Jagadguru Shri Kripalu Maharaj: कृष्ण भक्ति संप्रदाय में जगद्गुरु श्री कृपालु महाराज आधुनिक भारत के महान संत हुए हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि जब वे राधा-कृष्ण की भक्ति में भाव-विभोर होते थे, तो मौन हो जाते थे, उनपर मूर्छा छा जाती थी। ऐसा लगता था कि उनके तन से बिजलियां कौंध रही हो, वे दिव्यमय हो जाते थे। वे सूरदास, मीरा बाई की परंपरा के संत हैं, जिन्होंने कृष्ण भक्ति को आम जनता से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है। वर्तमान में देवकीनंदन महाराज, प्रेमानन्द महाराज, अनिरुद्धाचार्य महाराज आदि इसी कृष्ण भक्ति परंपरा के संत और कथावाचक हैं।
जगद्गुरु श्री कृपालु महाराज अपने उपदेशों में कहते थे कि केवल सनातन धर्म के ग्रंथों में ही नहीं ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के ग्रंथों में यह चर्चा मिलती है कि भगवान को प्राप्त करने में कोई न कोई शर्त जरूर होती है? यदि यह शर्त नहीं होती तो सभी जीव भगवत्प्राप्ति कर लेते। भगवान सबके अंदर बैठे हैं, फिर भी भगवान का लाभ नहीं मिल रहा है। भगवान हर जगह मौजूद हैं यानी सर्व-व्यापी हैं, फिर भी भगवान का लाभ नहीं मिल रहा है, इसके पीछे कुछ तो कारण है, कोई तो बात है, कुछ तो शर्त है?
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जाकी रही भावना जैसी…
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी’, इसका अर्थ यही है कि आपने जो देखना चाहा, आपको वही दिखा। आपकी ही भावना का फल मिला, भगवान का फल नहीं मिला। भावना तो मन से होती है और मन माया के अधीन है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है: ‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया’, मतलब यह कि यह माया अलौकिक है, अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है यानी इससे पार पाना कठिन है।
बस ये शर्त दिलाएगी भगवत्कृपा
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहते हैं, ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’, इस माया से पार पाना बेहद मुश्किल तो है, लेकिन असंभव नहीं है। जो व्यक्ति मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे बड़ी सरलता से पार कर लेते हैं। वे अर्जुन के कहते हैं कि जो मेरी ‘प्रपत्ति’ में आ जाएगा, वही मुझमें ‘शरणागत’ होगा। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि मस्तक और शरीर को गुरु और भगवान के चरण में गिर देना प्रपत्ति नहीं है, शरणागत होना नहीं है, यह प्रणाम करना हुआ। यह नकली शरणागति है, क्योंकि इसमें शरीर को गिराया, मन को नहीं गिराया, बुद्धि को नहीं गिराया, आत्मा को अर्पित नहीं किया।
मन-बुद्धि की शरणागति हो…
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि जब मन और बुद्धि समेत आत्मा की शरणागति होती हैं, तो वह ‘प्रपद्यन्ते’ है, यही ‘पूर्ण प्रपत्ति’ है, ‘पूर्ण प्रकृष्टम’ यानी सबसे बड़ा काम है। लेकिन यहां भगवान श्रीकृष्ण ने एक और शर्त लगा रखी है कि ‘केवल मेरी शरण’ में आने से शरणागति होगी, यानी ‘तुम्हारा मन मुझमें ही रहे’, तब तुम्हें भगवत्कृपा ही नहीं बल्कि मेरी कृपा भी प्राप्त होगी। जो इस शर्त को पूरा करते हैं, भगवान उनके साथ हो जाते हैं।
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