पूरी दुनिया इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कर रही है कि अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आखिर चाहते क्या हैं? खुद अमेरिकी लोगों के जेहन में लगातार ये बात घूम रही है कि राष्ट्रपति ट्रंप का अगला फैसला क्या होगा? उनके फैसले का असर क्या पड़ेगा? ट्रंप प्रशासन के वन बिग ब्यूटीफुल कानून से फायदा होगा या नुकसान? राष्ट्रपति ट्रंप की टैरिफ डिप्लोमेसी से अमेरिका मजबूत होगा या कमजोर? अमेरिका एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें उसकी ग्लोबल लीडर वाली इमेज का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है। दुनिया के संकटों को सुलझाने में अमेरिका की भूमिका नायक नहीं, खलनायक की बनती जा रही है। अमेरिका की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि, 4 जुलाई को हर अमेरिकी अपने लोकतंत्र पर गर्व करता है।
इस तारीख को अपने स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। अमेरिका को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजाद हुए 249 साल हो चुके हैं।अमेरिका ने दुनिया के कई देशों को आधुनिक लोकतंत्र का रास्ता दिखाया लेकिन, मौजूदा समय में अमेरिकी लोकतंत्र पर सवाल उठ रहे हैं। द न्यूयॉक टाइम्स के एक Columnist हैं- थॉमस एल. फ्रीडमैन, उनकी दलील है कि राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका को अपनी प्राइवेट कंपनी की तरह चला रहे हैं। उनकी मनमानी से हालात बिगड़े हैं। ऐसे में जश्न-ए-आजादी मनाते हुए ज्यादातर अमेरिकियों को एक सवाल सबसे ज्यादा परेशान कर रहा होगा कि उनका लोकतंत्र सुरक्षित है या नहीं? सवाल ये उठ रहा है कि क्या दुनिया के आधुनिक लोकतंत्र की नींव इतनी कमजोर है, जिसे ट्रंप जैसे तुनकमिजाज नेता की राजनीति, महत्वाकांक्षा और कूटनीति हिलाने में सक्षम है? आज आपको बताएंगे कि अमेरिका में आखिर कैसे पड़ी आधुनिक लोकतंत्र की नींव? दुनिया के ज्यादातर देशों को राजशाही और तानाशाही के खिलाफ अमेरिकी लोकतंत्र के रास्ते आगे बढ़ने में क्यों दिखा अपना भविष्य ज्यादा चमकदार? दो विश्व युद्ध को बाद अमेरिका किस तरह बना दुनिया का लीडर? अमेरिका के मौजूदा हुक्मरान अपने मुल्क को ग्लोबल लीडर से डीलर बनाने पर क्यों तुले हैं? आज ऐसे ही सवालों के जवाब अतीत, वर्तमान और भविष्य के आईने में तलाशने की कोशिश करेंगे।
अमेरिका…लीडर या डीलर?
डोनाल्ड ट्रंप का 20 जनवरी, 2029 तक अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर बने रहना तय है। राष्ट्रपति ट्रंप अपने तरीके से अमेरिका को चला रहे हैं। उनका वन बिग ब्यूटीफुल बिल अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में पास हो चुका है और खुद राष्ट्रपति ट्रंप भी इस बिल पर दस्तखत कर चुके हैं यानी वन बिग ब्यूटीफुल बिल अब अमेरिका में कानून बन चुका है। इसके लिए राष्ट्रपति ट्रंप ने बिजनेस टायकून एलन मस्क के साथ दोस्ती की बलि चढ़ा दी। दोनों के बीच रिश्ते इस कदर बिगड़ चुके हैं कि अब अमेरिका में चर्चा ये चल रही है कि क्या एलन मस्क को मुल्क से निकाला जाएगा? दुनिया ने ट्रंप और मस्क के बीच दोस्ती और दरार दोनों देखा है। ट्रंप अपनी शर्तों पर रिश्ता जोड़ते और तोड़ते है। कुछ वैसा ही मिजाज मस्क का भी है। राष्ट्रपति ट्रंप दुनिया में रिश्तों को अपनी दूरबीन से देखने और परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। दुनिया ने देखा कि हाल में अमेरिका ने किस तरह ईरान के परमाणु ठिकानों को नष्ट करने के लिए बमबारी की। ये भी किसी से छिपा नहीं है कि इजरायल के पीछे अमेरिका खड़ा है। वहीं, रूस के खिलाफ जंग में यूक्रेन की मदद भी अमेरिका ही कर रहा है। एक तरफ अमेरिका जंग को पीछे से हवा दे रहा है तो दूसरी ओर हथियारों की डील भी सील हो रही है। ऐसे में सबसे पहले ये समझते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप के दौर में अमेरिकी लोकतंत्र को दुनिया किस तरह से देख रही है।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दस्तखत के साथ ही वन बिग ब्यूटीफुल बिल अमेरिका में कानून बन गया। इससे ट्रंप प्रशासन की कई अहम नीतियों को कानूनी ताकत मिल गई। जिसमें बड़ी संख्या में प्रवासियों को वापस भेजना, सेना और बॉर्डर सिक्योरिटी पर ज्यादा खर्च, पहले कार्यकाल की टैक्स छूट को आगे बढ़ाना, टिप्स और ओवरटाइम पर टैक्स नहीं जैसे प्रावधान है ।
राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले का प्रभाव
राष्ट्रपति ट्रंप वन बिग ब्यूटीफुल कानून को अमेरिका के नए स्वर्ण युग की शुरुआत बता रहे हैं लेकिन, माना जा रहा है कि इस कानून के प्रावधानों की वजह से अगले कुछ वर्षों में अमेरिका के 1.2 करोड़ लोग बीमा से वंचित हो सकते हैं। वहां के अधिक गरीब 30% लोगों की हालत और खराब होने की भविष्यवाणी की जा रही है। प्रवासी नागरिकों की परेशानियां भी बढ़नी तय है। राष्ट्रपति ट्रंप के वन बिग ब्यूटीफुल बिल को पहले ही उनके करीबी रहे एलन मस्क पागलपन से भरा और विनाशकारी कदम बता चुके हैं । अब ट्रंप और मस्क की राहें जुदा हैं। एक बड़ा सच ये भी है कि ट्रंप अमेरिका को जिस तरह से चला रहे हैं- उसमें वहां रहने वाले हर दूसरे अमेरिकी को नौकरी जाने या छंटनी का डर सता रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल जनवरी से मई के बीच 7 लाख लोगों की नौकरियां गईं, 46% कर्मचारी छंटनी की आशंका से टेंशन में हैं, नौकरी बचाने के लिए कर्मचारी ज्यादा काम कर रहे हैं, जनवरी से अबतक फेडरल सरकार ने 59,000 नौकरियां घटाई है ।
एक अनुमान के मुताबिक ट्रंप जिस रास्ते आगे बढ़ रहे हैं, उसमें अमेरिका का कुल कर्ज 37 ट्रिलियन डॉलर से बढ़कर अगले दशक तक 40 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनी दूसरी पारी में जिस तरह दूसरे देशों पर टैरिफ बढ़ाया…उसका साइड इफेक्ट भी सामान्य अमेरिकी लोगों को झेलना पड़ रहा है।
टैक्स को लेकर भी घमासान
दूसरी पारी में डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी टैरिफ डिप्लोमेसी के जरिए पूरी दुनिया में खलबली मचा रखी है। उनकी दलील है कि जो देश जितना टैक्स वसूलता है, उससे उतनी ही इंपोर्ट ड्यूटी ली जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में सालाना 4 बिलियन डॉलर के सामान का इंपोर्ट होता है। जिसमें 15.6% मेक्सिको और 12.6% कनाडा से इंपोर्ट होता है। चाइना से 13.5% सामान अमेरिका में इंपोर्ट होता है। मेक्सिको, कनाडा और चीन मिलकर अमेरिका में करीब 42% सामान इंपोर्ट करते हैं। यूरोपीय यूनियन से भी अमेरिका में 16% इंपोर्ट होता है।
राष्ट्रपति ट्रंप पहले भारी-भरकम टैरिफ का ऐलान कर डेडलाइन आगे बढ़ रहे हैं और ज्यादातर बड़े देशों के साथ टैरिफ रेट को लेकर सौदेबाजी कर रहे हैं। भारत और अमेरिका के बीच भी ट्रेड डील को लेकर लगातार बातचीत चल रही है। ये राष्ट्रपति ट्रंप का सौदेबाजी का स्टाइल है – जिसमें एक ओर उनके प्रतिनिधि बातचीत की मेज पर बैठते हैं। दूसरी ओर अमेरिकी रिपब्लिकन सीनेटर लिंडसे ग्राहम रूसी तेल खरीदने वाले देशों पर 500% टैरिफ लगाने की बात कहते हैं।
सरहद की दीवारों को ऊंचा बनाने में लगे ट्रंप
राष्ट्रपति ट्रंप लगातार अमेरिका में सरहद की दीवारों को ऊंचा बनाने में लगे हैं। एक ओर जहां बाहरियों की एंट्री कम करने के रास्ते निकाले जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अमेरिका में रह रहे अवैध प्रवासियों को पकड़कर आतंकियों की तरह वापस लौटाया जा रहा है। आज की तारीख में अमेरिकी लोकतंत्र पहले की तरह उदार और समावेशी नहीं रहा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह की कूटनीति कर रहे हैं – उसका ट्रेलर ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के दौरान भी दिखा, ईरान और इजरायल के बीच टेंशन के दौरान भी दिखा, अमेरिकी लड़ाकू विमानों ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर बमबारी की, इजरायल और हमास के बीच जारी जंग के बीच भी दिखा, रूस-यूक्रेन के बीच जारी युद्ध में भी अमेरिका की भूमिका किसी से छिपी नहीं है ।
आज का अमेरिका दुनिया की हर आपदा में अवसर तलाश रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप दुनिया के ज्यादातर झगड़ों में खुद को दारोगा की तरह पेश करने की कोशिश करते दिखते हैं। आज का अमेरिका कूटनीतिक रिश्तों को नए तरीके से परिभाषित कर रहा है। ट्रेड से लेकर हथियारों की डील के लिए स्क्रिप्ट तैयार की जा रही है।
किन वजहों से चर्चा में हैं राष्ट्रपति ट्रंप?
डोनाल्ड ट्रंप दूसरी पारी में जब से राष्ट्रपति बने हैं, वो सबसे अधिक तीन वजहों से चर्चा में है। एक, टैरिफ और डील, दूसरा अपने फैसलों से यू-टर्न और तीसरा दूसरे मुल्कों के बीच टेंशन और युद्ध की स्थिति में सीजफायर कराने का दावा। भारत और अमेरिका के बीच भी ट्रेड डील पर बातचीत चल रही है। भीतरखाने खबर है कि 9 जुलाई तक भारत और अमेरिका के बीच मिनी ट्रेड डील सील हो सकती है। राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ को जिस तरह सौदेबाजी के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। उसे कूटनीति के जानकार टैरिफ टेररिज्म का नाम भी देते हैं। अमेरिकी लोग भी भीतरखाने ट्रंप की नीतियों से परेशान हैं। लेकिन, एक बड़ी सच्चाई यही है कि अगले साढ़े तीन साल तक अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी पर डोनाल्ड ट्रंप ही रहेंगे। वैसे तो अमेरिकी संविधान में राष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग की व्यवस्था है लेकिन, इतिहास गवाह है कि अब तक किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को महाभियोग के जरिए नहीं हटाया जा सका है। अमेरिकी लोकतंत्र में सत्ता दो दलों यानी रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच परिक्रमा करती रहती है। इन दोनों दलों से इतर किसी तीसरे दल के लिए अमेरिकी लोकतंत्र में सत्ता हासिल करना नामुमकिन जैसा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एलन मस्क जैसे दिग्गज कारोबारी अमेरिका में रिपब्लिकन या डेमोक्रेट से इतर कोई तीसरा विकल्प खड़ा कर पाएंगे ?
डोनाल्ड ट्रंप और एलन मस्क
अमेरिका जब अपन 249वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, ठीक उसी दिन बिजनेस टायकून एलन मस्क ने अपने X एकाउंट पर लोगों के सामने एक सवाल छोड़ा- It’s time to launch the Amrican Party ! मतलब, एलन मस्क ने अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर नई पार्टी बनाने के विचार को हवा दे दी। दरअसल, मस्क द्वारा नई पार्टी बनाने की सोच के पीछे राष्ट्रपति ट्रंप के नए कानून One Big Beautifull Bill को माना जा रहा है। मस्क पहले ही इस बिल की खुलकर आलोचना कर चुके हैं। इसी से दोनों की दोस्ती टूटी। बात इस हद तक बिगड़ी कि राष्ट्रपति ट्रंप ने मस्क की कंपनियों के मिलने वाली सब्सिडी खत्म करने और उनकी इमिग्रेशन स्थिति की जांच की धमकी तक दी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ट्रंप और मस्क की लड़ाई के बीच अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट से इतर किसी तीसरे राजनीतिक विकल्प के लिए संभावना है?
अमेरिका में दो बड़े राजनीतिक दल हैं – रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी है। करीब पौने दो सौ साल से सत्ता इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच आती-जाती रही है। अमेरिकी संविधान दूसरी पार्टियों को भी इजाजत देता है। इन दोनों पार्टियों से इतर वहां लिबरेटियन पार्टी, ग्रीन पार्टी, कॉन्स्टिट्यूशन पार्टी, अलायंस जैसी पार्टियां भी हैं। लेकिन, रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी की जगह कोई दूसरी पार्टी नहीं ले पायी। इसके लिए कुछ हद तक अमेरिका का राजनीतिक ताना-बाना भी जिम्मेदार है। तीसरे पक्ष को बैलेट में जगह पाने के लिए कड़े नियम और प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। वोटर अपना वोट बर्बाद करने की जगह दोनों बड़ी पार्टियों में से ही किसी एक का चुनाव करना पसंद करते हैं। अमेरिकी चुनाव में खुलकर डॉलर चलता है। ऐसे में बड़ी पार्टियों के लिए चुनाव में फंड जुटाना आसान होता है लेकिन, नए दलों को लिए बहुत मुश्किल। एलन मस्क के लिए फंड जुटाना तो मुश्किल नहीं होगा। लेकिन, अमेरिकी राजनीतिक ताने-बाने में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट का विकल्प बनना आसान नहीं होगा।
अमेरिका में 55 पार्टियां, बैलट पर दर्ज करवा चुकी हैं अपना नाम
जनवरी 2025 तक अमेरिका में 55 ऐसी पार्टियां हैं, जो एक साथ कई राज्यों में बैलट पर अपना नाम दर्ज करवा चुकी हैं। अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर किसी पार्टी को बैलट पर अपना नाम दर्ज करवाने के लिए कम से कम 10 राज्यों में मौजूदगी दर्ज करानी होती है। एलन मस्क भी बहुत जुनूनी शख्स हैं, उन्होंने अपने जुनून और काबलियत के दम पर ही टेस्ला, स्पेसएक्स, स्टारलिंक जैसी कंपनियों को बुलंदी के आसमान पहुंचाया। उनकी गिनती दुनिया के टॉप करोबारियों में होती है। लेकिन, अमेरिका में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की उनकी कोशिश कितनी रंग लाएगी, इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है।
अमेरिका पर बारीक नजर रखने वाले कूटनीति के जानकारों की दलील है कि डोनाल्ड ट्रंप और उपराष्ट्रपति जेडी वेंस जैसे नेताओं की अगुवाई में अमेरिका में एक नए तरह का राष्ट्रवाद उभरा है, जिसमें अमेरिका को ग्लोबल लीडर बनाए रखने की सोच नहीं है। वहां के हुक्मरानों की सोच है कि सिर्फ अमेरिका के राष्ट्रीय हित और प्राथमिकताओं पर फोकस होना चाहिए। भले ही इससे दुनिया के दूसरे देशों या वैश्विक गठबंधनों को नुकसान हो। पूरी दुनिया में उदार लोकतंत्र का चैंपियन समझा जाने वाला अमेरिका आखिर कहां से कहां पहुंच गया? ऐसे में अमेरिका में आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना से लेकर उसके विकास और बदलावों की धारा समझना भी जरूरी है। अमेरिका के मूल निवासियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई के बाद आजादी हासिल की। तब अमेरिकियों का नारा था–प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं। 4 जुलाई 1776 को एक स्वतंत्र राष्ट्र का जन्म हुआ और नाम दिया गया संयुक्त राज्य अमेरिका। आजादी के बाद इस बात पर मंथन शुरू हुआ कि अमेरिका किन मूल्यों और नियमों के साथ आगे बढ़ेगा? इसीलिए, एक ऐसा संविधान तैयार हुआ-जिसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि संविधान को संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों ने तैयार किया है। अमेरिका में हुए बदलावों ने पूरी दुनिया को राजतंत्र से हटकर लोकतंत्र की नई राह दिखाई। दुनिया के नक्शे पर अमेरिका पहला देश बना, जिसका संविधान लिखित था। पहला ऐसा देश बना, जो साम्राज्यवाद को हराकर आजाद हुआ था।
अमेरिका का संविधान
ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी के बाद अमेरिका के सामने चुनौती थी संविधान बनाने की। ऐसा संविधान, जिसमें हर नागरिक अपनी भागीदारी समझे। एक ऐसी साझी व्यवस्था जिसमें राज्यों के भी अधिकार सुरक्षित रहें और एक ऐसी केंद्रीय सत्ता भी रहे, जो अमेरिका को बाहरी हमलों से बचा सके। 1787 में फिलाडेल्फिया में 12 राज्यों के 55 प्रतिनिधियों का सम्मेलन हुआ। जिसकी अध्यक्षता जॉर्ज वाशिगंटन ने की और एक ऐसा लिखित संविधान सामने आया, जिसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि इसे अमेरिकी लोगों ने तैयार किया है। दुनिया के पहले लोकतंत्र के पहले चुनाव के लिए जब मतदान हुआ तो वोटिंग का अधिकार सिर्फ संपत्ति रखने वाले श्वेत पुरुषों को मिला।
अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने अपने राष्ट्रपति को शक्तिमान तो बनाया पर उसकी निरंकुशता पर अंकुश लगाने का इंतजाम भी किया। संविधान में सेपरेशन ऑफ पावर यानी शक्तियों के बंटवारे और चेक्स एंड बैलेंस यानी नियंत्रण और संतुलन को आजमाया। शक्तियों को राष्ट्रपति, संसद और न्यायपालिका में बांट दी गयी। राष्ट्रपति वगैर सीनेट की मंजूरी के कुछ भी नहीं कर सकते हैं और कांग्रेस यानी संसद के बनाए कानून को न्यायपालिका खारिज कर सकती है। ऐसे में अमेरिका को चलाने वाले में अहम भूमिका निभानेवाले तीनों अंग एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते हैं।
अमेरिका ने शासन का जो रास्ता चुना, उसने दुनिया को शासन प्रणाली की नई राह दिखा दी। अमेरिकी क्रांति ने तब के शक्तिशाली इंग्लैंड की चूले हिला दी। इंग्लैंड के हाऊस ऑफ कॉमन्स में राजा के अधिकारों को सीमित करने का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। इंग्लैंड को अपने नजरिए और शासन प्रणाली में बदलाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे के साथ फ्रांस में भी लोगों ने आवाज बुलंद की और निरंकुश राजशाही का खात्मा किया। यूरोप के दूसरे देशों से भी सामंती व्यवस्था की जड़ें उखड़ने लगीं तो लोकप्रिय संप्रभुता के विचार ने आकार लेना शुरू किया। अमेरिका से निकली लोकतंत्र की राह फ्रांस की क्रांति से गुजरते हुए व्यक्ति की अहमियत और गरिमा पर आ गयी। इसमें व्यक्ति के अधिकार अहम हो गए। उन्नीसवीं सदी में लोकतंत्र के लिए होनेवाले संघर्ष में राजनैतिक समानता, आजादी और न्याय की बात जोर-शोर से उठने लगी।
वक्त के साथ समाजवादी व्यवस्था का विचार भी आकार लेना लगा। रूस में जारशाही के खिलाफ क्रांति हुई और साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई। दुनिया दो खांचों में बंट गयी- लोकशाही और समाजवादी। दोनों व्यवस्थाओं के केंद्र में व्यक्ति की गरिमा, उसके अधिकार और न्याय थे। अमेरिका और यूरोप से लोकतंत्र के विस्तार और विकास की जो बयार तेज हुई, उसका असर 20वीं सदी आते-आते एशिया और अफ्रीका के उपनिवेशों में साफ-साफ दिखने लगा। उपनिवेशों में भी आजादी और अधिकार की मांग जोर पकड़ने लगी। वहीं, दूसरी ओर महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई प्रथम विश्वयुद्ध में बदल गयी।
अमेरिका ने हमेशा अलग राह पकड़ने में अपनी भलाई समझी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान दुनिया की ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था War Centric थी। जहां यूरोपीय ताकतें युद्ध के लिए हथियार बनाने और गोला-बारूद जमा करने में अपनी पूरी ताकत झोंके हुई थी। वहीं अमेरिका ने हथियार बनाने की जगह खाने-पीने की चीजों के उत्पादन पर फोकस किया। अनाज के बदले दूसरे देशों से सोना जमा करना शुरू किया।अमेरिका की इस रणनीति ने उसे आर्थिक तौर पर बहुत मजबूत बना दिया। न्यूयार्क में खड़ी स्टैचू ऑफ लिबर्टी दुनियाभर के उपनिवेशों को पहले से ही स्वतंत्रता और समानता के लिए संघर्ष की प्रेरणा दे रही थी। आर्थिक रूप से संपन्न अमेरिका तेजी से अंतरराष्ट्रीय मसलों को सुलझाने में मध्यस्थता भी करने लगा था।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का किरदार
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद league of nations और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद United Nations जैसी संस्थाओं के गठन में भी अमेरिका ने अहम किरदार निभाया, जिसके बाद एशिया के भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, मलेशिया, म्यांमार जैसे मुल्कों को औपनिवेशिक गुलामी से आजादी का रास्ता साफ हुआ। अमेरिका और USSR के बीच होड़ के बीच दुनिया ने लोकतंत्र और साम्यवाद के नाम पर शीत युद्ध भी देखा। अमेरिका ने अपने फायदे के लिए दुनिया के दूसरे हिस्सों में ना तो तानाशाह खड़े करने में देर लगाया और ना ही उन्हें मिट्टी में मिलाने में।
प्रथम विश्व युद्ध ने पूरी दुनिया को तबाही की कगार पर पहुंचा दिया लेकिन, अमेरिका जंग में शामिल मुल्कों को हथियार से लेकर राशन सप्लाई में अहम भूमिका निभाई। अमेरिका दुनिया का इकलौता ऐसा देश था,जिसने विश्वयुद्ध में भी मुनाफा कमाया। यूरोप में फैक्ट्रियों के शटर गिरे और अमेरिकी जमीन पर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां खड़ी होने लगीं। अमेरिका की ताकत में गजब की बढ़ोत्तरी हुई। ऐसे में अमेरिका की समझ में युद्ध का फायदा संभवत: पहली बार आया।
दूसरे विश्वयुद्ध की आहट को भांपते हुए अमेरिका ने हथियारों की बड़ी मंडी भी सजा दी। हथियार बेचकर अमेरिका ने मोटी कमाई की और एक तरह से दुनिया का चौधरी बन गया। उस दौर में दुनिया में दो विचारधाराएं तेजी से फैल रही थीं – पहली लोकतंत्रिक पूंजीवाद, जिसकी अगुवाई अमेरिका कर रहा था। दूसरी, साम्यवाद, जिसकी अगुवाई सोवियत संघ कर रहा था।तेजी से बदलती विश्व व्यवस्था में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए विचारधारा का लबादा ओढ़े अमेरिका और सोवियत रूस दांव पेंच चल रहे थे..जो आगे चलकर कोल्ड वार में तब्दील हो गया।
अमेरिका और USSR के बीच वर्चस्व की लड़ाई में पिस रहे थे- छोटे-छोटे देश। दुनिया में तेल की बढ़ती मांग को देखते हुए अमेरिका ने अरब वर्ल्ड में तेल के कुओं पर अप्रत्यक्ष रूप से कब्जे का प्लान बनाया। ऐसे में अरब देशों के सुरक्षा की गारंटी और डॉलर में तेल कारोबार करने के लिए तैयार कर लिया। इससे अमेरिका बहुत ही तेजी से आर्थिक तरक्की की सबसे ऊंची सीढ़ी पर पहुंच गया। अमेरिका ने अपने वर्चस्व में बढ़ोत्तरी के लिए सैन्य समझौते किए और दुनिया भर में मिलिट्री बेस बनाए। आज की तारीख में दुनियाभर में अमेरिका के 800 से ज्यादा मिलिट्री बेस हैं। कभी अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस की सेना को रोकने के लिए अलकायदा को हथियार और डॉलर थमाए। तालिबान को खड़ा किया। उसी अल-कायदा ने जब अमेरिका में वर्ल्ड सेंटर पर हमला किया तो आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर हथियारों की मंडी सजाई।
हथियार बनाने वाली कंपनियों की पांचों अंगलियां घी में
ये अमेरिका ही है जो बीस साल अफगानिस्तान में जंग लड़ने के बाद धीरे से वहां से निकल जाता है और तालिबान का दोबारा कब्जा हो जाता है। ये अमेरिका ही है जिसने सामूहिक विनाश के हथियार विकसित करने का आरोप जड़ते हुई इराक पर हमला किया। इराक के सैन्य तानाशाह सद्दाम हुसैन का नामो-निशान मिटा दिया गया लेकिन, इराक में सामूहिक विनाश के हथियार नहीं मिले। इराक युद्ध के दौरान अरब वर्ल्ड में असुरक्षा का एक अजीब सा माहौल बना, जिसमें मुल्कों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से पाला चुना और हथियारों की डील की। इसमें भी अमेरिका की हथियार बनाने वाली कंपनियों की पांचों अंगलियां घी में रहीं।
पिछले तीन साल चार महीने से रूस-यूक्रेन के बीच जारी जंग के बीच यूरोपीय देशों में असुरक्षा का माहौल है। जिसने अत्याधुनिक हथियारों को जमा करने की रेस को तेज किया है। ये राष्ट्रपति ट्रंप के दौर का अमेरिका है, जो एक ओर लोकतंत्र की बात करता है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात करता है। दूसरी ओर, आतंकियों को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान के साथ अंतराष्ट्रीय मंचों पर खड़ा दिखता है। दो देशों के बीच टेंशन की धधकती आग में परदे के पीछे से घी डालने का काम करता है, फिर सीजफायर कराने का दावा भी करता है।
इजरायल और ईरान के बीच हुए हालिया टकराव ने एआई आधारित अत्याधुनिक हथियार और एयर डिफेंस सिस्टम की ओर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। अमेरिकी फाइटर जेट बी ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना बना चुके हैं। ऐसे में पारंपरिक हथियारों की जगह नए तरह के हथियारों के लिए बाजार के खिड़की दरवाजे खुले हैं, जिसका सबसे बड़ा सौदागर अमेरिका है।
युद्धों के बाद अमेरिका को क्या मिला?
चाहे वियतनाम युद्ध हो, चाहे इराक युद्ध हो, चाहे अफगानिस्तान में युद्ध हो। अब सवाल उठ रहा है कि इन लंबे युद्धों के बाद अमेरिका को क्या मिला? इसी तरह रूस के खिलाफ यूक्रेन को पीछे से मदद और ईरान के खिलाफ इजरायल को मदद से अमेरिका को क्या फायदा हुआ ? क्या दूसरे देशों के बीच तनाव और युद्ध में अपना फायदा देखने वाली सोच ट्रंप प्रशासन में और मजबूत हुई है? कुछ दशक पहले तक दुनिया की बड़ी-बड़ी समस्याओं को सुलझाने में अमेरिका अगुवा भूमिका में दिखता था। लेकिन, अब वहां के हुक्मरान हाइपर नेशनलिस्ट एजेंडा आगे बढ़ाने में लगे हैं। ट्रंप तो मेक अमेरिका ग्रेट अगेन एजेंडा को इस कदर आगे बढ़ाने में लगे हैं कि विदेशी छात्रों को खूंखार अपराधियों की तरह वापस भेजा जा रहा है। सरहद की दीवार को और ऊंचा करने की लगातार कोशिश हो रही है। अमेरिकी हुक्मरान सौदेबाजी के लिए नए-नए पैंतरे आजमा रहे हैं। लेकिन, राष्ट्रपति ट्रंप को ये नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका अगर दुनिया का सुपर पावर बना– तो अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की वजह से, अपने समावेशी समाज की वजह से, बेस्ट टैलेंट के इस्तकबाल वाली सोच से, दुनिया की समस्याओं को सुलझाने में अपने लीडर वाले रोल से, ना की डीलर वाली सोच से।