दीपक दुबे, प्रयागराज।
Naga Sadhu: नागा साधुओं के बारे में कहा जाता है, ‘नीचे धरती ऊपर अंबर, बीच में घूमे स्वरूप दत्त दिगंबर’। नागा संस्कृति का रहस्य सांसों की तरह है, जो हर बार नई होती है। जिस प्रकार सांस शरीर से अभिन्न और अंदर प्रवेश कर जाती है, नागा संस्कृति भी इसी तरह सनातन धर्म में गहराई से घुसी हुई है। हजारों सालों से नागा संस्कृति एक रहस्य के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत है। सेवक की भूमिका रहना, फिर सेवक रहते रहते महापुरुष में तब्दील हो जाना, यह गौरव केवल नागाओं को हासिल है। एक महापुरुष के अंदर 12 साल गुजारने के बाद फिर नागा साधुओं संस्कार कराकर पिंडदान कराया जाता है।
नागा संस्कृति में 108 का महत्व
एक सौ आठ डुबकियां इसलिए लगाई जाती है समझिए कि एक सौ आठ रुद्राक्ष की माला, एक एक मोती के रूप में रुद्राक्ष को स्नान के रूप में उसको पवित्र करता है। बहुत क्रियाओं के निर्माण के बाद नागा साधु बनते है नागा साधु कहा से आते हैं और कहां चले जाते हैं, गुफाओं में, समुद्र में, नदी में, जंगलों में चले जाते हैं। पुराने मंदिरों और मठ में रहते हैं, जब जब कुंभ लगता है, तब यह उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयागराज में आते हैं।
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भस्म ही है इनका वस्त्र
गुरु परंपरा के हिसाब से समय पूर्ण होने पर नागा दिगंबर संन्यासी बनाए जाते हैं। 12 साल तक गुरु की सेवा करना अनिवार्य है, अन्यथा उसे गुरु की गरिमा का पता नहीं चलेगा। भस्म चढ़ाने के मंत्र होते है, शरीर पर धारण किये हुए रहते हैं। भस्म उतारने का मंत्र होता है, जब गंगा से में नागा संन्यासी स्नान करते है, तब भस्म सब उतर जाता है। भस्म ही इनका वस्त्र है, वस्त्रों की जरूरत संस्कृति और संस्कार के कारण पड़ती है। तैतीस करोड़ देवी देवता न सिर्फ नागाओं को बल्कि पूरे ब्रह्माण्ड को आशीर्वाद देते हैं। संन्यास और संस्कार की 6 प्रकार की प्रक्रिया है। अगर आप महाकाल की नगरी उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में हैं, तो आप संन्यास की दीक्षा ले सकते हैं।
गंगाजल भी हो जाता है पवित्र
सृष्टि भभूति से उत्पन्न हुआ है, गंगा का जल इसलिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि नागा संन्यासी कड़ी तपस्या करते हैं। चाहे फिर ठंड हो बारिश हो या गर्मी। नागा बाबा जो दिगंबर होते हैं, वो स्नान करते हैं। जब नागा संस्यासी स्नान करने जाते है, तो भाव बच्चे जैसा होता है, जैसा कि बचपन में हम पैदा होते है नग्न अवस्था में। नग्न होने से नागा बाबा नहीं कहलाते हैं। वस्त्र त्यागने और काफी तपस्या के बाद हमारा रूप दिगंबर हो जाता है। आसमान इनके लिए छत जबकि धरती माता इनके लिए बिछौना है। तपस्या में नागा संस्यासी जमीन पर भभूत लगा कर बैठते हैं।
इसी रूप में रहते हैं भगवान शंकर
भगवान शंकर भी इसी रूप में रहा करते हैं। नागा संन्यासियों में कोई मोहमाया नहीं होती है। जिसने हमको जन्म दिया वो भी माता है, लेकिन जब सन्यास लिया तो हम माता किसे मानेंगे? इसलिए धरती माता को मां माना है, उन्हीं की गोद में सोते हैं। आकाश निर्मल और पवित्र है यह हमारी छत्रछाया है। चौबीस घंटे तपस्या करते हैं, पूरी ट्रेनिंग दी जाती है। इन्हें तपस्या और भजन मंत्र सिखाया जाता है। एक सौ आठ डुबकी इसलिए लगाई जाती है क्योंकि भगवान शंकर को ही नागा अपना ईष्ट देव मानते है क्योंकि उन्होंने खुद मोह माया नहीं रखी थी। एक सौ आठ मुंड माला पहनते हैं और देवी के नाम से एक सौ आठ बार डुबकी लगाई जाती है। भभूति चढ़ाया जाता है, क्योंकि वह महादेव का रूप होता है।
हर कोई नहीं बन सकता है नागा साधू
हर कोई नागा संन्यासी नहीं बन सकता है जब तक महाकाल की कृपा न हो, तब तक कोई नहीं बन सकता है। महाकाल में खूनी नागा बाबा होते हैं। पहले के समय में नागा संन्यासी को अपने धर्म की रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र उठाना पड़ता था। कुंभ में इसलिए देवी-देवता आते है क्योंकि देवताओं की शक्ति से नागा संन्यासी को शक्ति मिलती है, तभी कठिन तप और तपस्या कर पाते हैं। इसके लिए ईश्वर के आशीर्वाद या फिर गुरुदेव या ईष्ट देवता का आशीर्वाद जरूरी होता है। नागा बाबा अपने रहस्य के बारे में नहीं बताते हैं और न बताना चाहिए। कड़ाके कि ठंड हो या बारिश या भीषण गर्मी, दैवीय शक्ति नागा साधुओं को अंदर से मिलती है। बारह साल का टेस्ट होता है कि यह नागा दिगंबर बन पाएगा या नहीं। अलग अलग प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।
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