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दर्द-ए-बिहार: इलाज नहीं आसान, अस्पतालों को खुद इलाज की जरूरत

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपनी आंख का ऑपरेशन दिल्ली में कराया किसी बिहार के अस्पताल में नहीं। बिहार के उप-मुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन, उनका भी कैंसर का इलाज दिल्ली में ही होता था।

Author Written By: Anurradha Prasad Author Published By : Anurradha Prasad Updated: Aug 3, 2025 09:28

दर्द-ए-बिहार: बिहार में इन दिनों दो तरह की बातें हो रही हैं। पहली, नीतीश कुमार की अगुवाई में बढ़ता बिहार, बदलता बिहार। दूसरी पिछले 20 वर्षों में कहां बदला बिहार? दोनों तरह की बातें ठीक उसी तरह हैं जैसे किसी को ग्लास आधा भरा दिखाई देता है और किसी को आधा खाली। नीतीश सरकार में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे दावा कर रहे हैं कि बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं पिछले 20 वर्षों में बहुत बेहतर हुई हैं। बिहार में हर बीमारी के बेहतर इलाज की सुविधा है। लेकिन, एक बात समझ से परे है कि लालू प्रसाद यादव की भी जब तबीयत खराब होती है तो उन्हें इलाज के लिए दिल्ली एम्स क्यों लाया जाता है ? उनका पटना में इलाज क्यों नहीं होता ? लालू यादव के दोनों बेटे तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव बिहार के स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं।

नीतीश कुमार ने भी अपनी आंख का ऑपरेशन दिल्ली में कराया

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपनी आंख का ऑपरेशन दिल्ली में कराया किसी बिहार के अस्पताल में नहीं। बिहार के उप-मुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन, उनका भी कैंसर का इलाज दिल्ली में ही होता था। अब सवाल उठता है कि क्या बिहार के आम-ओ-खास को सूबे के सरकारी इलाज तंत्र पर भरोसा नहीं रहा? ऐसे में दर्द-ए-बिहार में आज बात सूबे में खड़े सरकारी अस्पतालों की सेहत की वहां मौजूद डॉक्टरों की। दवाइयों की। इलाज के लिए मौजूद सुविधाओं की । आखिर, बिहार के सरकारी इलाज सिस्टम को कैसे देखते हैं वहां के मरीज, वहां के डॉक्टर और वहां के राजनेता। इन सबसे इतर सरकारी आंकड़ों में बिहार का हेल्थ सिस्टम कहां खड़ा है?

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2006 से पहले जहां ब्लॉक के सरकारी अस्पताल में महीने में औसत 39 मरीज पहुंचते थे

बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे का दावा है कि पिछले 20 वर्षों में सूबे के सरकारी अस्पतालों में आमूलचूल बदलाव हुआ है । वो आंकड़ा देते हैं कि बिहार में 2006 से पहले जहां ब्लॉक के सरकारी अस्पताल में महीने में औसत 39 मरीज पहुंचते थे, वहां अब 11,600 मरीज पहुंचते हैं। मंत्री जी दलील देते हैं कि ये आंकड़ा बताता है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में मरीजों का भरोसा बढ़ा है। दलील ये भी दी जा रही है कि 2004-05 में जहां सूबे का स्वास्थ्य बजट 705 करोड़ रुपये हुआ करता था, वो 2025 में बढ़कर बीस हजार पैतीस करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि इतने खर्चे के बाद भी बिहार से इलाज के लिए दिल्ली आने वाले मरीजों का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा।

बिहार से लोग करीब हजार किलोमीटर दूर इलाज के लिए दिल्ली क्यों आते हैं ?

पूर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव ने दिल्ली में अपने सरकारी आवास के भीतर ऐसे लोगों के रहने के लिए खासतौर से इंतजाम किया है-जो इलाज के लिए दिल्ली आते हैं। उनके घर के भीतर बिहार से इलाज के लिए आए 100 से 150 लोग मिल जाएंगे। बिहार से चुने गए सासंदों के पास एक जिम्मेदारी ये भी होती है कि संसदीय क्षेत्र से इलाज के लिए दिल्ली आए लोगों की मदद करना। इसमें ठहरने से लेकर अस्पतालों में Appointment तक का इंतजाम होता है। अब सवाल उठता है कि जब बिहार के अस्पतालों में इलाज की अच्छी सुविधाएं मौजूद हैं ? सरकारी अस्पताल पूरी तरह बदल चुके हैं तो फिर बिहार से लोग करीब हजार किलोमीटर दूर इलाज के लिए दिल्ली क्यों आते हैं ?

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बिहार के सरकारी अस्पतालों को खुद इलाज की जरूरत है

बिहार में खड़े नामी सरकारी मेडिकल कॉलेज में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों से अगर बात कीजिए तो उनका एक ही जवाब होता है। अस्पताल में सभी तरह की अत्याधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं। डॉक्टरों की कोई कमी नहीं है। मेडिकल स्टाफ मरीजों की सेवा में लगे हुए हैं। लेकिन, जब आप मरीजों से बात कीजिए तो दूसरी तस्वीर सामने आती है। मरीजों को लगता है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों को खुद इलाज की जरूरत है। उत्तर बिहार के सबसे बड़े अस्पताल कहे जाने वाले दरभंगा मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में मरीजों को सुविधाओं की कमी लग रही है।

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पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के विस्तार का काम चल रहा

मगध मेडिकल कॉलेज में कुछ तस्वीरें ऐसी दिखीं, जिसमें तीमारदार वो काम करते दिखे जो अस्पताल के स्टाफ को करना चाहिए। पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल यानी PMCH के विस्तार का काम चल रहा है। अगर सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ तो 2027 तक PMCH दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अस्पताल बन जाएगा। ये तो हुई भविष्य की बात। लेकिन, आज की तारीख में बिहार के नामी मेडिकल कॉलेजों की स्थिति क्या है और वहां भर्ती मरीजों का दर्द क्या है इसे जानना और समझना भी जरूरी है?

CAG की रिपोर्ट बताती है कि जनवरी 2022 तक बिहार में 58144 डॉक्टर सर्विस दे रहे थे

एक ओर बिहार में सरकारी अस्पतालों में बेहतर इलाज और सुविधाओं का दावा दूसरी ओर मरीजों का दर्द। लेकिन, बिहार के हेल्थ सिस्टम की एक और तस्वीर है जिससे बेपर्दा करती है CAG की रिपोर्ट। World Health Organization के मानकों के हिसाब से बिहार में 1, 24,919 एलोपैथिक डॉक्टरों की जरूरत है। ये आंकड़ा सूबे की 12.49 करोड़ आबादी के मानते हुए निकाला गया है। लेकिन, CAG की रिपोर्ट बताती है कि जनवरी 2022 तक बिहार में 58,144 डॉक्टर सर्विस दे रहे थे। मतलब, बिहार में डॉक्टरों की भारी कमी है। अब इस तस्वीर को थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। मार्च 2022 तक PMCH में डॉक्टरों के कुल स्वीकृत पद हैं 2727 लेकिन, डॉक्टरों की तैनाती रही 1749 DMCH में डॉक्टरों के स्वीकृत पद हैं 1920 तैनाती रही 1258। इसी तरह GMCH में डॉक्टरों के स्वीकृत पद हैं 959 लेकिन तैनाती रही 301। जब राज्य के नामी सरकारी अस्पतालों में भी डॉक्टरों की कमी रहेगी तो मरीजों का बेहतर इलाज कैसे होगा ? जिला सिविल अस्पतालों में भी सरकारी दावा और जमीनी हकीकत में फासला दिखा।

Paramedics के लिए स्वीकृत पदों में जमुई में 45% तो पूर्वी चंपारण में 90% पद खाली

CAG की रिपोर्ट में बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की सेहत का एक और पक्ष रखा गया है। जिसमें अस्पतालों में Staff nurse की भारी कमी का जिक्र किया गया है। पटना में नर्स के स्वीकृत पदों में से 18% खाली बताया गया हैं तो पूर्णिया में 72% इसी तरह Paramedics के लिए स्वीकृत पदों में जमुई में 45% तो पूर्वी चंपारण में 90% पद खाली हैं। शायद ही बिहार के नक्शे पर कोई ऐसा जिला दिखे जहां डॉक्टरों के पद खाली नहीं हों। ऐसे में बिहार के मरीजों को बेहतर इलाज के लिए सूबे से बाहर निकलना पड़ता है। पटना में कुछ बड़े प्राइवेट अस्पताल भी चल रहे हैं जहां हर तरह के अत्याधुनिक इलाज और सर्जरी का दावा किया जा रहा है। इस लिस्ट में जयप्रभा मेदांता अस्पताल, पारस अस्पताल, बिग अपोलो स्पेक्ट्रा हॉस्पिटल शामिल हैं। जयप्रभा मेदांता पीपीपी मॉडल पर चल रहा है जिसमें 25% बेड सरकार के पास है। जहां गरीब मरीजों को इलाज के लिए सरकार की ओर से रेफर किया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि पटना की तरह सूबे के दूसरे हिस्सों में बड़े प्राइवेट अस्पताल क्यों नहीं हैं ? क्या बिहार का आम आदमी महंगे प्राइवेट अस्पतालों का खर्चा उठाने में सक्षम है ?

20 वर्षों में बिहार में सरकारी मेडिकल कॉलेजों की संख्या 12 हो गई है

बिहार की आबादी करीब 13 करोड़ है। इतनी बड़ी आबादी के लिए इलाज का मुकम्मल इंतजाम करना आसान नहीं है। लेकिन, एक सच ये भी है कि 20 साल का समय किसी भी प्रदेश के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के लिए बहुत कम भी नहीं होता है। ये दलील की आजादी से लेकर 2005 तक बिहार में सिर्फ 6 सरकारी और तीन मेडिकल कॉलेज थे लेकिन, पिछले 20 वर्षों में बिहार में सरकारी मेडिकल कॉलेजों की संख्या 12 हो गई है। इसके अलावे दो मेडिकल कॉलेज भारत सरकार के हैं 9 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं। अगले 4 वर्षों में प्रदेश में मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाकर 42 तक ले जाने की तैयारी है। लेकिन, अभी असली सवाल मुंह खोले खड़ा है कि पिछले 20 वर्षों में बिहार में हेल्थ सर्विसेज में इतने सुधार के बाद भी लोग बिहार से इलाज के लिए बाहर क्यों जाते हैं ?

डॉक्टर और नर्स की कमी को दूर करना होगा

अगर बिहार के इस गंभीर दर्द का ईमानदारी से इलाज करना है-तो इसके लिए सबसे पहले सूबे के हेल्थ सिस्टम के निचले पायदान पर खड़े प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स को दुरुस्त करना होगा उनमें लोगों का भरोसा बढ़ाना होगा। डॉक्टर से लेकर दवाइयों तक इंतजाम करना होगा लाइफस्टाइल से जुड़ी बीमारियां लोगों में तेजी से बढ़ रही हैं वैसे में अगर प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स में लोगों का भरोसा बढ़ा तो डिस्ट्रिक सिविल अस्पताल और मेडिकल कॉलेजों में भीड़ अपने आप कम होने लगेगी। दूसरा, डॉक्टर और नर्स की कमी को दूर करना होगा। क्योंकि, डॉक्टर और नर्सों की कमी दूर किए बिना मरीजों का इलाज संभव नहीं है। तीसरा, सूबे में इलाज के लिए एक ऐसा पारदर्शी तंत्र विकसित करने की जरूरत है जिसमें मरीज को भर्ती होने या ऑपरेशन के लिए किसी नेता या अफसर से पैरवी नहीं करानी पड़े।

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First published on: Aug 03, 2025 09:22 AM

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