---विज्ञापन---

अयोध्या विवाद में कैसे दर्ज हुआ पहला मुकदमा, आधी रात को मूर्तियों के प्रकट होने की क्या है कहानी?

Bharat Ek Soch: अंग्रेजों के दौर में अयोध्या में पहली बार शुरू हुई मंदिर-मस्जिद की तकरार का कितना गहरा असर हुआ, आइए जानते हैं...

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Jan 13, 2024 21:07
Share :
news 24 editor in chief anuradha prasad special show on ayodhya sri ram temple
भारत एक सोच

Bharat Ek Soch: देशभर में ऐसी रामधुन चल रही है कि कहीं अयोध्या से आए अक्षत बांटे जा रहे हैं, तो कोई अयोध्या मंदिर का कार्ड बांट रहा है। कोई दोनों हाथ जोड़कर लोगों से अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम वाले दिन यानी 22 जनवरी को घर में दीपावली की तरह दीया जलाने की अपील कर रहा है। सभी अपने-अपने तरीके से राम की व्याख्या कर रहे हैं। राम तत्व के मायने निकाल रहे हैं, लेकिन एक सवाल ये उठता है कि आज के हुक्मरानों यानी नेताओं के लिए श्रीराम कौनसा संदेश छोड़ गए हैं।

आधुनिक लोकतंत्र में श्रीराम किस तरह पहले से ज्यादा प्रासंगिक हैं। श्रीराम कभी भी आसान रास्ता नहीं चुनते हैं, वो अपने साथ समाज के वंचितों, सत्ता पक्ष द्वारा ठुकराए गए लोगों को लेकर साथ चलते हैं और अपने दौर में अहंकार और अत्याचार के प्रतीक शक्तिशाली रावण की सत्ता को चुनौती देते हैं। ये राम का चरित्र है – जिसमें वो रावण से भी बलवान बाली की जगह सुग्रीव की मदद लेते हैं। लंका से निकाले गए विभीषण को गले लगाते हैं। वो लंका तक पहुंचने के लिए बन रहे सेतु में गिलहरी की भूमिका को भी तवज्जो देते हैं।

ये श्रीराम के चरित्र का बहुत ही उदार पक्ष है, जिसमें वो 14 साल के लिए वनवास पर निकलते हैं तो अपनी राजकुमारों जैसी भेष-भूषा त्याग कर सामान्य लोगों जैसा जीवन जीने का रास्ता चुनते हैं। इसी पथ पर चलते हुए वो समाज में हाशिए पर खड़ी शबरी के जूठे बेर खाते हैं। निषाद राज को मित्र कहते हुए गले लगाते हैं। मतलब, राम व्यवस्था से विस्थापित और कमजोर लोगों के प्रतिनिधि हैं, वो वंचितों के साथ खड़े हैं। सबके प्रयासों की सराहना करते हैं।

ऐसे में श्री राम के चरित्र में हुक्मरानों के लिए बहुत गहरा संदेश छिपा है। दुनिया के नक्शे पर लोकतंत्र में बहुमत की तानाशाही वाली प्रवृति नए सिरे से आकार ले रही है। ऐसे में श्रीराम लोकतंत्रीय व्यवस्था को बहुमत की तानाशाही से दूर रहने और सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास के एजेंडे को आगे बढ़ाने का रास्ता दिखा रहे हैं। अबतक की कहानी में हम आपको बता चुके हैं कि मुगलों के दौर में श्रीराम की नगरी में किस तरह की हलचल और बदलाव की बयार चली। अब आगे की कहानी…

अंग्रेजों के दौर में अयोध्या में पहली बार मंदिर-मस्जिद पर तकरार इस कदर बढ़ी कि जुलाई 1855 में तलवारें खिंच गईं। अयोध्या की पवित्र जमीन खून से लाल हो गई। किसी तरह से हालात को कंट्रोल में किया गया। लेकिन, राम जन्मभूमि को आजाद कराने की आवाज जोर-शोर से उठने लगी। वो साल 1858 का था…महीना नवंबर का। राम मंदिर के लिए पहली लड़ाई लड़ी एक सिख ने, निहंग बाबा फकीर सिंह ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर विवादित इमारत पर कब्जा कर लिया। यज्ञवेदी बनाई, पूजा-पाठ किया, कैंपस और गर्भगृह में मिट्टी का चबूतरा बनाकर भजन-कीर्तन करने लगे। इसका मुकदमा थानेदार शीतल दुबे ने दर्ज कराया।

अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम वाले दिन निहंग बाबा फकीर सिंह के वंशज बाबा हरजीत सिंह रसूलपुर लंगर लगाने की तैयारी में हैं। अयोध्या से निकलते संदेशों में सबने अपना कल्याण देखा है। इतिहास गवाह रहा है कि भारत के सामाजिक ताने-बाने में श्रीराम की अहमियत को अंग्रेज समझ चुके थे। ऐसे में अयोध्या मसले पर अंग्रेज फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे थे। बाबरी ढांचा खड़ा होने के बाद भी हिंदुओं ने सीता रसोई और राम चबूतरे पर पूजा-अर्चना जारी रखी।

ऐसे में जब झगड़ा बढ़ा तो अंग्रेजों ने कंटीली बाड़ लगा कर विवादित जगह को दो हिस्सों में बांट दिया गया, लेकिन भीतर जाने के लिए मुख्य गेट एक ही रहा। टकराव बढ़ता जा रहा था…वो साल था 1885 और महीना जनवरी। प्रचंड ठंड के मौसम में निर्मोही अखाड़े के महंत रघुबर दास ने अयोध्या विवाद में पहला केस फाइल किया। उन्होंने राम चबूतरा पर एक मंडप बनाने की इजाजत मांगी। माहौल में एकाएक गर्मी बढ़ गई। ये भी एक संयोग है कि यही वो साल था- जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। फैजाबाद की जिला अदालत ने महंत रघुबर दास की याचिका खारिज कर दी।

लंबी लड़ाई के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत को अंग्रेजों से आजादी मिल गई, लेकिन अयोध्या का झगड़ा ज्यों का त्यों बना रहा। आजाद भारत में सियासत नया आकार ले रही थी। बात 1948 की है…फैजाबाद विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुए। समाजवादी आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कांग्रेस ने हिंदू संत बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया। तब यूपी की कमान गोविंद वल्लभ पंत के हाथों में थी। इस चुनाव में पहली बार अयोध्या में मंदिर निर्माण अहम मुद्दा बना। तब मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने अपने चुनावी भाषणों में बार-बार कहा कि आचार्य नरेंद्र देव श्रीराम को नहीं मानते।

समाजवाद के झंडाबरदार नरेंद्र देव करीब हजार वोट से चुनाव हार गए और बाबा राघवदास चुनाव जीत ग। हालांकि, जीत के बाद कई मौकों पर बाबा राघव दास ने सार्वजनिक मंचों से माना कि आचार्य नरेंद्र देव उनसे बेहतर उम्मीदवार थे। साल 1948 में ही स्वामी करपात्री महाराज ने रामराज्य परिषद नाम से राजनीतिक दल बनाया। मतलब, आजादी के साथ ही वोटबैंक की राजनीति में अयोध्या का श्रीगणेश हो गया। अयोध्या में मंदिर-मस्जिद झगड़े का टर्निंग प्वाइंट बना साल 1949…जब 22-23 दिसंबर की रात अंधेरे में चमत्कारिक रूप से राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां चबूतरे से बाबरी मस्जिद के अंदर पहुंच गईं।

अयोध्या अध्याय का पन्ना जब भी पलटा जाएगा- उसमें तब के फैजाबाद के जिलाधिकारी के.के. नायर का रोल जरूर पढ़ा जाएगा। महज 21 साल की उम्र में आईसीएस की परीक्षा पास करने वाले इस अफसर का जिक्र जरूर होगा क्योंकि इस अफसर ने अपनी नौकरी को दांव पर लगाते हुए ऊपर के आदेश को नहीं मानते हुए, विवादित स्थल से राम-सीता की मूर्तियों को हटाने से साफ इनकार कर दिया था।

तब बहुत विवाद हुआ। हालांकि बाद में के के नायर ने इस्तीफा दे दिया और राजनीति में उतर गए। वो लोकसभा के लिए भी चुने गए। उनकी पत्नी और यहां तक कि ड्राइवर भी विधानसभा पहुंचे। अक्सर ये सवाल भी उठता रहता है कि अगर के के नायर ने 1949 में विवादित स्थल से राम- सीता की मूर्तियों को हटवा दिया होता तो क्या होता, क्या अयोध्या में राम मंदिर बन पाता?

अयोध्या का मुकदमा और राम के नाम पर राजनीति दोनों साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी और जनसंघ ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया। वो साल था 1977 का, आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई पर आपसी मतभेद और कुर्सी के लिए खींचतान के बीच जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई।

इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद संघ परिवार ने मंथन शुरू किया कि अगले चुनाव से पहले कैसे हिंदुओं को सियासी रूप से एकजुट किया जाए। बात 1981 की है…तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में सामूहिक धर्मान्तरण ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया, 400 दलितों का सरेआम धर्मांतरण हुआ। तब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इंदिरा गांधी थी। इस घटना के बाद 1982 में विश्व हिंदू परिषद ने संस्कृति रक्षा अभियान शुरू किया। जोर-शोर से एकात्मता यात्रा निकाली गई। कहा जाता है कि VHP नेताओं के साथ इंदिरा गांधी की कई गोपनीय बैठकें हुईं और अयोध्या धीरे-धीरे सियासत के केंद्र में आने लगी।

साल 1980 में भारतीय जनसंघ का नया अवतार भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आ चुका था- जिसके नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता थे, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी बीजेपी को शुरुआती दौर में वोट की जमीन पर खास कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। हिंदुत्ववादी ब्रिगेड से जुड़े लोग भी लगातार अपनी मुहिम के साथ लोगों को जोड़ने में लगे थे। 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की उन्हीं के अंगरक्षकों ने गोली-मारकर हत्या कर दी। उसके बाद देश की कमान संभाली युवा, जोश से लबरेज, नई सोच के राजीव गांधी ने।

आम चुनाव में कांग्रेस को प्रचंड जीत मिली, जिसमें विपक्षी किनारे लग गए। हिंदूवादी ब्रिगेड समझ नहीं पा रही थी कि कांग्रेस के खिलाफ सियासत की गाड़ी को किस ईंधन से आगे बढ़ाया जाए। आज बस इतना हीं अयोध्या अध्याय की अगली किस्त में बताएंगे कि कंप्यूटर, विज्ञान और तकनीक की बात करते-करते राजीव गांधी भी क्यों अयोध्या और रामराज्य की बातें करने लगे?

ये भी पढ़ें: मुगलों के आने के बाद कितनी बदली श्रीराम की नगरी, अकबर ने क्यों चलवाईं राम-सीता की तस्वीर वाली मुहरें? 

ये भी पढ़ें: अयोध्या कैसे बनी दुनिया के लोकतंत्र की जननी, किसने रखी सरयू किनारे इसकी बुनियाद? 

ये भी पढ़ें: क्या एटम बम से ज्यादा खतरनाक बन चुका है AI?

ये भी पढ़ें: पूर्व प्रधानमंत्री Indira Gandhi ने कैसे किया ‘भारतीय कूटनीति’ को मजबूत?

ये भी पढ़ें: पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक जीत की राह किसने आसान बनाई?

ये भी पढ़ें: 1971 में प्रधानमंत्री को आर्मी चीफ ने क्यों कहा- अभी नहीं!

ये भी पढ़ें: भारत को एकजुट रखने का संविधान सभा ने कैसे निकाला रास्ता?

First published on: Jan 13, 2024 09:00 PM

Get Breaking News First and Latest Updates from India and around the world on News24. Follow News24 on Facebook, Twitter.

संबंधित खबरें