Bharat Ek Soch : प्रयागराज में एक अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय दिव्य-भव्य लोक बसा हुआ है, जिसमें परंपरा है, अध्यात्म है, आधुनिकता है। प्रयागराज में संगम किनारे बसा अस्थायी अलौकिक संसार चमक-दमक और पूरी दुनिया के श्रद्धालुओं को अपनी ओर सम्मोहित कर रहा है। महाकुंभ में करीब 40 करोड़ से अधिक लोगों के पहुंचने का अनुमान है। भारत की सनातन परंपरा में महाकुंभ का दर्शनशास्त्र यानी Philosophy क्या रही है? महाकुंभ किस तरह अमृत तत्व हासिल करने का दुनिया का सबसे बड़ा मंच रहा है? महाकुंभ में साधु-संत और गृहस्थों का जमावड़ा किस तरह भारत की एकता के एजेंडे को आगे बढ़ाता रहा है? भारतीयों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने वाले महाकुंभ की शुरुआत आखिर कब से हुई? संगम में स्नान से मोक्ष की सोच को किस घटना ने आगे बढ़ाया?
साधु-संन्यासी एक खास समय पवित्र नदियों के किनारे किस तरह जमा होते रहे? जंगल और गुफाओं में रहने वाले साधु-संन्यासियों को कैसे पता चलता था कि महाकुंभ इस तारीख से शुरू होने वाला है? भारत के किस कालखंड में महाकुंभ की परंपरा को चमकदार पहचान मिली? पौराणिक कथाएं और प्राचीन ग्रंथ महाकुंभ को किस तरह देखते रहे हैं? महाकुंभ में शाही स्नान की एंट्री किस तरह हुई? मुगलों के दौर में महाकुंभ की भव्यता बढ़ी या घटी? अंग्रेजों ने महाकुंभ के आयोजन में कितनी दिलचस्पी दिखाई? एक दौर ऐसा भी था, जब महाकुंभ में पहुंचने वाले हर तीर्थयात्री को टैक्स चुकाना होता था? आजादी के बाद महाकुंभ के आयोजन में सरकारों ने किस तरह दिलचस्पी दिखाई?
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श्वेत-श्याम नदियों के संगम पर स्नान करते हैं श्रद्धालु
पहला महाकुंभ कब लगा होगा? इसका आयोजन किस तरह हुआ होगा। इस सवाल का जवाब इतिहासकार लंबे समय से खोज रहे हैं। कोई महाकुंभ के इतिहास को दो हजार साल पुराना बताता है तो कोई इसे आदि शंकराचार्य के दौर से जोड़ कर देखने की कोशिश करता है। भगवद पुराण में देवता और असुरों के बीच समुद्र मंथन का जिक्र है। अमृत के लिए छीना-छपटी और भागा-भागी का जिक्र है। इसमें धरती पर चार जगहों पर कलश से अमृत की बूंदें छलकने का जिक्र है, जहां महाकुंभ का आयोजन होता है। लेकिन, दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के 10वें मंडल की एक ऋचा में कहा गया है- जो लोग श्वेत और श्याम नदियों के संगम पर स्नान करते हैं- वो स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, जो धीर प्राणी उस जगह अपने नश्वर शरीर का त्याग करते हैं- उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रयागराज के संगम में एक ओर से श्वेत गंगा की धारा आती है तो दूसरी ओर से यमुना की श्याम धारा आती है। श्वेत और श्याम धाराओं का मिलन प्रयागराज में संगम पर होता है। क्या ऋग्वेद में इसी श्वेत और श्याम धारा के संगम में डुबकी लगाने से मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है।
संगम में डुबकी लगाने पर मोक्ष की मान्यता
करीब ढाई हजार साल पहले लिखे गए बौद्ध धर्म ग्रंथ मज्झिम निकाय में कहा गया है कि अत्याचारी लोगों को प्रयाग में स्नान के बाद भी मोक्ष नहीं मिल सकता। मतलब, ढाई हजार साल पहले भी संगम में डुबकी लगाने पर मोक्ष की मान्यता थी। इसी तरह मत्स्य पुराण में हर साल माघ में संगम स्नान से मोक्ष की बात गई है तो पद्म पुराण यहां तक कहता है कि संगम के जल के आचमन से ही मोक्ष मिल जाता है। ऐसे में मोक्ष, पुण्य, अमृत तत्व हासिल करने की लालसा लोगों को महाकुंभ में संगम किनारे लाती रही है। खास समय पर महाकुंभ के आयोजन में ग्रह और राशियों की स्थिति को आगे रखा गया, जिससे महाकुंभ और कुंभ का समय तय होता रहा है।
12 साल पर लगता है महाकुंभ
सातवीं शताब्दी में भारत की यात्रा पर आए चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां की परंपराओं पर फिदा थे। ह्वेनसांग ने तब भारत में ज्ञान के बड़े केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय का भी जिक्र किया और संगम पर स्नान का भी। एक किताब है- Buddhist Records of the Western World… इस किताब में ह्वेनसांग के हवाले से लिखा गया है कि कन्नौज के राजा हर्षवर्धन हर पांच साल में एक बार प्रयागराज में संगम पर माघ महीने में अपनी संपत्ति दान करते थे। संभवत:, प्रयागराज में हर 6 साल पर अर्धकुंभ और 12 साल पर महाकुंभ लगता है। ह्वेनसांग करीब 15 वर्षों तक भारत रहे।
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अकबर ने भी कुंभ के महत्व को समझा
ऐसे में माना जाता है कि प्रयागराज में संगम पर राजा हर्षवर्धन की संपत्ति दान का जिक्र उसने अर्धकुंभ और महाकुंभ में किया होगा। आदि शंकराचार्य ने अखाड़ों की शुरुआत की। उस दौर में कुंभ को भव्यता मिली। गृहस्थों के बीच कुंभ में अमृत तत्व हासिल करने के विचार को विस्तार मिला। इसी तरह मुगलों में अकबर ने भारतीय परंपरा में प्रयाग और कुंभ के महत्व को गहराई से समझा, इसीलिए कड़ा यानी आज के प्रयाग को अपनी सल्तनत का सूबा बनाया। वहां शहर बसाया। अकबर ने महाकुंभ के आयोजन में भी दिलचस्पी दिखाई और इसके लिए खास अफसर भी नियुक्त किए, जिन्हें कुंभ के दौरान घाटों के निर्माण से लेकर साफ-सफाई की जिम्मेदारी सौंपी गई। इतिहासकारों का एक वर्ग ये भी मानता है कि प्रयागराज में कुंभ के आयोजन पर शाही खजाने से जितना खर्च हुआ, उससे डबल से अधिक आमदनी हुई।
अंग्रेजों ने तीर्थयात्रियों पर लगाया था टैक्स
अंग्रेजों ने भी भारतीय जनमानस के बीच महाकुंभ मेले के महत्व को गंभीरता से समझा। इतना ही नहीं कमाई के एक मौके के रूप में भी देखा। कुंभ सिटी प्रयाग नाम की एक किताब है, जिसे लिखा है एसके दुबे ने। इस किताब में एक चैप्टर है Kumbh In 1822, इसमें एक पर्शियन स्कॉलर के हवाले से लिखा गया है कि 1822 का कुंभ बहुत फीका था। कुछ खास इंतजाम नहीं किया गया था। अंग्रेजों ने कुंभ आने वाले तीर्थयात्रियों पर एक रुपये, चार आना का टैक्स लगा दिया था। बिना टैक्स दिए डुबकी लगाना असंभव जैसा था। तब एक रुपये में एक सामान्य परिवार का महीना भर का राशन आ जाता था। कुंभ तीर्थयात्रियों पर टैक्स सिस्टम का कड़ा विरोध हुआ। साल 1828 के हरिद्वार कुंभ के बेहतर आयोजन के लिए तब के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम्स बेंटिक ने एक हजार रुपये दिए, लेकिन अंग्रेजों के लिए कुंभ किसी आश्चर्य से कम नहीं रहा। वो समझ नहीं पाते थे कि बिना किसी आमंत्रण-निमंत्रण या सूचना तंत्र के इतनी भारी संख्या में साधु-संन्यासी आखिर तय जगह पर तय तिथियों के जमा कैसे हो जाते हैं? दरअसल, कुंभ में गरीब-अमीर, राजा-साहूकार सब पहुंचते थे। ऐसे में अंग्रेजों के लिए कुंभ कारोबार का एक मौका लेकर भी आता था। लेकिन, तब कुंभ में कारोबार का दायरा शायद बहुत सीमित रहा होगा। 1857 की क्रांति के बाद कुंभ को लेकर अंग्रेज बहुत सतर्क हो गए, उन्हें डर सताता रहता था कि कहीं कुंभ से क्रांति की ज्वाला न भड़क जाए। हालांकि, इतिहासकारों के एक वर्ग का दावा है कि अकबर के शासनकाल में कुंभ मेले से लगान वसूलने की शुरुआत हुई। बाद में हिंदुओं की मांग पर कुंभ में वसूला जाने वाला टैक्स अकबर द्वारा ही खत्म करने की बात भी सामने आती है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया कल्पवास
एक रिकॉर्ड के मुताबिक, 1882 के प्रयाग कुंभ में अंग्रेजों ने खर्च तो किए करीब 20 हजार रुपये, लेकिन कमाई की करीब 50 हजार रुपये की। बाद में कुंभ की जिम्मेदारी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को दी जाने लगी। कुंभ के आयोजन से जुड़े इंतजाम और भीड़ को संभालने के लिए खास अफसरों की तैनाती होने लगी। आजादी की लड़ाई के दौरान कुंभ स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मेल-मुलाकात और लोगों को अपने साथ जोड़ने का जरिया बना। समय के प्रवाह के साथ कुंभ भी आगे बढ़ता रहा और भारत ने अंग्रेजों से आजादी हासिल की। आजाद भारत में पहले महाकुंभ का आयोजन साल 1954 में प्रयागराज में हुआ, जिसमें तब के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कल्पवास किया, तब के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी कुंभ मेला में पहुंचे। समय के साथ होते बदलावों को स्वीकार करते हुए महाकुंभ देश की एकता के एजेंडा को आगे बढ़ता रहा है।
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लोगों से शक्तियां लेती हैं सरकारें
भारत के संविधान की प्रस्तावना शुरू होती हम भारत के लोगों से, हमारे देश में कोई भी चुनी हुई सरकार लोगों से ही शक्तियां लेती है और लोगों के कल्याण के लिए ही काम करना उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। लेकिन जरा सोचिए, सनातन परंपरा और महाकुंभ का दर्शन क्या है? हर आदमी के वजूद, समझ और तौर-तरीके का सम्मान। बिना किसी बाहरी दबाव के खुद को अनुशासित करने का फलसफा, किसी से कुछ लेने की ख्वाहिश की जगह अपने सामर्थ्य के हिसाब से दूसरों के लिए कुछ करने की सोच। बिना किसी पुरानी चीज का विरोध किए नई चीज को स्वीकार करना, चाहे वो भौतिक हो या फिर ज्ञान की धारा। चाहे परंपरा हो या आधुनिकता। यही सोच तो भारत की आत्मा और एकता की प्राणवायु रही है, जिसे कुंभ और महाकुंभ जैसे महामंच ने सदैव आगे बढ़ाया है। भले ही कालचक्र के हिसाब से महाकुंभ के भौतिक स्वरूप में बदलाव आता रहा हो, लेकिन आत्मा आज भी वही है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।