Bharat Ek Soch : दुनियाभर के बुद्धिजीवियों में चर्चा हो रही है कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच जारी घमासान का नतीजा क्या निकलेगा? अमेरिका की फेडरल कोर्ट ने ट्रंप प्रशासन के उस फैसले पर अस्थायी तौर पर रोक लगा दी है, जिसमें विदेशी छात्रों के दाखिले रोकने का आदेश दिया गया था। ट्रंप प्रशासन के रुख से हार्वर्ड में पढ़ने वाले 6,800 विदेशी छात्रों की सांसें अटकी हुई हैं, जिसमें करीब पौने आठ सौ छात्र भारतीय हैं। पहले ही ट्रंप हार्वर्ड का फंड रोकने की बात कह चुके हैं। लेकिन, आज राष्ट्रपति ट्रंप और हार्वर्ड प्रशासन के बीच जारी तनानती की बात नहीं करेंगे। न राजनीति की बात करेंगे और न कूटनीति की। आज बात करेंगे एक ऐसे मुद्दे की जो हर घर से जुड़ा है, जिसका ताल्लुक देश के वर्तमान और भविष्य दोनों से है। जी हां, आज बात होगी शिक्षा व्यवस्था की, हायर एजुकेशन की। इन दिनों जिन घरों में 14-15 साल के बच्चे हैं, वहां सुबह-शाम एक ही बात पर मंथन होता है। बच्चा आगे क्या पढ़ेगा? एडमिशन कहां होगा? एडमिशन होगा तो पढ़ाई का खर्चा कहां से आएगा? पासआउट के साथ कैंपस सिलेक्शन होगा या नहीं? कई राज्यों में 10वीं और 12वीं बोर्ड के रिजल्ट आ चुके हैं। CBSE का नतीजा भी सामने है।
जहां 10वीं में करीब दो लाख छात्रों ने 90 प्रतिशत से अधिक नंबर हासिल किए तो वहीं 12वीं बोर्ड में 90 प्रतिशत से अधिक नंबर पाने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या 1.2 लाख रही यानी देश में होनहार बच्चों की कमी नहीं है। इनमें से कइयों की आंखों में हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने का सपना भी पल रहा होगा, अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं। इंजीनियरिंग में दाखिला के लिए JEE MAIN में इस साल साढ़े बारह लाख से अधिक छात्र बैठे, डॉक्टर बनने का सपना लिए 20.8 लाख से अधिक लड़के-लड़कियां NEET UG में Appear हुए। कितनों को नामी सरकारी कॉलेजों में एडमिशन मिलेगा, ये किसी से छिपा नहीं है। आज की तारीख में ज्यादातर माता-पिता के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि अपने बच्चों को क्या पढ़ाएं? कहां पढ़ाएं और कैसे पढ़ाएं? जिससे उनके बच्चे का करियर बन सके। हमारे देश में डिग्रियों की क्या स्थिति है? पासआउट होने के बाद कितनों को नौकरी या रोजगार मिल पाता है? देश में हर दूसरा ग्रेजुएट खाली हाथ क्यों है? इस तस्वीर को कैसे बदला जा सकता है? इंजीनियर और डॉक्टर बनने के लिए होड़ इतनी अधिक क्यों है? अगर बच्चे का बेहतर कॉलेज में एडमिशन हो गया तो भी क्या गारंटी है कि अच्छी नौकरी मिल जाएगी? लाखों की मोटी फीस के बाद जो डिग्री मिल रही है- वो कितने दिनों तक रोजगार दिलाने में मददगार साबित होगी? भविष्य में पढ़ाई अभी और कितनी महंगी होगी? अगर डिग्री मिल भी जाए तो क्या?
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हर साल देश में कितने बच्चे ग्रेजुएट होते हैं?
क्या कभी आपके जेहन में ये सवाल आता है कि हर साल हमारे देश में कितने बच्चे ग्रेजुएट होते हैं? उसमें से कितनों के हाथों में डॉक्टर या इंजीनियर की डिग्री होती है? इसमें से कितनों का पैकेज 10 लाख रुपये सालाना से ऊपर का होता है? हर साल कितने Arts और Commerce ग्रेजुएट्स पासआउट होते हैं, उसमें कितनों को और कैसी नौकरी मिलती है। हर साल ग्रेजुएट होने वाले छात्र-छात्राओं का वैसे तो कोई Authentic Data नहीं है। लेकिन, कुछ स्टडी के मुताबिक, हर साल 80 लाख से एक करोड़ के बीच ग्रेजुएट्स निकल रहे हैं, जो उम्मीदों के घोड़े पर सवाल होकर कॉलेज में तीन या चार साल पढ़ाई करते हैं। परीक्षा देते हैं और अच्छे नंबरों से पास होते हैं, उसके बाद भी हर दूसरा डिग्रीधारी खाली हाथ है। आखिर ऐसा क्यों? अगर किसी कोर्स में गड़बड़ी है तो फिर वो हमारी एजुकेशन सिस्टम की मुख्यधारा में कैसे बना हुआ है? इस सवाल पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, राजनीति शास्त्र जैसे विषयों में ग्रेजुएट्स के लिए नौकरियों के कितने मौके हैं? कितनों का सिलेक्शन यूपीएससी या पीसीएस में होगा, बाकी कहां जाएंगे?
क्या डिग्री के हिसाब से रोजगार मिल रहा या नहीं?
कितने युवा वकील बनेंगे, कितनों को राजनीति में जगह मिलेगी? टीचिंग सेक्टर कितनों को नौकरी देगा? हमारे देश में सामान्य ग्रेजुएट्स में से ज्यादातर खाली हाथ बैठे हैं या उन्हें डिग्री यानी पढ़ाई-लिखाई के हिसाब से नौकरी नहीं मिल पाई। दिल्ली-मुंबई, बेंगलुरु-चेन्नई, नोएडा-गुरुग्राम जैसे शहरों में खड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियों की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले ज्यादातर सिक्योरिटी गार्ड ग्रेजुएट मिलेंगे, ऑफिस असिस्टेंट से लेकर ड्राइवर तक जैसी नौकरियों में मोर्चा संभाले कई कर्मचारियों के पास ऊंची डिग्री है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता है। हर काम का अपना महत्व होता है। लेकिन, ये सवाल तो ज्यों का त्यों खड़ा है कि डिग्री के हिसाब से रोजगार मिला या नहीं? International Labour Organization यानी ILO की बेरोजगारी की परिभाषा के मुताबिक, अगर हफ्ते में किसी शख्स को कम से कम एक घंटे की मजदूरी या कोई ऐसा काम मिलता है, जिससे उसकी कमाई हो तो उसे बेरोजगार नहीं माना जाता है। दुनिया के अधिकतर देशों में रोजगार की इसी परिभाषा के आधार पर बेरोजगारी के आंकड़े निकाले जाते हैं।
दो दशकों में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या हुई डबल
ILO के मुताबिक, 2023 में देश के भीतर जितने भी बेरोजगार थे, उसमें से 80 फीसदी युवा थे। पिछले दो दशकों में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या डबल हुई है। ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएट के बीच बेरोजगारी दर 12 फीसदी से अधिक है। दूसरी ओर, 10वीं तक की पढ़ाई करने वाले समूह में बेरोजगारी दर 2 फीसदी से भी कम है। मतलब, पढ़े-लिखे और ऊंची डिग्री हासिल करने वालों के सामने रोजगार संकट तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन, कुछ कोर्स ऐसे भी हैं, जिसमें दाखिले का मतलब है सुनहरे करियर की गारंटी। उनमें से एक है- डॉक्टरी की डिग्री। हमारे देश में मेडिकल की पढ़ाई को सबसे सुरक्षित करियर माना जाता है। इसी सोच के साथ देश के 780 मेडिकल कॉलेजों की 1 लाख 18 हजार सीटों के लिए 20.8 लाख छात्रों ने परीक्षा दी। करीब 55 हजार सीटें सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हैं, बाकी प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की हैं, जहां डॉक्टर बनने के लिए इतनी मोटी फीस चुकानी पड़ती है, जितने में एक सामान्य मिडिल क्लास परिवार की पूरी जिंदगी निकल जाती है। ऐसे में अगर कोई बच्चा बैंक से लोन लेकर प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेता है तो उसकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा पढ़ाई के लिए लिया गया कर्ज चुकाने में बीतेगा?
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महंगाई दर से डबल हुआ पढ़ाई का खर्चा
पिछले एक दशक में देशभर में एमबीबीएस की सीटें डबल से अधिक हुई हैं। कुछ स्टडी इशारा कर रही हैं कि हमारे देश में पढ़ाई का खर्चा पिछले 10 वर्षों में 11 से 12 फीसदी के बीच बढ़ा है, जो महंगाई की दर से करीब डबल है। अगर यही रफ्तार जारी रही तो 2035 तक डॉक्टरी की डिग्री के लिए आज से दोगुनी से अधिक फीस चुकानी पड़ सकती है। इसी तरह अच्छे सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज यानी IITs और NITs से डिग्री के लिए बहुत मारा-मारी है। इस साल JEE Main में साढ़े 12 लाख से अधिक दावेदार बैठे। जरा सोचिए… इसमें से कितनों को IITs और NITs में एडमिशन मिलेगा, बाकी कहां जाएंगे? प्राइवेट कॉलेजों में, जहां डिग्री के लिए मोटी फीस चुकानी होगी। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल देश में करीब 15 लाख बच्चे इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करते हैं। जिसमें से बड़ी तादाद में इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स के हाथों में सिर्फ डिग्री ही रह जाती है- उन्हें डिग्री के हिसाब से नौकरी नहीं मिल पाती है। साल 2024 में 24 हजार से अधिक IIT और NIT ग्रेजुएट्स में से 8 हजार का कैंपस प्लेसमेंट नहीं हुआ। मतलब, IIT और NIT से पासआउट हर तीसरा इंजीनियर कैंपस प्लेसमेंट में पीछे छूट गया।
क्या भविष्य में कॉलेज की पढ़ाई आउटडेटेड हो जाएगी?
दुनिया में तेजी से बदलाव हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ह्यूमनॉइड रोबोट, स्पेस टेक्नोलॉजी में रोजाना होते नए-नए प्रयोग नौकरियों की प्रकृति बदल रहे हैं। दुनिया के कुछ देशों की कंपनियां कर्मचारियों के चयन में कॉलेज डिग्री की जगह कामकाजी क्षमता, नई टेक्नोलॉजी की समझ, टीमवर्क, समस्या सुलझाने में एक्सपर्टिज और क्रिटिकल थिंकिंग को प्राथमिकता दे रही हैं। ऐसे में कई क्षेत्रों में कॉलेज की डिग्री को न्यूनतम योग्यता की तरह लेने का चलन जोर पकड़ रहा है। विकसित देशों में युवाओं के भीतर भी ये सोच आकार लेने लगी है कि ज्यादातर नौकरियों के लिए ऊंची डिग्री के लिए संघर्ष पैसा और समय दोनों की बर्बादी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भविष्य में कॉलेज की पढ़ाई आउटडेटेड हो जाएगी? क्या नौकरी में बने रहने के लिए पूरी जिंदगी नए-नए कोर्स करते रहना होगा?
हाइब्रिड नौकरियों में डिग्री से अधिक स्किल जरूरी
कई नौकरियां ऐसी हैं, जो लाइसेंसिंग और नियामक मानकों से बंधी है। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, कंपनी सेक्रेटरी, चार्टर्ड एकाउंटेंट, पायलट जैसी नौकरियों में डिग्री की प्रासंगिकता ज्यों कि त्यों बनी रहेगी। लेकिन, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में कई ऐसी हाइब्रिड नौकरियां हैं, जहां डिग्री से अधिक स्किल मायने रखती है। ऐसे में आने वाले दिनों में डिग्री की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए हायर एजुकेशन में बड़े बदलाव की जरूरत है। तकनीक में आते बदलाव और जॉब मार्केट के हिसाब से युवाओं को तैयार करने के लिए नए तरह के सिलेबस की जरूरत है। ऐसे विषयों की पढ़ाई को कॉलेज और यूनिवर्सिटी में सीमित करने की जरूरत है, जो युवाओं की नौकरी के मौकों को कम करते हैं। कॉलेज में ही हर युवा के दिमाग में ये बात बैठानी होगी कि उसे पूरी जिंदगी समय-समय पर सॉफ्ट स्किल्स सीखते रहना होगा, अपस्किलिंग पर लगातार ध्यान देना होगा। ये बात अलग है कि हमारे देश में शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी हासिल करना नहीं रहा है। हमारी परंपरा में शिक्षा किसी इंसान को अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाने का माध्यम मानी गई है। शिक्षा सामान्य लोगों को सभ्य, सरोकारी और समावेशी नागरिक बनाने में अहम किरदार निभाती रही है। लेकिन, एक सच ये भी है कि अगर इंसान कमाएगा नहीं तो खुद की, समाज की, देश की तरक्की में दमदार भूमिका कैसे निभाएगा। ऐसे में हमारी उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों की ये जिम्मेदारी बनती है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का स्तर इस तरह का किया जाए, जिसमें कम से कम अगले 15 से 20 वर्षों तक जॉब मार्केट की जरूरतों के हिसाब से प्रोफेशनल्स तैयार करने की सोच हो।
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