Electoral Bonds Scheme Hearing: मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की एक संविधान पीठ ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। शीर्ष अदालत में इस मामले को लेकर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग का रुख अलग-अलग है। केंद्र सरकार चाहती है कि सरकार को चंदा देने वालों के नामों का खुलासा न हो। वहीं चुनाव आयोग चंदा देने वालों के नामों का खुलासा करने के पक्ष में है। आयोग ऐसा पारदर्शिता के लिए चाहता है। याचिका दाखिल करने वालों का कहना है कि इसके तहत राजनीतिक दलों को 12 हजार करोड़ से ज्यादा की फंडिंग हो चुकी है, लेकिन यह पता नहीं चल पाया है कि यह कहां से हुई। अब सवाल है कि यह इलेक्टोरल बॉन्ड होता क्या है और इसे क्यों और कैसे जारी किया जाता है? इसे कौन खरीद सकता है?
इलेक्टोरल बॉन्ड वह माध्यम है जिसके तहर राजनीतिक दलों को चंदा मिलता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक जो लोग भी इस बॉन्ड के जरिए चंदा देते हैं उनकी डिटेल उपलब्ध नहीं कराई जाती है। यानी इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले लोगों या संगठनों को आम जनता या जिन्हें दान मिलता है उन राजनीतिक दलों अपनी पहचान बताने की जरूरत नहीं होती है। इसके तहत 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, 1 लाख रुपए, 10 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए के बॉन्ड जारी किए जाते हैं। यह बॉन्ड भारतीय स्टेट बैंक (SBI) जारी करता है। जिन लोगों को भी पार्टियों को दान करना है वे बॉन्ड खरीदकर कर सकते हैं। इसके लिए दान देने वाले का बैंक में अकाउंट होना चाहिए।
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सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से किया था इनकार
यह बॉन्ड जारी होने की तारीख से 15 दिनों के लिए ही वैध रहता है। 15 दिनों के दौरान इसका कैश में बदलना जरूरी है नहीं तो पैसा प्रधानमंत्री कोष में चला जाता है। इलक्टोरल बॉन्ड को डिजिटली या चेक के माध्यम से खरीदा जा सकता है। चुनावी बॉन्ड का सिस्टम साल 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया गया था और इसे साल 2018 में लागू कर दिया गया। चुनावी बॉन्ड को भारत का कोई भी नागरिक खरीद सकता है। कोई पार्टी चुनावी बॉन्ड तभी प्राप्त कर सकती है जब वह रजिस्टर्ड हो और उसे पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट मिला हो। बता दें कि इसके पहले 2019 में सुप्रीम कोर्ट चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।
राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की पहल
इलेक्टोरल बॉन्ड का फायदा यह हुआ कि इसके पैसे के इस्तेमाल को लेकर पारदर्शिता बढ़ी है, साथ ही इससे नकद लेन-देन पर रोक लगाने की कोशिश बताया गया। इसमें दान देने वाले का नाम नहीं बताया जाता है, जिससे किसी को पता नहीं चलता कि किसने पैसे दान किए और किस पार्टी को दान किए। वहीं कहा जाता है कि इससे कालेधन का इस्तेमाल बढ़ेगा। 2018 में बीजेपी की सरकार ने इसे नकद दान के विकल्प के तौर पर पेश किया था। इसे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की पहल बताया गया था।
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