छा जताई। यह बात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक भी पहुंची, जिसमें बाद नजरूल के दोनों बेटों काजी सब्यसाची और काजी अनिरुद्ध के साथ विचार-विमर्श करके उन्हें बांग्लादेश भेजने का फैसला लिया। असल में लगभग 30 साल से सुध-बुध खो बैठे नजरूल अपनी बात कहने में असमर्थ थे। हालांकि दोनों देशों के बीच तय हुआ कि कवि का वह जनमदिन ढाका में मनाने के बाद अगले जन्मदिन से पहले वह भारत लौट आएंगे, लेकिन इसके बाद नजरूल फिर कभी भारत नहीं लौटे। 1976 में इंतकाल के बाद ढाका यूनिवर्सिटी के कैम्पस में उन्हें दफन कर दिया गया।
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विद्रोही कवि के गाने ‘करार ओई लोहो कपट’ पर ये है विवाद
बांग्लादेश के अस्तित्व में आने से पहले भारत-पाकिस्तान के बीच लड़ी गई लड़ाई पर बनी फिल्म पिप्पा में एक गीत है, ‘करार ओई लोहो कपट’। इस गाने को लेकर विवाद यह है कि भारतीय संगीत उस्ताद एआर रहमान ने विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम के इस गीत को पिप्पा में रिमेक किया है। काजी नजरूल के परिवार की एक महिला सदस्य सोनाली काजी और इलाके के लोगों का कहना है कि रहमान ने इस गाने को न सिर्फ पूरी तरह तोड़-मरोड़ दिया, इसमें बांग्ला भाषा का सही उच्चारण नहीं किया गया। कवि के मूल गीत से इस विद्रोही गाने की सुर और लय नहीं मिल रही। सोनाली काजी की मानें तो एआर रहमान पर विद्रोही कवि के द्वारा लिखे गए गाने को तोड़-मरोड़कर सारे सुर-ताल बिगाड़ते हुए लोगों के दिलों को ठेस पहुंचाई है। विद्रोही कवि का अपमान करने और लोगाें की भावनाएं आहत करने के मामले में गायक एआर रहमान को भूल सुधारनी चाहिए।
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