Bharat Ek Soch : बिहार फिर चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। पिछले 20 साल से सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार जमे हुए हैं। उनकी सरकार ने अगले पांच साल में एक करोड़ नौकरियां और रोजगार पैदा करने का ऐलान किया है। बिहार में उद्योगों की बहार लाने के लिए एक नई मुख्य औद्योगिक नीति लाने की तैयारी है। इतना ही नहीं, इसी महीने एक आइडिया फेस्टिवल भी शुरू होने वाला है। इसका मकसद है स्टार्टअप के लिए 10 हजार आइडिया जुटाना। इसके बाद एक्सपर्ट टीम चुनिंदा स्टार्टअप आइडिया को बाजार और निवेशकों से जोड़ेगी। ऑउट ऑफ बॉक्स स्टार्टअप आइडियाज को सरकार की ओर से 10 लाख रुपये की फंडिंग दी जाएगी।अब बड़ा सवाल ये उठता है कि अभी ये सब क्यों हो रहा है? अचानक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ज्ञान चक्षु कैसे खुल गए? विकास पुरुष और सुशासन बाबू के नाम से अपनी चमकदार पहचान बनाने वाले नीतीश कुमार उद्योग-धंधा लगाने में कैसे पीछे छूट गए?
किसी भी राज्य की तस्वीर बदलने के लिए 20 साल का समय कम नहीं होता लेकिन, दुख की बात ये है कि बिहार की तस्वीर उस रफ्तार से नहीं बदली, जिस रफ्तार से पूरा देश बदल रहा है। हमेशा यही सवाल आता है कि आखिर ऐसा क्यों? देश के दूसरे राज्यों की तरह बिहार में फैक्ट्रियां क्यों नहीं है? बिहार में उद्योगपति कारखाना लगाने से बचते रहे हैं? बिहार में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से आधे से भी कम क्यों है? बिहार के पिछड़ेपन के लिए नीतियों में खामी रही या शासन-प्रशासन की नीयत ठीक नहीं रही? सामाजिक न्याय की आंधी में औद्योगिक विकास को हाशिए पर धकेलने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? आज से अगले कुछ हफ्ते तक बिहार से जुड़े गंभीर मुद्दों को टटोलने की कोशिश करेंगे, अपनी खास सीरीज ‘दर्द-ए-बिहार, क्यों नहीं बदला बिहार’ में ?
बिहार का पुराना गौरव कहां गया?
बिहार की मिट्टी में पैदा हर शख्स इस बात पर गर्व करता है कि ये धरती महान चक्रवर्ती सम्राट अशोक की है। बुद्ध के ज्ञान की धरती है। विज्ञान की धरती है। आर्यभट्ट की धरती है। इसी धरती से चाणक्य ने दुनिया को कूटनीति और राजनीति का पाठ सिखाया। उसी बिहार की धरती के एक हिस्से में पहली बार गणतंत्र और लोकतंत्र का अंकुर फूटा। विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालय ने दुनिया को आधुनिक यूनिवर्सिटी की राह दिखाई। बिहार के चंपारण की धरती से ही महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह की शुरुआत की। लेकिन, बिहार का पुराना गौरव कहां गया? आखिर ऐसा क्यों है कि देश में प्रति व्यक्ति आय 1 लाख 84 हजार, 205 रुपये है और बिहार में प्रति व्यक्ति आय 66 हजार 828 रुपये। मतलब, देश की प्रति व्यक्ति की आय से 40% से भी कम। बिहार में रहने वाले ज्यादातर लोगों का एक बड़ा दर्द ये भी है कि उसकी कमाई देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में इतनी कम क्यों हैं? उसने बिहार में फैक्ट्रियां और कारखाने देश के दूसरे राज्यों की तरह क्यों नहीं हैं? हैरानी की बात है ये कि चुनाव नजदीक आने के साथ ही नीतीश सरकार नई मुख्य औद्योगिक नीति लाने की तैयारी में है, जिसका ड्राफ्ट करीब-करीब फाइनल बताया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि बिहार की नई औद्योगिक नीति देश के दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक Attractive, Industry Friendly और Investment आकर्षित करने वाली होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चुनाव से ठीक पहले नई औद्योगिक नीति लाने की जरूरत क्यों पड़ी? पिछले 20 साल से नीतीश कुमार की सरकार क्या कर रही थी? ऐसी नीति की जरूरत उन्होंने पहले क्यों नहीं महसूस की?
कारखानों के मामले में इतना पिछड़ा क्यों रहा बिहार?
प्रधानमंत्री मोदी ने जब मोतिहारी की जमीन से अपने संकल्प का जिक्र किया तो बिहार के ज्यादातर युवाओं के मन में एक ही सवाल उठ रहा होगा कि आखिर अबतक उनका राज्य कल- कारखानों के मामले में इतना पिछड़ा क्यों रहा? चुनाव करीब आते ही सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नौकरी और रोजगार की याद क्यों आने लगी? दरअसल, बिहार के चुनावी अखाड़े में इस बार रोजगार और पलायन का मुद्दा ड्राइविंग सीट पर है। हाल में नीतीश सरकार ने अगले 5 साल में बिहार में एक करोड़ नौकरी और रोजगार पैदा करने का लक्ष्य तय किया है। बिहार आइडिया फेस्टिवल के जरिए 10 हजार बेहतरीन स्टार्टअप आइडिया जुटाने की तैयारी है, चुनिंदा बिजनेस आइडिया को 10 लाख रुपये तक की फंडिंग, स्कॉलरशिप और इनक्यूबेशन सपोर्ट की बात कही जा रही है। इतना ही नहीं, एक नई उद्योग नीति भी लाने की तैयारी हो चुकी है।
लेकिन, ये सब अभी क्यों हो रहा है? पहले इस बारे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके उद्योग मंत्रियों ने क्यों नहीं सोचा ? 2005 से ही नीतीश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। बीच में कुछ महीने के लिए उनके इशारे पर ही जीतनराम मांझी सीएम बनाए गए और हटाए गए। उसके बाद से लगातार मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार के पास है। ऐसे में सवाल उठता है कि उद्योग लगाने और रोजगार पैदा करने को लेकर जो फुर्ती नीतीश कुमार अब दिखा रहे हैं, वो पिछले 20 वर्षों में क्यों नहीं दिखाई? देश के दूसरे हिस्सों की तरह बिहार में फैक्ट्रियां और कारखाने क्यों नहीं लगे।
देश में बढ़ीं लेकिन बिहार में घटीं फैक्ट्रियों की संख्या
- 2013-14 में बिहार में ऑपरेशन फैक्ट्रियों की संख्या 3132 थीं, वहीं देश में 1,85,690 रही।
- अगले साल प्रदेश में फैक्ट्रियों की संख्या घटकर 2942 हो गईं तो वहीं देश में बढ़कर 1,89,466 हुईं।
- 2015-16 में बिहार में रह गईं 2918 फैक्ट्रियां और देशभर में चालू फैक्ट्रियों की संख्या हो गई 1,91,062।
- 2018-19 में प्रदेश में चालू फैक्ट्रियों का ग्राफ थोड़ा सुधरा लेकिन, उसके बाद फिर आंकड़ा घटने लगा।
- 2021-22 में सूबे में चालू कारखानों की संख्या घटकर 2729 रह गईं। वहीं, देश में ये संख्या 2 लाख 576 पर पहुंच गई।
गुरुग्राम जैसे रोजगार के अवसर मिलेंगे गया जी में?
नीतीश सरकार में मौजूदा उद्योग मंत्री नीतीश मिश्रा दलील दे रहे हैं कि बिहार तेजी से बदल रहा है। गुलाबी तस्वीर दिखाई जा रही है कि अगले कुछ वर्षों में उद्योग-धंधों के मामले में बिहार कहां से कहां पहुंच जाएगा? बिहार के लोग हैरान हैं कि क्या वाकई गयाजी में गुरुग्राम जैसे रोजगार के अवसर मिलेंगे? कारोबारी मिजाज में मुंबई को टक्कर देने लगेगा मोतिहारी? क्या बिहार के हर क्षेत्र में इतने औद्योगिक पार्क खुल जाएंगे कि वहां के युवाओं को रोजगार के लिए किसी दूसरे राज्य में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी? कभी भारत के नक्शे पर बिहार की पहचान चीनी के कटोरा के तौर हुआ करती थी, वहां चीनी की 33 मिल खड़ी थी, जिनमें पूरे देश का 40% चीनी का उत्पादन होता था लेकिन, Bihar Economic Survey के मुताबिक, सूबे की 9 चीनी मिलों में 68.77 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ। 1977 से 1985 के बीच बिहार सरकार ने करीब 15 से अधिक चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया था। कुछ साल बाद एक-एक कर चीनी मिलों पर ताला लगना शुरू हो गया। कुछ इसी तरह का हाल प्रदेश की चावल मिलों का भी हुआ।उदारीकरण की हवा में पूरे देश में तेजी से नई फैक्ट्रियां लग रही थीं, वहीं बिहार में पहले से चल रही फैक्ट्रियों के शटर भी गिर रहे थे। बिहार की सत्ता में बैठे हुक्मरान अपनी सहूलियत के हिसाब से सूबे में फैक्ट्रियां और निवेश नहीं आने की कालचक्र के हिसाब में महीन अंदाज में तर्क गढ़ रहे थे।
आई नई नीति लेकिन नहीं बनी बात
वो महीना सितंबर का था और साल 2020 का। बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान जोरों पर था। उसी दौर में नीतीश कुमार ने एक बयान दिया कि ज्यादातर उद्योग समुद्र के किनारे के राज्यों में लगते हैं। हम लोगों ने बहुत कोशिश की। नीतीश कुमार शायद ये बात भूल गए कि पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश जैसे राज्य तो समुद्र किनारे नहीं बसे हैं। फिर भी वहां फैक्ट्रियों और कारखानों की बहार है। नीतीश सरकार में मौजूदा उद्योग मंत्री नीतीश मिश्रा दावा करते हैं कि बिहार तेजी से बदल रहा है। तेजी से नए कारखाने खुल रहे हैं। नीतीश सरकार में फरवरी 2021 से लेकर अगस्त 2022 तक यानी करीब डेढ़ साल उद्योग मंत्री की जिम्मेदारी संभालने वाले शाहनवाज हुसैन कहते हैं कि जब मुझे बिहार में उद्योग मंत्री बनाया गया था तो लोग कहते थे कि जब बिहार में उद्योग ही नहीं है तो किस बात के उद्योग मंत्री? लेकिन, शाहनवाज हुसैन की दलील है कि उन्होंने जो शुरुआत की, उसका रिजल्ट अब सामने आने लगा है। ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश कुमार तो 2005 में ही बिहार के सीएम बन गए थे फिर, 2021 तक बिहार उद्योगों के मामले में पिछड़ा क्यों रहा? एक सच ये भी है कि बिहार में 2006 में भी एक उद्योग नीति आई लेकिन, बात नहीं बनी। फिर 2011 में एक नीति लाई गई तब भी बात नहीं बनी तो 2016 में Bihar Industrial Investment Promotion Policy आई लेकिन, रोजगार के लिए बिहार के लोगों का देश के दूसरे राज्यों में पलायन का सिलसिला नहीं रुका। खुद, जेडीयू नेता और कभी नीतीश सरकार में उद्योग मंत्री रह चुके श्याम रजक दलील देते हैं कि भले ही बिहार में उद्योगों की बहार नहीं आईं लेकिन, शून्यता भी नहीं है।
पटना जंक्शन से रोजाना करीब 150 लंबी दूरी की ट्रेन गुजरती हैं, जिनमें सवार होकर हजारों लोग बेहतर जिंदगी का सपना लिए देश के दूसरे राज्यों की ओर निकलते हैं। ये सिलसिला पिछले कई दशकों से बदस्तूर जारी है क्योंकि, बिहार में रोजगार के लिए बेहतर मौका नहीं है क्योंकि, बिहार में कल-कारखाने गिनती के हैं। पिछले 20 वर्षों में बिहार में विकास और बदलाव की बहुत बातें हुईं। साल 2006 में सूबे में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए Bihar Industrial Incentive Policy लाई गयी। इस नीति के आने के साल भर बाद तब दुनिया के दस टॉप बिजनेस टायकून की लिस्ट में शामिल और भारत के पहले खरबपति मुकेश अंबानी भी निवेश की संभावनाओं को टटोलने बिहार पहुंचे।
किन वजहों से दूर रहे कारोबारी?
शुरुआती दौर में छोटे-बड़े कारोबारियों ने बिहार में उद्योग लगाने और निवेश में दिलचस्पी दिखाई लेकिन, सूबे की तस्वीर नहीं बदली। दरअसल, नीतीश सरकार ने अपनी Bihar Industrial Incentive Policy, 2006 में जो वादा किया था, वो कारोबारी घरानों को जमीन पर पूरा होता नहीं दिखाई दे रहा था। इंफ्रास्ट्रचर की पहले से कमी, कानून-व्यवस्था काबू में नहीं थी। अफसरों का उद्योगों को लेकर उदासीन रवैया, वादे के मुताबिक भूमि अधिग्रहण नहीं और सरकारी सब्सिडी देने में अडंगेबाजी हुई।
पिछली उद्योग नीति की कमियों को दुरुस्त करने के मकसद से कुछ सुधारों के साथ 2011 में एक नई उद्योग नीति लाई गई लेकिन, इसका भी खास फायदा नहीं दिखा। फिर 2016 में एक और उद्योग नीति लाई गयी। नीतीश सरकार सूबे में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए नीति पर नीति तो ला रही थी लेकिन, बिहार की जमीन पर फैक्ट्रियों की बहार नहीं दिख रही थी। ऐसे में नीतीश कुमार पहले भी उद्योग और रोजगार के मोर्चे पर विपक्ष के निशाने पर रहे हैं। नेताओं की बोली उनकी पक्ष-विपक्ष वाली भूमिका के हिसाब से बदलती रहती है। लेकिन, उद्योग-धंधों के मामलों में बिहार के पिछड़ेपन की तस्वीर बिल्कुल शीशे की तरह साफ है जिसे छिपाना नामुमकिन जैसा है ।
फैक्ट्री के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर ब्यूरोक्रेसी की अडंगेबाजी दूर करने का रास्ता भी निकालने की कोशिश हुई। सिंगल विंडो क्लीयरेंस का रास्ता खोला गया। एक नई एग्जिट नीति लागू की गई, जिसमें उद्योगपतियों को बंद कारखानों की जमीन बियाजा को वापस सौंपने और पहले से जमा लीज राशि वापस लेने की व्यवस्था बनाई गयी। हैरानी की बात ये है कि बिहार जैसे अपार संभावनाओं वाले राज्य में जितने MoU साइन हो रहे हैं. जितने बिजनेस प्रस्ताव आ रहे हैं। उसमें से कितने उद्योग लग रहे हैं।
चौंकाने वाले आंकड़े
एक अनुमान के मुताबिक, साल 2019-20 में 248 प्रस्ताव आए जिसमें से 89 उद्योग लगे। 2020-21 में 284 प्रस्ताव आए लेकिन उद्योग लगे 53। 2021-22 में 579 प्रस्ताव आए और उद्योग लगे 72। 2022-23 में 430 प्रस्ताव आए लेकिन उद्योग लगे 83। 2023-24 में 393 प्रस्ताव आए और उद्योग लगे 88।
बिहार के मौजूदा उद्योग मंत्री से लेकर पूर्व उद्योग मंत्री तक दलील दे रहे हैं कि अगले 5 साल में बिहार में उद्योगों की बहार आ जाएगी। हालिया आंकड़ों का हवाला दिया जा रहा है कि अब बिहार में 1000 करोड़ रुपये से ऊपर के प्रोजेक्ट आ रहे हैं। आज की तारीख में फूड प्रोसेसिंग,मैन्युफैक्चरिंग,इथनॉल,टेक्सटाइल,प्लास्टिक,हेल्थकेयर और,रिन्यूअल एनर्जी में बिहार में उद्योग लग रहा है। गया का डोभी और पटना का बिहटा भी उद्योग के केंद्र बन रहे हैं। मार्च 2024 तक बिहार में 586 स्टार्टअप थे, जो सालभर में बढ़कर 1522 हो गए। 2016 के बाद की 915 चालू यूनिट में 10,415 करोड़ का निवेश है, जिनमें 41, 816 लोगों को रोजगार मिला हुआ है लेकिन, आज भी बिहार में जितने उद्योग प्रस्ताव आ रहे हैं, उसकी तुलना में फैक्ट्रियां बहुत कम खड़ी हो रही हैं।
नेताओं में एक खास गुण होता है। लोगों को उम्मीदों के घोड़े पर तुरंत चढ़ा देते हैं। चुनावी बयार के बीच बिहार के लोगों को बताया जा रहा है कि 2025 से 2030 के बीच प्रदेश के हर हिस्से में इतनी नई फैक्ट्रियां-कारखाने और छोटे-बड़े उद्योग लग जाएंगे कि रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बिहार में सत्ता संभाल रहे लोग दलील दे रहे हैं कि अब उद्योगों के लिए Ecosystem तैयार हुआ है। गयाजी में बिहार की पहली इंडस्ट्रियल टाउनशिप बनेगी। दो स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनेगा। ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि जब पिछले 20 साल में उद्योगों की बाहर नहीं आई तो क्या गारंटी है कि अगले पांच वर्षों में बिहार उद्योग-धंधों के मामले में टॉप गियर में दौड़ लगाएगा? बिहार के औद्योगिक विकास को आंकड़ों के चश्मे से देखने की कोशिश करते हैं। Economic Survey of Bihar 2024-45 में सूबे में चल रही फैक्ट्रियों की स्थिति का जिक्र है।
इसके मुताबिक, साल 2022-23 में बिहार में कुल 3307 फैक्ट्रियां थीं, जिनमें से 2782 चालू थीं। इसी अवधि में देशभर में 2 लाख 65 हजार 523 फैक्ट्रियां काम कर रही थीं। इस आंकड़े को थोड़ा और आसान भाषा में समझते है, हमारे देश की आबादी में बिहार की हिस्सेदारी करीब 9 फीसदी है जबकि देशभर में चालू फैक्ट्रियों में बिहार की हिस्सेदारी सिर्फ 1.34% है। वहीं, प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी बिहार के लोग बहुत पीछे हैं। अगर बिहार में बदलाव की आंधी चल रही है। नए-नए औद्योगिक क्षेत्र खड़े हो रहे हैं तो बिहार के युवा रह साल लाखों की तादाद में रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में क्यों जा रहे हैं? एक आंकड़े के मुताबिक, बिहार के 2 करोड़ 90 लाख लोग रोजगार के लिए दूसरे राज्य में रह रहे हैं। इसमें से सबसे अधिक लोग दिल्ली गए हैं।
ये रहे आंकड़े
- दिल्ली में 19.34 %
- झारखंड में 14.12 %
- पश्चिम बंगाल में 13.65 %
- महाराष्ट्र में 10.55 %
- यूपी में 10.24 %
- हरियाणा में 7.06 %
- पंजाब में 6.89 %
- गुजरात में 4.79 %
पूर्व उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन का कहना है कि बिहार के लोगों को जहां भी अवसर मिलेगा जाएंगे, अगर चांद पर अवसर मिलेगा तो वहां भी जाएंगे। बिहार के लोगों के DNA में है अवसरों को तलाशना। वाकई जिसे जहां बेहतर अवसर मिलेगा, वहां रोजगार के लिए जाएगा। अगर इस दलील को मान लिया जाए तो महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब या हरियाणा से कितने प्रतिशत लोग बेहतर अवसर की तलाश में बिहार पहुंचते हैं ? पंजाब के कितने प्रतिशत मजदूर बिहार के खेतों में काम करते हैं? आंकड़े बताते हैं कि 15.8%लोग रोजगार के लिए बिहार से दूसरे राज्य में पलायन करते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 6.1% है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी बिहार बहुत पीछे है।
- साल 2011-12 में देश में प्रति व्यक्ति आय 63,462 रुपये थी । वहीं बिहार में सिर्फ 23,525 रुपये ।
- साल 2015-16 में देश में प्रति व्यक्ति आय 94,797 रुपये थी । तो बिहार में सिर्फ 33,218 रुपये ।
- साल 2019-20 में देश में प्रति व्यक्ति आय 1,32,341 रुपये थी..तो बिहार में सिर्फ 48,263 रुपये ।
- साल 2023-24 में देश में प्रति व्यक्ति आय 1,84,205 रुपये थी…तो बिहार में सिर्फ 66,828 रुपये ।
बिहार में क्यों नहीं खुले प्राइवेट संस्थान या यूनिवर्सिटी?
पिछले कुछ दशकों में बिहार में पढ़ाई-लिखाई का स्तर गिरा है, जिससे सूबे के हर साल करीब 5 लाख युवा पढ़ाई के लिए देश के दूसरे हिस्सों का रूख करते हैं। जो नामी सरकारी या प्राइवेट यूनिवर्सिटी में दाखिला लेते हैं? ऐसे में सवाल उठता है कि महाराष्ट्र की सिम्बायोसिस और डीवाई पाटिल मेडिकल कॉलेज, कर्नाटक की मणिपाल यूनिवर्सिटी, तमिलनाडु की वेल्लोर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, राजस्थान की बिट्स पिलानी, यूपी की एमिटी, गलगोटियां और शारदा यूनिवर्सिटी जैसे प्रोफेशनल कोर्स के लिए बिहार में प्राइवेट संस्थान या यूनिवर्सिटी क्यों नहीं खुले? बिहार के संसाधनों के बाहर जाने और प्रतिभा पलायन के लिए कौन जिम्मेदार है? वहां से निकलकर लोग देश के दूसरे हिस्सों में बिजनेस में झंडा गाड़े हुए हैं लेकिन, पिछले कई दशकों से बिहार की आबोहवा कुछ ऐसी रही है जिसमें दूसरे राज्यों में वर्षों रहते शोहरत और दौलत कमा चुके ज्यादातर बिहारी वापस लौटने, फैक्ट्री या यूनिवर्सिटी लगाने में हिचकते हैं?
आज की तारीख में दलील दी जा रही है कि बिहार इथेनॉल इंडस्ट्री में नंबर वन है। सूबे में 2011 में ब्रिटानिया ने अपनी पहली फैक्ट्री लगाई और 2023-24 में दूसरी फैक्ट्री भी खड़ी हो गई। बेगूसराय में पेप्सी की एक यूनिट शुरू हुई और दूसरा प्लांट बक्सर में तैयार है। बिहार के लोगों को रोजगार के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा लेकिन, एक सच ये भी है कि रोजगार के लिए बिहार के 2 करोड़ 90 लाख लोग देश के दूसरे हिस्सों में रह रहे हैं। सत्ता पक्ष से जुड़े लोग दलील देते हैं कि ये पलायन नहीं बेहतर अवसर की तलाश है, जिसमें बिहार के लोग हमेशा आगे रहे हैं। हकीकत ये है कि बिहार में फैक्ट्री या कारखानों का अकाल होने की वजह से युवाओं ने देश के दूसरे हिस्सों का रुख किया। फैक्ट्री और कल-कारखानों की स्थापना के लिए Ecosystem तैयार करने की जिम्मेदारी राज्य की है। बिहार में जिस तरह तेजी से क्राइम बढ़ रहा है। कारोबारियों की हत्या हो रही है। हर महीने औसतन सवा दो सौ से अधिक मर्डर हो रहे हैं। ऐसे में उद्योगपति क्यों अपनी जान खतरे में डाल कर बिहार में निवेश करना चाहेंगे?
कानून-व्यवस्था को दुरुस्त रखना राज्य की जिम्मेदारी है। गृह मंत्रालय भी नीतीश कुमार के पास है। उद्योग से लेकर प्रति व्यक्ति आय तक के मोर्चे पर बिहार के पिछड़ने के लिए नीतीश कुमार की जिम्मेदारी इसलिए ज्यादा बनती है क्योंकि पिछले 20 साल से सूबे की ड्राइविंग सीट पर वही बने हुए हैं। उनकी सीएम वाली कुर्सी तो सुरक्षित रही लेकिन,बिहार की किस्मत नहीं बदली। नीतीश राज से पहले बिहार की सत्ता में राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव थे। सोशल जस्टिस का एजेंडा इस हद तक आगे बढ़ाया गया जिसमें उद्योगों के फलने-फूलने के लिए शायद जगह ही नहीं थी। आजादी के बाद की केंद्र सरकार की एक खास नीति को भी बिहार के औद्योगिक पिछड़ेपन की वजह माना जाता है।
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बिहार के पीछे रहने की तीन वजहें
आजादी के समय बिहार के एक हिस्से में खेती-बाड़ी के लिए उपजाऊ जमीन थी तो दूसरे हिस्से में बेहिसाब खनिज। कुदरत ने जिस बिहार को इतना धनी बनाया-उसके आजादी के बाद तरक्की की दौड़ में पिछड़ने की तीन खास वजह मानी जाती है। पहली, 1950 के दशक की freight equalization policy। दूसरी, बिहार की Feudal or Semi Feudal Society जो पारंपरिक खेती और कारोबार से इतर जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी। तीसरी, वहां के सामाजिक ताने-बाने और मिजाज को देखते हुए राजनेताओं और नौकरशाहों ने उद्योग लगाने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई ।
भारत की आधी खनिज संपत्ति इसी प्रांत की जमीन में थी लेकिन, उसका फायदा देश के दूसरे राज्यों को मिल रहा था। खनिजों के सभी हेडक्वार्टर बिहार से बाहर थे और जिससे उसका बिक्री कर उन्हीं राज्यों को मिलता था। हालांकि, आजादी के शुरुआती वर्षों में बिहार में औद्योगिक विकास पर भी खासा जोर रहा। श्रीकृष्ण नारायण सिंह के दौर में कोसी, चाचन, दामोदर घाटी जैसी परियोजनाएं शुरू हुईं। हटिया में एचईसी प्लांट और बोकारो स्टील प्लांट लगा। उस दौर में सूबे में औद्योगिकरण की एक बुलंद तस्वीर बेगूसराय के बरौनी में दिखी, जहां रिफाइनरी लगी। जहां NTPC का प्लांट लगा, जहां खाद का कारखाना लगा। इससे एक ऐसा Eco-System तैयार हुआ, जिसने लोगों की जिंदगी बदल दी लेकिन,1960 के दशक में डॉक्टर लोहिया ने पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए जो राजनीतिक आंदोलन शुरू किया, पहली मुखर प्रयोगशाला बना बिहार। साल 1967 में बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। उसके बाद बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर फिसलन बढ़ गयी। हुक्मारानों की पहली प्राथमिकता अपनी सरकार बचाना बन गया। 1977 में कर्पूरी ठाकुर के दौर में फिर से नए सिरे से उद्योग लगाने की पहल हुई ।
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चीनी ही नहीं राइस मिलों पर भी लगे ताले
साल 1977 से 1985 के बीच बिहार सरकार ने 15 से अधिक चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया। हालात कुछ ऐसे बने की राइस मिलों के भी शटर तेजी से गिरने लगे। अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति के बीच सवर्ण परिवारों के बच्चे पढ़ाई और रोजगार के लिए दूसरे राज्यों की ट्रेन पकड़ने लगे। 1990 में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लालू यादव बैठे, उन्होंने सामाजिक न्याय के एजेंडा को इतने प्रचंड प्रवाह से आगे बढ़ाया, जिसमें उद्योग और औद्योगिक विकास बहुत पीछे छूट गया। बिहार की छवि कुछ ऐसी बनी, जिसमें पूंजीपतियों को उद्योग लगाना घाटा या कहें पूंजी डुबाने जैसा सौदा लगने लगा।
आजादी से पहले जिस बिहार में 33 चीनी मिलें हुआ करती थीं, जो घटते हुए 9 पर आ गई है। सूबे में राइस मिलों की हालत भी कमोबेश शुगर मिलों जैसी ही है। ऐसे में बिहार में उद्योग और निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए जिस नीति को लाने की तैयारी है, उसके ऑफर कारोबारी घरानों को कितना आकर्षित करेंगे, ये अभी दूर की बात है। कहने में बहुत अच्छा लगता है बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट, मेक इन बिहार, सेल इन बिहार लेकिन, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बिहार के नेता, अफसर और लोग तीनों को मिलकर पूरी ईमानदारी से काम करना होगा। चुनावी मौसम में नए-नए ऐलान वाली सोच से ऊपर उठना होगा।