Bharat Ek Soch : जिस भारत की आबादी एक अरब पैतालीस करोड़ से ज्यादा हो, जहां का हर नागरिक दुनिया के सबसे मुखर लोकतंत्र और बुलंद गणतंत्र पर गर्व महसूस करता हो, जहां करीब 20 हजार से अधिक जुबान बोली जाती है, जहां चार हजार से अधिक जातियां और उनमें अनगिनत उप-जातियां हैं। जहां की विविधता में एकता की मिसाल पूरी दुनिया में दी जाती है, उसी भारत में आजादी के बाद पहली बार जातीय जनगणना होने जा रही है। ऐसे में आने वाले दिनों में जाति को लेकर हर तरह के सुर तेज होंगे।
भारतीय समाज, सियासत और अर्थव्यवस्था तीनों को प्रभावित करने में जाति बहुत बड़ा रोल निभाती रही है। ऐसे में ये समझना बहुत जरूरी है कि भारतीय समाज के भीतर जाति कहां से आई? जाति के वजूद में आने की वजह क्या रही? कौन सी जाति शुद्ध और कौन सी अशुद्ध है? जातियों के बीच की दीवारों को किसने ऊंचा किया और किसने ध्वस्त करने की कोशिश की, ऐसे सभी सवालों के जवाब पौराणिक ग्रंथों, इतिहास, दर्शन, विज्ञान और समाजशास्त्र के आइने में समझने की कोशिश करेंगे।
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समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था का मुख्य आधार कर्म था, ना की जन्म
क्या आपके जेहन में कभी ये सवाल आता है कि भारतीय समाज दुनिया के दूसरे देशों की सामाजिक व्यवस्था से बिल्कुल अलग क्यों है? आज की तारीख में भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जहां सात प्रमुख धर्म, 22 आधिकारिक भाषाएं, 200 से ज्यादा मातृभाषाएं और चार हजार से ज्यादा जातियां और उप-जातियां हैं। ये भारतीय समाज की हजारों साल से चली आ रही परंपरा है, जिसमें हिंदू समाज खुद को जाति और उप-जाति के खांचे में बंटा दिखता है। मोटे तौर पर भारतीय समाज चार वर्णों में बंटा था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था का मुख्य आधार कर्म था, ना की जन्म। लेकिन, बाद में जन्म आधारित जाति व्यवस्था समाज में लगातार मजबूत होती गई।
भारतीय समाज में जाति का जन्म कैसे हुआ?
एक जाति के लोग खुद को दूसरों से श्रेष्ठ बताने की होड़ में लग गए, समाज की मुख्यधारा से पिछड़ी जातियों के बीच खुद को श्रेष्ठ समझी जाने वाली जातियों के करीब पहुंचने की कोशिश होने लगी। भारत के जाने-माने समाजशास्त्री मैसूर नरसिम्हचार श्रीनिवास इस प्रक्रिया को Sanskritisation का नाम देते हैं। उनकी दलील है कि Sanskritisation एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें निचली जाति या जनजाति का कोई समूह अपने रीति-रिवाजों, विचारधारा और जिंदगी जीने के तरीक को ऊंची जाति के करीब ले जाने की कोशिश करता है। लेकिन, सबसे पहले ये समझते हैं कि भारतीय समाज में जाति का जन्म कैसे हुआ?
जाति-व्यवस्था कब और कैसे आई?
वैदिक काल में ही जाति-व्यवस्था ने आकार लेना शुरू कर दिया था। महाभारत काल में राजा शांतनु का विवाह निषाद जाति में पैदा सत्यवती से हुआ। सत्यवती के पुत्र वेदव्यास की गिनती श्रेष्ठ ब्राह्मणों में होती है, रामायण काल में सूर्यवंशी राम निषाद राज केवट को अपना दोस्त बताते हैं तो भील शबरी के झूठे बेर राम खाते हैं। मतलब, त्रेता युग से द्वापर युग तक में जाति व्यवस्था तो मौजूद थी। लेकिन, दूसरी जातियों के साथ भी रोटी-बेटी का रिश्ता बना हुआ था। इसकी गवाही पौराणिक ग्रंथों में कई ऋषियों के जन्म में भी छिपी है। हिंदू समाज के भीतर जाति-व्यवस्था कब और कैसे आई? इसे लेकर कोई एक राय नहीं है। कुछ ऋग्वेद के पुरुष सूक्त को आधार मानते हुए जातियों के जन्म के सिद्धांत को आगे बढ़ाते हैं तो कुछ कर्म और रंग में जातीय विभाजन के खांचों को फिट करने की कोशिश करते हैं। कुछ पूरी तरह से समाज के आर्थिक व्यवहार के आधार पर जातीय बंटवारे की लकीरों को चमकदार बनाते दिखते हैं।
‘द पीपुल ऑफ इंडिया’ में भारतीयों को तीन खांचों में बांटा है
Herbert Hope Risley की एक किताब है- द पीपुल ऑफ इंडिया। इस किताब में रिजले ने भारत भूमि पर रहने वाले लोगों को तीन खांचों में बांटा है -पहला Dravidian, दूसरा Indo-Aryan और तीसरा Mongoloid, रिजले की दलील थी कि भारत में जातीय अंतर और सगोत्र विवाह से जाति व्यवस्था का जन्म हुआ है। जाति व्यवस्था पर्शिया से इंडो-आर्यन के आने के बाद विकसित हुई, जहां समाज पुरोहित, योद्धा, कृषक और शिल्पकारों में बंटा था। भारत आने के बाद भी उन्होंने इस प्रथा को जारी रखा और समाज में अपनी जातीय Supremacy और Purity बनाए रखने के लिए दूसरे समूहों से विवाहों पर पाबंदी लगा दी। आज की तारीख में कुछ इतिहासकार तो Aryan Theory को भी चुनौती दे रहे हैं। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि जाति का समाज में जन्म कब और कैसे हुआ? इस पर विवाद हो सकता है। जाति भारतीय समाज की सबसे बड़ी हकीकत है, इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता है। भारतीय समाज में जिस ग्रंथ को लेकर सबसे ज्यादा विवाद होता है, जिसे देश की जातीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार माना जाता है- उसका नाम है मनुस्मृति। इसकी रचना कब हुई, इसे लेकर इतिहासकारों में एका नहीं है।
भारतीय मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था कैसे पनपी?
एक पक्ष ये भी अनुमान लगाता है कि इस ग्रंथ की रचना करीब 2300 साल पहले हुई होगी, मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं, इसे लेकर भारतीय सियासत और समाज में लगातार बहस होती रहती है। इसके लिए तीन बातें जिम्मेदार हैं, पहली ये कि भारत पर शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस ग्रंथ को हिंदुओं का मूल ग्रंथ मान लिया, दूसरी ये कि कुछ कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने मनुस्मृति के आधार पर ही हिन्दू समाज को चलाने की वकालत की और तीसरा ये कि डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने गुस्से में इस ग्रंथ को जला कर देश और समाज से इसका असर खत्म करने का विचार दिया। अब भारत की जाति व्यवस्था के भीतर दूसरे पक्ष की बात करना भी जरूरी है। हमारे देश में मुस्लिमों की आबादी करीब 20 करोड़ हैं, वैसे तो इस्लाम में किसी भी जातिगत भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन, भारतीय मुसलमानों में हिंदुओं की तरह की जाति सिस्टम देखने को मिलता है। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि आखिर भारतीय मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था कैसे पनपी?
उर्दू के एक मशहूर शायर हैं अल्लामा इकबाल। उनका एक शेर है–
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़,
ना कोई बंदा रहा…ना तोई बंदा नवाज़
इस शेर के जरिए अल्लामा इकबाल बताने की कोशिश करते हैं कि महमूद गजनवी और उनके गुलाम अयाज़ जब नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े होते हैं, दोनों एक ही लाइन में होते हैं। नमाज के समय न कोई बादशाह होता है और न ही कोई गुलाम। मतलब, इस्लाम धर्म में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं है। इस मजहब को मानने वाले सभी बराबर हैं। लेकिन, भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान Converted हैं। ऐसे में हिंदू धर्म से इस्लाम को अपनाने वाले ज्यादातर अपनी जातीय पहचान के साथ मुसलमान बने। साल 1947 में भारत आजाद तो हो गया, लेकिन जातियों के चक्रव्यूह से आजादी नहीं मिली। संविधान सभा में जातियों के प्रतिनिधित्व और निचले तबकों की रक्षा के लिए लंबा वाद विवाद हुआ, संविधान सभा के लिए ये तय कर पाना बेहद मुश्किल था कि आरक्षण हो या ना हो।
समावेशी समाज में जातियों को दो तरह से देखा गया
भारत के समावेशी समाज में जातियों को दो तरह से देखना ज्यादा तार्किक रहेगा। पहला, समाज के एक खास वर्ग को जाति और उप-जाति के धागे में जोड़ती हैं, जिसका सबसे बड़ा आधार जन्म और वैवाहिक संबंध है। दूसरा, जातीय खांचों में बंटा समाज कभी एकजुट नहीं हो पाता और एक-दूसरे के साथ नाक की लड़ाई लड़ता रहता है। इस प्रवृत्ति से जातियों के बीच एकजुटता नहीं आ पाई, ऊंची जातियां पिछड़ी जातियों को अपनी बराबरी में नहीं देखना चाहती थीं। संभवत:, उन्हें दबाए रखने में उन्हें ज्यादा खुशी मिलती थी। हमारे संविधान निर्माताओं ने पेचिंदा मसलों का किस तरह से आपसी सहमति के जरिए रास्ता निकाला था। उनकी सोच थी कि भले ही संविधान में भारत के हर नागरिक को समानता का अधिकार दिया जा रहा है, लेकिन समाज खुद छुआछूत और भेदभाव की दीवार को गिराए। ये समाज को एक-दूसरे से हमेशा के लिए जोड़ने वाली सोच थी, जिसमें कानून की बंदिशों से ज्यादा इंसानियत के धागे से जोड़ने का मर्म था। लेकिन, सियासतदानों ने कभी जाति के नाम पर भेदभाव को खत्म करने की ईमानदार कोशिश नहीं की, और आजाद भारत में जातियां सियासी बिसात पर गोटियों की तरह इस्तेमाल होने लगीं और ये सिलसिला बदस्तूर जारी है।
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