Dev Uthani Ekadashi Katha: हिन्दू धर्म में प्रत्येक साल कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी मनाई जाती है। इस बार यह मंगलवार 12 नवंबर, 2024 को यानी आज मनाया जा रहा है। इस एकादशी के दिन इस संसार के पालनकर्ता भगवान श्रीहरि विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा-उपासना करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
कहते है कि इस एकादशी का व्रत रखने से सभी पापों से छुटकारा मिलता है और मान्यता है कि देवउठनी एकादशी के दिन व्रत कथा का पाठ जरूर करना चाहिए, अन्यथा इसके पाठ के बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। इस व्रत की दो कथाएं बेहद प्रचलित और विश्वसनीय हैं। आइए जानते हैं और पढ़ते हैं देवउठनी एकादशी व्रत की असली कथा:
देवउठनी एकादशी व्रत की असली कथा – 1
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे, “हे भगवान! मैंने कार्तिक कृष्ण एकादशी अर्थात रमा एकादशी का सविस्तार वर्णन सुना। अब आप कृपा करके मुझे कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के विषय में भी बतलाइये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसकी विधि क्या है? इसका व्रत करने से किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया यह सब विधानपूर्वक कहिए।”
भगवान श्रीकृष्ण बोले “ हे युधिष्ठिर! कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष मे तुलसी विवाह के दिन आने वाली इस एकादशी को विष्णु प्रबोधिनी एकादशी, देव-प्रबोधिनी एकादशी, देवोत्थान, देव उथव एकादशी, देवउठनी एकादशी, कार्तिक शुक्ल एकादशी तथा प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है, इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।”
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला, “महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें।”
तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय हाँ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा, “महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा, मुझे अन्न दे दो।”
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा, “हे प्रभु, आइए, भोजन तैयार है।”
उसके बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुंचे और प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए और वह व्यक्ति अपने काम पर चला गया।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा, “महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया।” राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता है।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला, “मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।”
राजा की बात सुनकर वह बोला, “महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें।” राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा, “हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।”
लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए।
यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
ये भी पढ़ें: Numerology: इन 3 तारीखों में जन्मे व्यक्ति जान लेते हैं लोगों के मन की बात, पैसा कमाने में भी रहते हैं आगे!
देवउठनी एकादशी व्रत की असली कथा – 2
एक राजा था, उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया।
उसने पूछा: “हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहाँ क्यों बैठी हो?” तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले, “मैं निराश्रिता हूँ। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगू?”
राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। राजा बोला, “तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो।” सुंदरी बोली, “हे राजन, मैं आपकी बात मानूंगी, पर आपको राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, आपको खाना होगा।”
राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोस कर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला, “रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा।”
तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली, “या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी।” राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली, “महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा।”
इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। माँ की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो माँ ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला, “मैं सिर देने के लिए तैयार हूँ। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी।”
राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई, “राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए।” भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला, “आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें।”
ये भी पढ़ें: Numerology: इन 3 तारीखों में जन्मे व्यक्ति जान लेते हैं लोगों के मन की बात, पैसा कमाने में भी रहते हैं आगे!
डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी धार्मिक शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।