Bharat Ek Soch: संसद के शीतकालीन सत्र 2024 से इस बार जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं, संभवत: उन तस्वीरों ने वोटरों के मन में एक सवाल जरूर पैदा कर दिया होगा कि हम सांसद क्यों चुनते हैं? क्या इसलिए कि संसद में जाकर उनके चुने हुए प्रतिनिधि हंगामा करें, धक्का-मुक्की करें? गुरुवार को संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन के दौरान जाने-अनजाने ऐसा हंगामा हुआ कि धक्का-मुक्की की बातें सामने आईं। 2 सांसदों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। जो सांसद कानून बनाते हैं, वही एक-दूसरे के खिलाफ रपट लिखवाने थाने पहुंच गए। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ FIR भी दर्ज कराई गई।
संसद के इतिहास में 19 दिसंबर 2024 को काला दिन बताया जा रहा है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद चलेगी? क्या हमारे सांसदों की सहनशक्ति या सुनने की क्षमता दिनों-दिन कम होती जा रही है? क्या हमारे माननीय सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप करते हुए एक-दूसरे को घेरने में सारी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं? क्या सत्ता पक्ष-विपक्ष का मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना रह गया है? आखिर संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी है-सत्ता पक्ष की या विपक्ष की? संसद में गंभीर मुद्दों पर सार्थक चर्चा कम क्यों होती जा रही है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं?
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सांसदों के मतभेद अब बदलने लगे मनभेद में
पिछले साढ़े 3 दशक से अधिक की पत्रकारिता में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच खींचतान, संघर्ष और संवाद को करीब से देखा, सुना और महसूस किया है। संसद की पुरानी बिल्डिंग में सदन के भीतर किसी मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष को एक-दूसरे को घेरते और थोड़ी देर बाद कैंटीन में हंसी-मजाक करते और ठहाका लगाते भी देखा। कई संसदीय कार्य मंत्री को सत्ता पक्ष से अधिक विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ उठते-बैठते देखा है। साल 2014 में जब भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आईं और नरेंद्र मोदी पहली बार संसद पहुंचे तो उन्होंने लोकतंत्र के मंदिर की सीढ़ियों पर झुक कर नमन किया।
तब ऐसा लगा कि संसद के भीतर शोर-शराबा, हो-हल्ला, हंगामा और बॉयकॉट की जगह कामकाज की रफ्तार बढ़ेगी। पक्ष-विपक्ष मिलकर इस तरह काम करेंगे, जिससे संसद में नई सकारात्मक कार्य-संस्कृति विकसित होगी, लेकिन अब संसद के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दूरियां लगातार बढ़ रही हैं। मुद्दों पर मतभेद अब मनभेद में बदलता दिख रहा है। विरोध-प्रदर्शन और बहिष्कार से निकलकर बात धक्का-मुक्की तक जाने लगी है। इसकी एक तस्वीर 19 दिसंबर 2024 को संसद परिसर में लाइव देखने को मिली। माननीयों ने एक-दूसरे पर धक्का-मुक्की का आरोप लगाया। भाजपा के 2 सांसद प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत घायल हो गए। ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि संसद में अब किस तरह की धक्का-मार पॉलिटिक्स चल रही है?
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राजनीतिक सहयोगी दुश्मन की तरह देखे जा रहे
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई, जो 20 दिसंबर तक चली। 26 दिन में संसद के दोनों सदनों में करीब 105 घंटे काम हुआ। खुद शीतकालीन सत्र के कामकाज का लेखा-जोखा देते हुए संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने बताया कि लोकसभा में 54.5 फीसदी काम हुआ तो राज्यसभा में करीब 40 फीसदी काम हुआ। आखिर संसद में इतना कम काम क्यों हुआ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी है- सत्ता पक्ष की या विपक्ष की। संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर करीब ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं। इस हिसाब से एक घंटे में ही जनता के खून-पसीने के करीब डेढ़ करोड़ रुपये स्वाहा हो जाते हैं।
संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका को संसदीय लोकतंत्र की गाड़ी के 2 पहियों की तरह देखा। दोनों की भूमिका को लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी माना, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राजनीतिक सहयोगियों को शत्रु की तरह देखने की प्रवृति हावी होती जा रही है। कोई पक्ष पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। सत्ता पक्ष को शायद लग रहा है कि हमारे पास बहुमत है तो अपने तरीके से फैसला लेंगे। विपक्ष की परवाह क्यों करें? विपक्ष को लगता है कि हम सत्ता पक्ष की चिंता क्यों करें? अपने मुद्दों पर नरम रुख क्यों अपनाएं? ऐसे में संसद उस तरह से नहीं चल पा रही है, जिस तरह से चलने की उम्मीद एक अरब चालीस करोड़ लोग करते हैं।
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संविधान के 75 नहीं, इमरजेंसी के 49 साल पर चर्चा
संसद में संविधान की 75 वर्षों की गौरवशाली यात्रा पर बहस हुई, लेकिन उस बहस का लब्बोलुआब क्या निकला? लोकसभा में 15 घंटे 43 मिनट और राज्यसभा में 17 घंटा 41 मिनट तक सांसदों ने अपनी राय रखी। संसद में बहुत सार्थक बहस का मौका पक्ष-विपक्ष दोनों के पास मौका था, लेकिन दोनों पक्षों के ज्यादातर सदस्य अटैक इज बेस्ट डिफेंस वाली रणनीति के साथ चर्चा को आगे बढ़ाते रहे। बहस के दौरान कई बार ऐसा लग रहा था कि चर्चा संविधान के 75 साल पर नहीं इमरजेंसी के 49 साल पर हो रही हो। कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री मोदी के प्रधान सचिव रहे नृपेंद्र मिश्रा का इंटरव्यू कर रही थी। उसी 3 मूर्ति भवन में, जो कभी पंडित नेहरू का बतौर प्रधानमंत्री आवास हुआ करता था। उसी 3 मूर्ति भवन में प्रधानमंत्री संग्रहालय बना है।
नृपेंद्र मिश्र ने बताया कि जब उन्हें प्रधानमंत्री संग्रहालय बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई, तब प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे एक ही बात कही थी कि इसमें जरा भी नेगेटिविटी नहीं दिखनी चाहिए। आजाद भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के कामों का सकारात्मक पक्ष दुनिया के सामने आना चाहिए। ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि जब पूर्व प्रधानमंत्रियों के भारत निर्माण में योगदान को लेकर प्रधानमंत्री मोदी इतनी खुली सोच रखते हैं तो फिर संसद से सड़क तक पक्ष-विपक्ष के बीच इतना अविश्वास, इतनी कटुता क्यों? हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यहां की संसदीय परंपराओं में मानी जाती है, जिसमें विपक्ष को रौंदने वाली सोच नहीं, बल्कि विपक्ष को सहयोगी के रूप में देखने की परंपरा रही है। विरोधी पार्टी के नेताओं के साथ संवाद में लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती और लोगों का ज्यादा से ज्यादा भला देखा जाता रहा है।
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आज दोनों पक्षों में संवाद की बेहतरीन कड़ियों का अकाल
संसद चलाने की जिम्मेदारी जितनी सत्ता पक्ष की है, उतनी ही विपक्ष की भी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को शक्तियां ससद से मिलती हैं। सोशल मीडिया की वजह से भी राजनीतिक दलों पर दबाव कई गुना बढ़ा है। सोशल मीडिया पर अपने प्रशंसकों को खुश करने के चक्कर में या लोगों की वाहवाही के लिए कई बार शब्दों की लक्ष्मण रेखा पार होती दिखती है। आज की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवाद की कड़ियां जोड़ने वाले नेताओं का अकाल पड़ गया है। दोनों ओर ऐसे नेताओं की भारी कमी है, जो बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाने में एक असरदार कड़ी की भूमिका निभा सकें।
पहले भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी, कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत, प्रणब मुखर्जी, अहमद पटेल, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे नेता थे, जिनके सभी पार्टियों के नेताओं से बेहतर ताल्लुकात थे। अब दोनों पक्षों में ऐसा कोई नेता दिख भी नहीं रहा, जिसकी पैठ सभी दलों में हो। जो ईमानदारी से संवाद की टूटी कड़ियां चाय, लंच या डिनर के बहाने जोड़ने की कोशिश करे। ऐसे में जब हमारी संसद का ज्यादातर समय हंगामे की भेंट चढ़ रहा है., तब यह समझना जरूरी है कि आजादी के बाद किन संसदीय परंपराओं के साथ पक्ष-विपक्ष मिलकर भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को सींचते रहे।
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सत्तापक्ष और विपक्ष को मिलकर बदलनी होगी संसद की तस्वीर
इतिहास गवाह रहा है कि अगर प्रचंड बहुमत से लैस इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी सत्ता में रहते हुए बड़े और कड़े फैसले लिए तो गठबंधन की सरकार चलाते हुए नरसिम्हा राव ने भी उदारीकरण जैसा फैसला लेने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई। गठबंधन सरकार चलाते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु परीक्षण का फैसला लिया था। मनमोहन सिंह ने गठबंधन सरकार में रहते हुए ही अमेरिका के साथ परमाणु करार पर दस्तखत किए थे।
वह भी भारत के संसदीय लोकतंत्र का ही दौर था, जब नरसिम्हा राव ने कश्मीर मुद्दे पर भारत का पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को शामिल किया था। एक दौर वो भी था, जब गंभीर मसलों पर पब्लिक के बीच जाने से पहले विपक्षी नेताओं से सलाह-मशविरा किया जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भारतीय लोकतंत्र को सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से परिभाषित किया है।
भारत जैसे विशालकाय लोकतांत्रिक देश में विपक्ष की भूमिका भी बहुत जिम्मेदारी का काम है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का काम है, सरकार के फैसले में कमियां निकालना और लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाना तो सत्ता पक्ष का काम है विपक्ष को साधते हुए संसद चलाना, आगे बढ़ना। ऐसे में जब हम 2047 तक विकसित भारत के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को गंभीरता से सोचना चाहिए कि ऐसा कौन-सा रास्ता निकाला जाए, जिससे एक-दूसरे पर तीखे कटाक्ष और मतभेद को मनभेद में बदलने वाली मानसिक जकड़न से आजादी मिले। संसद में जनता से जुड़े मुद्दों पर खुलकर बहस हो। एक-दूसरे को जड़ से मिटाने की जगह लोगों की बेहतरी के लिए दमदार भूमिका निभाने वाली सोच को बढ़ावा मिले।