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दुनिया को क्यों मानना पड़ रहा है भारतीय डिप्लोमेसी का लोहा?

Bharat Ek Soch: भारतीय डिप्लोमेसी की एक बार फिर जीत हुई है। दुनिया भर के कई देशों में भारतीय डिप्लोमेसी का डंका बज रहा है। विदेश मंत्री एस जयशंकर के काम करने का तरीका क्या है? वह किस तरह कूटनीतिक रूप से भारत को मजबूत कर रहे हैं। इन्हीं बातों की पड़ताल करेंगे खास कार्यक्रम में कितनी बदल गई डिप्लोमेसी?

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Feb 18, 2024 22:02
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Bharat Ek Soch: भारत में कूटनीति यानी Diplomacy कोई नई चीज नहीं है। कूटनीति के तीन मॉडल रामायण और महाभारत में साफ-साफ मिलते हैं। रामायण में हनुमान जी सीता माता की तलाश में लंका पहुंचते हैं वहां वो अपनी Communication Skill से सीता माता को ये भरोसा दिलाते हैं कि वो श्रीराम के ही दूत हैं तो लंका में आग लगाकर वो अपनी शक्ति का भी एहसास करा देते हैं। दूसरा मॉडल अंगद का है जो रावण के दरबार में जाते हैं। बैठने के लिए सम्मानजनक जगह नहीं मिलने पर अपनी ही पूंछ से आसन बनाते हैं और बिना किसी दबाव या प्रभाव के श्रीराम का संदेश रखते हैं। अंगद में इतना आत्मविश्वास था कि वो रावण से कहते हैं कि अगर दरबार में कोई उनका पैर हिला देगा तो श्रीराम बिना युद्ध के वापस चले जाएंगे रावण के दरबार में कोई भी अंगद का पैर नहीं हिला पता है।

श्रीकृष्ण की नेटवर्किंग जितनी पांडवों में थी, उतनी ही कौरवों के बीच भी

तीसरा मॉडल महाभारत में श्रीकृष्ण की कूटनीति का है जिनकी नेटवर्किंग जितनी पांडवों में थी, उतनी ही कौरवों के बीच भी। दोनों दल उनका पूरा सम्मान करते थे। मतलब, एक सफल राजदूत में हनुमान जैसी समझ, अंगद जैसी शक्ति और श्रीकृष्ण जैसी नेटवर्किंग तीनों की जरूरत है। ये तीनों भी युद्ध तो नहीं टाल पाए थे लेकिन, तीनों ने जीत की राह जरूर आसान बनाई और युद्ध कम समय में खत्म हुआ। लेकिन, अब ऐसा क्या हो गया है कि एक बार युद्ध शुरू होने के बाद खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। कूटनीतिज्ञ अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहे हैं या फिर ग्लोबल विलेज और 5G के दौर में उनकी भूमिका दिनों-दिन कम होती जा रही है।

8 पूर्व नौसैनिको को मौत के मुंह में जाने से बचाया

कूटनीतिज्ञों की भूमिका कितनी बदल गई है, इसे समझने के लिए तीन घटनाओं का जिक्र जरूरी है। एक म्यूनिख जहां सिक्यूरिटी कॉन्फ्रेंस में एस. जयशंकर ने सबको नि:शब्द कर दिया। दूसरा, कतर से जिस तरह भारत अपने 8 पूर्व नौसैनिको को मौत के मुंह में जाने से बचाया और तीसरा, समंदर में सबको जोड़ने की कोशिश जिसकी बुलंद तस्वीर 19 फरवरी से 51 देशों की नौसेनाओं के War exercise के रूप में दिखेगी।

डिप्लोमेट या राजदूत की नौकरी कैसी होती है?

अगर किसी सामान्य नौकरीपेशा शख्स से पूछें कि एक डिप्लोमेट या राजदूत की नौकरी कैसी होती है? दूर से देखने पर लगता है कि ये समाज का एक ऐसा Power Elite class है जो अच्छे कपड़े पहनता है। अच्छी अंग्रेजी के साथ-साथ दूसरी विदेशी भाषाएं भी बोलता है। किसी भी विषय का अच्छा जानकार होता है जिसकी विदेशों में पोस्टिंग होती है। जिसका मुख्य काम बातचीत करना और लोगों से मिलना-जुलना है। वो विदेशों में अपने मुल्क का प्रतिनिधित्व करता है। औपचारिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना और पार्टी अटेंड करना इनके काम का हिस्सा होता है यानी एक डिप्लोमेट की नौकरी को बहुत ही मजे का काम समझा जाता है। एक सच ये भी है कि डिप्लोमेट का काम परदे के पीछे ज्यादा होता है। लेकिन, हाल के वर्षों में कूटनीति का चरित्र बदला है और अब डिप्लोमेट्स फ्रंट सीट पर दिखने लगे हैं। आज की तारीख में पूरी दुनिया आपस में जुड़ी हुई है। दुनिया के किसी हिस्से में अगर कोई हलचल होती है तो उसका असर दुनिया के हर हिस्से में पड़ता है। ऐसे में दुनिया को बहुत की Skilled, Connected और Hardworking Diplomats की जरूरत है।

युद्ध को बातचीत के जरिए रोकना डिप्लोमेट्स का काम

कभी डिप्लोमेसी की चर्चा समाज के बहुत ही पढ़े-लिखे यानी बुद्धिजीवी लोगों के बीच हुआ करती थी । इसे हाईटेबल डिस्कशन का मैटर समझा जाता था। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने जी-20 जैसे बड़े मंच को आम लोगों के बीच पहुंचा दिया कूटनीतिक रिश्तों का आधार बहुत हद तक आर्थिक नफा-नुकसान है। ऐसे में कूटनीतिज्ञों के सामने एक ओर चुनौती अपने राष्ट्रीय हितों को साधने की है दूसरी ओर दुनिया में शांति बनाए रखने की। युद्ध की किसी भी हिमाकत को बातचीत के जरिए रोकना भी डिप्लोमेट्स का मुख्य काम है। लेकिन, आक्रामक राष्ट्रवाद की आंधी में युद्ध के मोर्चे लगातार खुल रहे हैं।

कूटनीति के बंद दरवाजों के पीछे हो रहा यह खेल

प्रतिद्वंदी राष्ट्रों को कमजोर करने के लिए कट्टरपंथियों को खड़ा करने और उन्हें मदद देने का खेल भी कूटनीति के बंद दरवाजों के पीछे हो रहा है। वो भी कूटनीति ही रही, जिसने हूती विद्रोहियों को खड़ा किया  हमास के लड़ाकों को हथियार पकड़ाए। कभी अलकायदा को खड़ा तो कभी आईएसआईएस को मजबूती दी। कभी लश्कर-ए-तैयबा को पाला-पोसा तो कभी हिजबुल मुजाहिदीन की आतंकी ब्रिगेड को बंदूक पकड़ाया। कूटनीतिज्ञों को सोचना होगा कि किसी भी मुल्क में चरमपंथियों को अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा करने का अंजाम कितना खतरनाक होता है। इस पर भी ईमानदारी से मंथन होना जरूरी है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में तनाव पैदा कर हथियारों की रेस बढ़ाने का खेल कितना घातक होता है ? महाशक्तियों की वर्चस्व और नाक की लड़ाई में दुनिया के कई हिस्से जंग के मैदान में तब्दील हुए..लाखों की तादाद में लोग मरे ।

इराक-ईरान के बीच युद्ध में 10 लाख लोग मारे गए

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी। मकसद था मानवता को युद्ध से बचाना। दुनिया में शांति बनाए रखने में दमदार भूमिका निभाना। संयुक्त राष्ट्र में शुरू से ही अमेरिका का वर्चस्व रहा यूरोपीय राष्ट्र भी हां में हां मिलाने वाली नीति पर आगे बढ़ते रहे। इस बड़ी अंतर्राष्ट्रीय छतरी का अमेरिका ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल का कोई मौका नहीं छोड़ा। इतिहास गवाह रहा है कि संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच होने के बाद भी अमेरिका और वियतनाम के बीच युद्ध हुआ, जिसमें वियतनाम के करीब 20 लाख लोग मारे गए। इराक-ईरान के बीच युद्ध हुआ करीब 10 लाख लोग मारे गए।

क्या संयुक्त राष्ट्र सिर्फ मौज-मस्ती तक सिमट कर रह गया है ?

अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक पर हमला किया। करीब बीस साल अफगानिस्तान में लड़ने के बाद अमेरिकी फौज वापस हुई तो दोबारा काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया  अपने नफा-नुकसान को देखते हुए छोटे-बड़े देश समय-समय पर युद्ध का ट्रिगर दबाते रहे और संयुक्त राष्ट्र तमाशबीन बना रहा। अब सवाल उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र अपने मकसद में नाकाम रहा है ? क्या संयुक्त राष्ट्र सिर्फ दुनियाभर के डिप्लोमेट्स की मौज-मस्ती, तर्क-वितर्क और दिमागी जोर-आजमाई के मंच तक सिमट कर रह गया है ?

साल 1860 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री Lord Palmerston को पहला डिप्लोमेटिक टेलिग्राम मिला

दुनिया के कुछ जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की दलील है कि पिछले सात दशकों में संयुक्त राष्ट्र किसी भी बड़े विवाद को नहीं सुलझा पाया है। युद्ध रोकने में भी बहुत कारगर साबित नहीं हुआ है ऐसी स्थिति में इसे बंद कर देना चाहिए। सवाल ये भी उठता है कि 5जी के दौर में जब सूचनाएं सेकेंड से भी कम समय में दुनिया के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहुंच जाती हैं बड़े कूटनीतिक फैसले राष्ट्र प्रमुखों के मिजाज, तेवर और निजी केमेस्ट्री पर निर्भर करते हैं तो फिर डिप्लोमेट्स का क्या काम है ? संभवत:, डिप्लोमेट्स की भूमिका को लेकर हमेशा से ही सवाल उठता रहा है और इस पेशे के खत्म होने की भविष्यवाणी की जाती रही है। डिप्लोमेट त्रेता युग में भी थे और द्वापर में भी। आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी कूटनीति और कूटनीतिज्ञों दोनों का विस्तार से जिक्र है। कौटिल्य ने तो यहां तक कहा कि हथियार ही नहीं कूटनीति से भी दुश्मन को हराया जा सकता है।

दुनिया में शांति और खुशहाली का रास्ता

तकनीक और समय के बाद कूटनीतिज्ञों की भूमिका बदलती रही है । कहा जाता है कि साल 1860 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री Lord Palmerston को पहला डिप्लोमेटिक टेलिग्राम मिला तकनीक में आए इस चमत्कारिक बदलाव के बाद उनके मुंह से निकला  My God ! This is the end of diplomacy यानी भगवान कूटनीति के दिन तो गए । लेकिन, आज की तारीख में पहले से कहीं ज्यादा कूटनीति और कूटनीतिज्ञ दोनों की जरूरत है बस ऐसे आदर्श गुणों से भरे डिप्लोमेट्स की जरूरत है- जो अपने मुल्क के राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ दुनिया में शांति और खुशहाली का रास्ता निकालने में दमदार भूमिका निभा सकें। क्योंकि दुनिया के किसी भी हिस्से में अशांति, कलह या युद्ध के असर से कोई भी मुल्क बच नहीं सकता है।

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First published on: Feb 18, 2024 09:00 PM

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