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उत्तराखंड: 38 साल पहले शहीद हुए लांस नायक के अवशेष घर पहुंचे, कुछ देर में होगा अंतिम संस्कार

नई दिल्ली: 1984 में सियाचिन में लापता हुए लांस नायक चंद्रशेखर हारबोल के अवशेष उत्तराखंड के हल्द्वानी स्थित उनके निवास पर पहुंच चुके हैं, जहां कुछ ही देर में पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। बता दें कि हारबोल के अवशेष 38 साल बाद दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में मिले […]

Edited By : Pulkit Bhardwaj | Updated: Aug 18, 2022 13:04
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Lance Naik Chandrashekhar Harbol
Lance Naik Chandrashekhar Harbol

नई दिल्ली: 1984 में सियाचिन में लापता हुए लांस नायक चंद्रशेखर हारबोल के अवशेष उत्तराखंड के हल्द्वानी स्थित उनके निवास पर पहुंच चुके हैं, जहां कुछ ही देर में पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। बता दें कि हारबोल के अवशेष 38 साल बाद दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में मिले थे।

 

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हारबोल की विधवा 63 वर्षीय शांति देवी ने इस संबंध में बयान जारी कर कहा था कि सेना की 19 कुमाऊं रेजीमेंट के अधिकारियों ने उन्हें इस संबंध में सूचना दी थी।

उन्होंने कहा कि यह सुनकर उनका दिमाग सुन्न हो गया था और वह मुश्किल से कुछ कह पाईं। मीडिया से हुई बातचीत में उन्होंने कहा, “लगभग 38 साल हो गए हैं। और धीरे-धीरे सारे पुराने घाव फिर से खुल गए… मैं 25 साल की थी जब वह लापता हो गए थे। 1975 में हमारी शादी हुई। नौ साल बाद जब वह लापता हो गए, तब मेरी दोनों बेटियां बहुत छोटी थीं। एक साढ़े चार साल का थी और दूसरा डेढ़ साल की।”

उन्होंने कहा, “हमने उनका तर्पण [मृतकों को जल चढ़ाने] किया और मैंने अपना जीवन अपने बच्चों की परवरिश के लिए समर्पित कर दिया। कई बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद, मैंने अपने बच्चों को एक गौरवान्वित माँ और एक शहीद की बहादुर पत्नी के रूप में पाला।”

 

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उन्होंने आगे जोड़ा, “अधिकारी, हमारे गांव और आस-पास के क्षेत्रों के लोग यहां आ रहे हैं। वह हमारे हीरो हैं। जैसा कि देश हमारे सैनिकों के बलिदान को याद कर रहा है, मुझे यकीन है कि उनका बलिदान भी याद किया जाएगा।”

हरबोल की बेटी कविता, जो अब 42 साल की हो चुकी है, ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि खुश रहना है या दुखी। उन्होंने कहा, “हमें उम्मीद नहीं थी कि वह इतने लंबे समय के बाद मिलेंगे। हमें बताया गया कि एक धातु की डिस्क ने सेना के नंबर के साथ उसके अवशेषों की पहचान करने में मदद की। लेकिन हिंदू परंपरा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करने के बाद कम से कम अब तो हमें चैन मिलेगा ही। पापा घर आ गए हैं लेकिन काश वो जिंदा होते और यहां सभी के साथ स्वतंत्रता दिवस मना पाते।”

गौरतलब है कि 1971 में कुमाऊं रेजीमेंट में शामिल हुए हारबोल पांच सदस्यीय गश्ती दल का हिस्सा थे, जो हिमस्खलन की चपेट में आ गया। इस हादसे के बाद पांचों जवानों में से किसी के भी शव बरामद नहीं हुए थे। उनकी रेजिमेंट ऑपरेशन मेघदूत के हिस्से के रूप में अप्रैल 1984 में पाकिस्तान को ग्लेशियर में रणनीतिक क्षेत्रों पर कब्जा करने से रोकने के लिए भारत की पूर्व-खाली कार्रवाई का हिस्सा थी।

 

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First published on: Aug 17, 2022 02:13 PM

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