बिहार में इन दिनों सियासी समीकरणों की बात हो रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात हो रही है। डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा की बात हो रही है। चिराग पासवान की बात हो रही है। तेजस्वी यादव की बात हो रही है। प्रशांत किशोर फैक्ट्रर की बात हो रही है। बिहार में जोर-शोर से बात बदलाव की हो रही है। ऐसे में एक सवाल उठ रहा है कि क्या वाकई बिहार के स्कूल और कॉलेजों की तस्वीर बदलेगी? क्या कभी वो दिन भी आएगा, जब बिहार के छात्रों को ऊंची तालीम के लिए दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू नहीं जाना पड़ेगा? न्यूज 24 की स्पेशल सीरीज ‘दर्द-ए-बिहार’ में आज बात बिहार की दम तोड़ती शिक्षा व्यवस्था की बात।
20 साल से सीएम नीतीश कुमार लेकिन…
पिछले 20 साल में 9 महीना माइनस कर दें तो बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार जमे हुए हैं। नीतीश सरकार का दावा है कि शिक्षा व्यवस्था में बहुत सुधार हुआ है। इस बीच CAG की रिपोर्ट में 70,877 करोड़ रुपये के खर्च का हिसाब नहीं देने का मामला सामने आया है। इसमें से 12, 623 करोड़ रुपया शिक्षा विभाग के खाते का भी है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर गड़बड़ी कहां है? शिक्षा के लिए भारी-भरकम बजट के बाद भी सूबे के स्कूल-कॉलेजों की स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो रहा है? अगर सुधार हुआ है तो फिर पढ़ाई के लिए छात्र बिहार से बाहर क्यों जा रहे हैं? देश के दूसरे हिस्सों की तरह बिहार में भी प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए संस्थान क्यों नहीं खुल रहे हैं? Symbiosis, Sharda, Manipal जैसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिहार में क्यों नहीं हैं? आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है? दर्द-ए-बिहार में आज बात शिक्षा व्यवस्था बीमार की?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में 17,173 बिहार के छात्रों के आवेदन
पटना जंक्शन से रोजाना लंबी दूरी की करीब डेढ़ सौ ट्रेन गुजरती है। जुलाई महीने में इन ट्रेनों में बड़ी तादाद ऐसे छात्रों की होती है, जो ऊंची पढ़ाई के लिए देश के दूसरे हिस्सों का रुख करते हैं। क्योंकि, उनका भरोसा सूबे की सुरक्षा व्यवस्था से उठ चुका है। आर्थिक रूप से सक्षम ज्यादातर माता-पिता को लगता है कि बिहार के कॉलेजों में पढ़ाने का मतलब है बच्चे का भविष्य चौपट करना। शायद यही वजह है कि छात्र ऊंची तालीम के लिए देश के दूसरे शहरों में दाखिले की दौड़ में जुट जाते हैं। ये सिलसिला पिछले 40-50 वर्षों से जारी है। इस साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला के लिए 2.39 लाख आवेदन आए, जिसमें 17,173 बिहार से थे।
एक अनुमान के मुताबिक, जेएनयू में हर चौथे छात्र का बिहार कनेक्शन है। Bihar Caste Survey Report के आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 5.52 लाख छात्र देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई करते हैं। मान लीजिए एक बच्चा ऊंची तालीम में पांच साल लगाता है। इस हिसाब से सालाना 1 लाख 10 हजार बच्चे पढ़ाई के लिए बिहार से बाहर निकल रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था को किसने बीमार बनाया? क्या 20 साल का समय बिहार की बीमार शिक्षा व्यवस्था को ठीक करने के लिए कम था? सरकारी आंकड़ों में सूबे की शिक्षा व्यवस्था की जो तस्वीर दिखाने की कोशिश हो रही, वो कितनी सही है। स्कूल की शिक्षा बुनियाद होती है, ऐसे में बिहार के सरकारी स्कूलों में शिक्षा इंतजामों का एक टूर करना जरूरी है।
135 बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी 5 शिक्षकों पर
बिहार में शिक्षा व्यवस्था के सरकारी दावों की पोल सीतामढ़ी जिले के बाजपट्टी प्रखंड के एक प्राइमरी स्कूल ने खोल दी। 2003 में स्थापित ये स्कूल आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। इस स्कूल की स्थापना के दो साल बाद ही नीतीश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन, इस स्कूल की किस्मत नहीं बदली। 135 बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी पांच शिक्षकों पर है। गर्मी में इस पेड़ का सहारा है और बरसात में भागकर बच्चे बगल की जर्जर इमारत में शरण लेने को मजबूर हैं ।
गया नगर निगम के वार्ड नंबर 46 में आने वाला स्कूल 1998 से ही मंदिर कैंपस में ही चल रहा है। इस स्कूल को आज तक न बिल्डिंग मिली और ना बच्चों को बुनियादी सुविधाएं लेकिन, मिड डे मिल टाइम से बच्चों को मिल जाता है।
कटिहार के मनिहारी नगर पंचायत के उर्दू प्राथमिक विद्यालय में तो एक ही क्लासरूम में पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं। स्कूल के हालात बयां कर रहे हैं कि शिक्षा व्यवस्था सुधारने को लेकर सत्ता पक्ष कितना गंभीर रहा है। इस स्कूल की स्थापना साल 1956 में हुई। कितनी सरकारें आई-गईं लेकिन इस उर्दू प्राथमिक विद्यालय की तस्वीर नहीं बदली।वैशाली के लालगंज में भी खंडहर इमारत में एक है। यहां पहली से 8वीं तक की पढ़ाई होती है। आसपास के इलाके के लोग बिहारी शुक्ल मध्य विद्यालय के नाम से इसे जानते हैं। इस स्कूल में 80 से अधिक बच्चों का दाखिला है। टीचर और बच्चों को डर सताता रहता है कि कभी इमारत भरभरा कर गिर न जाए ।
अररिया, बेगूसराय में स्कूल की स्थिति
अररिया के फारबिसगंज में बिहार की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलती एक तस्वीर वार्ड नंबर दो में दिखी। शेड के नीचे चल रहे स्कूल में बच्चों को अपने बैठने का इंतजाम खुद करना होता है। इस प्राइमरी स्कूल में 93 छात्रों का दाखिला है, जिन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी 4 शिक्षकों के ऊपर है। इसी तरह बेगूसराय में शिक्षा विभाग से महज 200 मीटर की दूरी पर खपड़े के इसी भवन में प्राथमिक विद्यालय चल रहा है। फिलहाल इस स्कूल में 5 टीचरों की तैनाती है और 150 बच्चों ने इसमें दाखिला ले रखा है।
तेजी से बदलती दुनिया के हिसाब से बच्चों को तैयार करने के लिए शुरुआती दौर से ही हाईटेक तरीके से ट्रेंड करने पर जोर दिया जा रहा है। कंप्यूटर कोडिंग सिखाया जा रहा है। AI से परिचय कराया जा रहा है। वहीं, बिहार के सरकारी स्कूलों की हालत बता रही है कि वहां की शिक्षा व्यवस्था कितनी पीछे है। हालांकि, सूबे के शिक्षा मंत्री सुनील कुमार दावा कर रहे हैं कि बिहार के स्कूलों की तस्वीर बदल चुकी है ।
2005 में सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए जिस तरह की योजनाएं लेकर आए। उससे स्कूलों में दाखिला तो बढ़ा लेकिन, शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं दिख रहा है। बिहार में स्कूली शिक्षा को जिस तरह हुक्मरानों ने लिया, उसमें स्कूल बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं और पढ़ाई का स्तर चिंताजनक है। ऐसे में सरकारी आंकड़ों में स्कूली शिक्षा की जैसी तस्वीर दिखाई जा रही है, वो जमीन पर कुछ और दिख रही है ।
183 सरकारी स्कूलों के पास नहीं है बिल्डिंग
जब बुनियाद ही कमजोर होगी तो इमारत कहां से मजबूत होगी। कहीं पेड़ के नीचे पाठशाला लग रही है, कहीं बच्चों के बैठने तक का इंतजाम नहीं है। कहीं, स्कूल की बिल्डिंग खंडहर में बदल चुकी है, जहां बच्चे अपनी जान पर खेलकर पढ़ाई करते हैं। RTI से मिली जानकारी के मुताबिक, बिहार में 183 सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जिसके पास अपनी बिल्डिंग नहीं है। बिहार के स्कूल इतने बीमार हैं, जबकी नीतीश सरकार अपने बजट का सबसे अधिक करीब 20% शिक्षा पर खर्च करती है। बिहार का दर्द ये है कि कहीं स्कूल की बिल्डिंग है तो टीचर नहीं, जहां टीचर हैं उन्हें बच्चों को पढ़ाने से अलावे कई दूसरे काम करने पड़ते हैं। जो टीचर हैं उनमें से ज्यादातर काबिल नहीं हैं। नीतीश सरकार में सरकारी स्कूलों में छात्रों का दाखिला तो बढ़ा। साक्षरता दर के आंकड़े भी सुधरे लेकिन, एक सच्चाई ये भी है कि बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत खराब है,जिससे बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की तादाद बहुत अधिक है। 2023-24 में बिहार में सेकेंडरी लेवल पर स्कूल छोड़ने की दर 20.86% रही । अब ये समझना जरूरी है कि बिहार में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर कितना गिरा और कैसे गिरा?
साल 2022-23 में बिहार में सरकारी स्कूलों में 24,543,695 बच्चों के एडमिशन हुए तो 2023-24 में 21,348,149 बच्चों का एडमिशन हुआ। मतलब, 2023-24 में बिहार के सरकारी विद्यालयों में 3195546 बच्चों के नाम कटे। माना जा रहा है कि आधार अनिवार्य किए जाने से घोस्ट स्टूडेंट कम हुए हैं। प्राइमरी एजुकेशन में बिहार में एनरोलमेंट का आंकड़ा अच्छा रहा है । लेकिन, 10वीं और 12 वीं के बाद पढ़ाई छोड़ने वालों की संख्या बड़ी है। बिहार के करीब 83% बच्चों के कॉलेज का मुंह नहीं देख पाते।
बिहार के सरकारी स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था के बीमार होने की एक वजह बड़ी काबिल शिक्षकों की कमी मानी जाती है। वहीं,सूबे के शिक्षा मंत्री दावा हैं कि शिक्षकों की भर्ती और ट्रेनिंग का काम तेजी से हुआ है। बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरने की एक बड़ी वजह शिक्षकों को कई तरह के कामों में लगाना भी है । मसलन, शिक्षक पढ़ाने के अलावा
1. मिड डे मिल की व्यवस्था
2. जनगणना
2. मकान गणना
3. पशु गणना
4. जातिगत जनगणना
5. बीएलओ और चुनावी ड्यूटी
6. सरकारी योजनाओं का प्रचार
9. जागरूकता अभियान
10. परीक्षाओं में सहयोग
जैसे गैर शैक्षणिक काम भी करने पड़ते हैं। इससे स्कूली छात्रों की पढ़ाई प्रभावित होती है और उनकी शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर पड़ने लगती है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त होने की वजह से प्राइवेट स्कूल और कोचिंग इंडस्ट्री के फलने-फूलने का रास्ता साफ होता गया। बिहार के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का जो स्तर है, उस पढ़ाई के दम पर सरकारी स्कूलों में पढ़े छात्रों के लिए आईआईटी या एम्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला के लिए एक्जाम क्रैक करना किसी चमत्कार जैसा ही है। ऐसे में बिहार के स्कूलों में पढ़ाई के बाद कोचिंग के लिए भी छात्र दिल्ली या राजस्थान के कोटा जैसे शहरों के लिए ट्रेन पकड़ते हैं।
टीचर खुद ट्रेंड नहीं तो बच्चों को क्या सिखाएंगे?
बिहार में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का माहौल ठीक करने के लिए कई मोर्चों पर एक साथ काम करने की जरूरत है। बीमार बीमार व्यवस्था को ICU से बाहर निकालने के लिए काबिल शिक्षकों को जोड़ना होगा। समय-समय पर टीचरों की ट्रेनिंग का मैकेनिज्म भी बनाना होगा, जिससे दुनिया में तेजी से होते बदलावों के हिसाब से उन्हें अपडेट या अपग्रेड किया जा सके।
अगर टीचर की खुद ट्रेंड नहीं होंगे तो बच्चों को क्या सिखाएंगे?
अच्छी स्कूली शिक्षा की बुनियाद पर ही ऊंची तालीम की बुलंद इमारत खड़ी होती है। जो किसी भी इंसान, परिवार, समाज और राज्य की तरक्की की बुनियाद बनती है। बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की रस्म अदायगी होती रही।आंकड़ों का हवाला देते हुए बेहतर शिक्षा व्यवस्था का दावा किया जाता रहा लेकिन, वहां के कॉलेजों की पढ़ाई पर यूनिवर्सिटी की डिग्री को शक की नजरों से छात्र और उनके गार्जियन देखते रहे। यही वजह है कि बेहतर पढ़ाई के लिए, बेहतर करियर के लिए, बिहार से छात्रों के निकलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। मेरे एक सहयोगी ने बताया कि जब वो दिल्ली यूनिवर्सिटी पढ़ाई के लिए आया था और जिस कोर्स में एडमिशन लिया है, उस बैच में हर दूसरा छात्र पढ़ाई के लिए बिहार से आया। उस कॉलेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसरों में से कई बिहार से थे, जो कभी बतौर स्टूडेंट आए थे। बिहार से निकले छात्रों में से बहुत कम ही वापस लौटे और ज्यादातर Non Resident Bihari होकर रह गए हैं।
बिहार में सिर्फ 39 यूनिवर्सिटी
अब हिसाब लगाइए कि पिछले 4-5 दशकों में बिहार से कितना ब्रेन ड्रेन हुआ ? राज्य का कितना पैसा बाहर गया, अगर बिहार में भी अच्छे कॉलेज होते, यूनिवर्सिटी होती तो वहां से छात्र पढ़ाई के लिए दूसरे राज्यों में क्यों जाते? All India Survey on Higher Education के मुताबिक पूरे देश में 1,350 यूनिवर्सिटी हैं, जिसमें बिहार में सिर्फ 39 हैं। कभी पटना यूनिवर्सिटी की तुलना ऑक्सफोर्ड से होती थी लेकिन, आज की तारीख में पटना कॉलेज हो या बीएन कॉलेज सभी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। पढ़ाने वाले प्रोफेसरों की भारी कमी है।
अगर बिहार के कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में पढ़ाई का बेहतर माहौल होता तो शायद ये छात्र अपना घर-परिवार छोड़कर हजार किलोमीटर दूर दिल्ली नहीं आए होते। वैसे तो बिहार में यूनिवसिर्टी और कॉलेजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। साल 2018-19 में बिहार में जहां कुल 33 यूनिवर्सिटी थीं, वो 2023-24 में बढ़कर 39 हो गई । 2018-19 में कॉलेजों की संख्या 892 थीं, जो 2023-24 में बढ़कर 1197 हो गईं। लेकिन, बिहार के कॉलेजों में किस तरह की पढ़ाई हो रही है। इसे समझने के लिए पटना यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठत कॉलेजों की स्थिति जानना-समझना जरूरी है। 1863 में स्थापित पटना कॉलेज कभी उत्तर भारत में उच्च शिक्षा का बड़ा केंद्र हुआ करता था लेकिन, आज की तारीख में वहां के छात्र बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। लाइब्रेरी को नई किताबों का इंतजार है।
सिर्फ बुनियादी सुविधाएं ही नहीं कभी बिहार में उच्च शिक्षा का सबसे प्रतिष्ठत केंद्र रहा पटना कॉलेज प्रोफेसरों की कमी से भी जूझ रहा है । पटना कॉलेज की वेबसाइट के मुताबिक, इतिहास विभाग एक असिस्टेंट प्रोफेसर और तीन गेस्ट फैकल्टी के सहारे है। इसी तरह राजनीति विज्ञान विभाग भी एक असिस्टेंट प्रोफेसर और तीन गेस्ट फैकल्टी के भरोसे चल रहा है। दर्शनशास्त्र विभाग में सिर्फ दो असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और गणित विभाग में सिर्फ तीन असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
पटना यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों की भारी कमी
पटना यूनिवर्सिटी के ही बीएन कॉलेज में प्रोफेसरों की भारी कमी है । मसलन, पॉलिटिकल साइंस में 1 असिस्टेंट प्रोफेसर, तीन गेस्ट फैकल्टी, केमेस्ट्री में एक एसोसिएट प्रोफेसर, दो असिस्टेंट प्रोफेसर हैं तो इंग्लिश में एक एसोसिएट प्रोफेसर और 2 गेस्ट फैकल्टी है। दूसरे विभाग की भी कमोवेश ऐसी ही स्थित है। पटना के प्रतिष्ठित साइंस कॉलेज की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है ।
अभी मसला क्वालिटी एजुकेशन का है। साइंस कॉलेज की भी स्थिति अच्छी नहीं है। पटना कॉलेज की लाइब्रेरी की स्थिति बेकार है।
जब पटना यूनिवर्सिटी के टॉप कॉलेजों में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है, कॉलेज फैकल्टी की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में सूबे के दूसरे हिस्सों में खड़े कॉलेजों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। शायद यही वजह है कि बिहार के छात्रों को 12वीं पास करते ही पढ़ाई के लिए देश के दूसरे शहरों में खड़े संस्थान दिखाई देने लगते हैं ।
All India Survey of Higher Education के आंकड़ों के मुताबिक, 2021-22 में देश में ऊंची तालीम हासिल करने वाले छात्रों की संख्या 4,32,68,182 रही..इस दौरान बिहार में ऐसे छात्रों की संख्या 26,22,946 रही। ये आंकड़ा 18 से 23 उम्र के बीच पढ़ाई करने वाले छात्रों का है । एक अनुमान के मुताबिक, कॉलेज में दाखिला लेने के लिए बिहार का पांचवां छात्र देश के दूसरे हिस्सों का रूख करता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में इस साल दाखिला के लिए आवेदन करने वाले छात्रों में 17,173 बिहार से हैं । एक आंकड़े के मुताबिक, बिहार के 5.52 लाख छात्र देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई कर रहे हैं। विदेशों में भी बिहार के करीब 27 हजार छात्र पढ़ाई कर रहे हैं।
जरूरतों के हिसाब से पढ़ाई का माहौल नहीं
1980 और 1990 के दशक में ज्यादातर छात्र बिहार से इस लिए पढ़ाई के लिए दूसरे राज्यों का रूख करते थे क्योंकि, बिहार के विश्वविद्यालयों में चार साल की पढ़ाई पूरी करने में सात साल तक लग जाते थे। लेकिन, बिहार के विश्वविद्यालों में बहुत हद तक सेशन ठीक होने के बाद भी छात्रों के पलायन का सिलसिला शायद इसलिए नहीं रूक रहा है क्योंकि,आज की जरूरतों के हिसाब से पढ़ाई का माहौल नहीं है। बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं और अनुभवी प्रोफेसरों की कमी है ।
बिहार का एजुकेशन सिस्टम कैसे काम कर रहा है, इसे हाल की एक घटना से भी समझा जा सकता है। पटना यूनिवर्सिटी के पांच कॉलेजों में प्रिंसिपलों का सेलेक्शन योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि लॉटरी सिस्टम से हुआ। पटना कॉलेज के कई विभाग असिस्टेंट प्रोफेसर और गेस्ट फैकल्टी के भरोसे चल रहे हैं। यही हाल वहां बीएन कॉलेज का है। एक दौर वो भी था जब पटना यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में दाखिले के लिए होड़ लगी रहती थी। लेकिन, इस सत्र में पटना यूनिवर्सिटी के अंडर ग्रेजुएट कोर्सेज की कुल 4445 सीटों में से अभी 950 खाली पड़ी हुई हैं। बिहार में टेक्निकल और प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए अच्छे संस्थानों की कमी है। देश की आबादी में करीब 9% हिस्सेदारी वाले बिहार के सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में 14,469 सीटें हैं। इस आंकड़े का जिक्र बिहार इकोनॉमिक सर्वे में है।
बिहार में सिर्फ 7 प्राइवेट यूनिवर्सिटी
इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए होने वाली JEE MAIN में इस साल बिहार के 65 हजार छात्र शामिल हुए। ऐसे में JEE Main में एपियर छात्रों के आंकड़े के जरिए अनुमान लगाइए कि हर साल प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए कितने छात्र बिहार से बाहर निकलते होंगे ? जरूरी नहीं कि सभी का दाखिला सरकारी यूनिवर्सिटी में हो, प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए बड़ी तादाद में देश के दूसरे हिस्सों में खड़ी प्राइवेट यूनिवर्सिटी में भी दाखिला लेते हैं। लेकिन, बिहार में प्राइवेट यूनिवर्सिटी शुरू करना आसान नहीं है। पूरे देश में 503 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं,जिसमें सिर्फ 7 ही बिहार में हैं।
कभी नालंदा विश्वविद्यालय में तीन लाख से अधिक किताबें थीं। यहां दुनिया के कोने-कोने से पहुंचे करीब 10 हजार छात्र पढ़ाई करते थे। छात्रों को पढ़ाने के लिए 2700 से शिक्षक थे। जरा सोचिए, एक दौर वो भी था, जब दुनिया के कोने-कोने से पढ़ाई के लिए छात्र बिहार की धरती पर आते थे। लेकिन, पिछले 4-5 दशकों से बिहार के छात्र पढ़ाई के लिए देश-विदेश के दूसरे हिस्सों में जा रहे हैं । फिलहाल, बिहार में 4 केंद्रीय विश्वविद्याल हैं ।
- राजगीर में नालंदा विश्वविद्यालय
- मोतिहारी में महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय
- समस्तीपुर में डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय
- गया में दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
बिहार में खड़े केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति अच्छी है। लेकिन, स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का स्तर सवालों के घेरे में है। आज की तारीख में पारंपरिक पढ़ाई से ज्यादा प्रोफेशनल कोर्सेज पर जोर है, जिससे छात्रों को सिर्फ डिग्री ही नहीं कोर्स पूरे होते ही कैंपस प्लेसमेंट भी हो सके। आबादी के अनुपात में बिहार में प्रोफेशनल और टेक्निकल एजुकेशन के लिए अच्छे संस्थानों की कमी है। सूबे के सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में 2021-22 में 8774 सीटें थीं, जो 2024-25 में बढ़कर 14,469 हो गईं । इसी तरह पॉलिटेक्निक में 2021-22 में 11,211 सीटें थीं जो 2024-25 में बढ़कर 17,054 हो गईं ।
छात्रों को बेहतर शिक्षा देने के लिए देशभर में धड़ल्ले प्राइवेट यूनिवर्सिटी खुल रही हैं। लेकिन, हैरानी का बात ये है कि अब तक बिहार में सिर्फ 7 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं। दरअसल, बिहार में प्राइवेट यूनिवर्सिटी शुरू करने में कई तरह की चुनौतियां भी रही हैं।
बिहार में प्राइवेट यूनिवर्सिटीज की बहार नहीं आने की एक वजह सूबे में कानून-व्यवस्था का मुद्दा भी रहा है। बिहार से सटे उत्तर प्रदेश में 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं। मध्य प्रदेश में 20 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं। वहीं, राजस्थान में तो 44 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं। ऐसे में अगर बिहार के बीमार एजुकेशन सिस्टम को ठीक करना है तो सत्ता में बैठे हुक्मरानों को पूरी ईमानदारी से स्कूल-कॉलेजों की स्थिति ठीक करनी होगी। ऐसे संस्थानों का दोनों हाथ खोल कर इस्तकबाल करना होगा, जो ग्लोबल जॉब मार्केट के हिसाब से युवाओं को ट्रेंड कर सकें, तभी बिहार से छात्रों के पलायन की रफ्तार कम होगी।
कर्पूरी डिविजन नाम पर बदलाव
बिहार की शिक्षा व्यवस्था की बर्बादी की कहानी 1960 के दशक के आखिर में शुरू होने लगी, जब जाति की राजनीति को ड्राइविंग सीट पर लाकर सत्ता हासिल करने का खेल शुरू हुआ। उसी दौर में अंग्रेजी में पास होने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई। तब इस बदलाव को नाम दिया गया, कर्पूरी डिविजन। यूनिवर्सिटी और कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों को हथियार के रूप में नेता इस्तेमाल करने लगे। इससे यूनिवर्सिटी सेशन लेट होने लगा मतलब छात्रों को डिग्री हासिल करने में दो से तीन साल अधिक समय लगने लगा।
यूनिवर्सिटी पढ़ाई से अधिक राजनीति का अड्डा बन गई। पटना यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति की गर्भनाल से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का राजनीतिक उदय हुआ। लालू यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने चरवाहा विद्यालय खोलने का प्रयोग किया। नीतीश कुमार सत्ता में आए तो आंकड़ों में स्कूली शिक्षा सुधरती दिखी लेकिन, आज भी जमीन पर दम तोड़ रही है। नीतीश कुमार ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। सत्ता में बने रहने की इंजीनियरिंग में उन्होंने अच्छों-अच्छों को मात दी है। लेकिन, ये भी बहुत दुख की बात है कि आज की तारीख में बिहार के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों को जिस तरह की शिक्षा मिल रही है, उसके दम पर शायद ही वो Competitive exam में अच्छी रैंकिंग हासिल कर सकें।
कॉलेज-यूनिवर्सिटी से पास आउट होने पर छात्रों को डिग्री तो मिल रही है । लेकिन, Competitive Job Market में खड़े होने लायक गिनती के छात्र तैयार हो रहे हैं। अगर बिहार को सही मायने में बदलना है तो सबसे पहले ईमानदारी से स्कूल से कॉलेज तक पढ़ाई के सिस्टम को 360 डिग्री ठीक करना होगा। ऐसा Ecosystem बनाना होगा, जिसमें बिहार के छात्रों को पढ़ाई के लिए बेहतर संस्थान प्रदेश के भीतर मिले। दूसरे राज्यों से भी छात्र पढ़ाई के लिए बिहार की ट्रेन पकड़ें। सिर्फ प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के गौरव की बात करने से काम नहीं चलेगा। ईमानदारी से बिहार की शिक्षा व्यवस्था को ICU से बाहर निकालने के लिए कोशिश करनी होगी।