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नरेंद्र मोदी बड़े बदलावों और मज़बूत इरादों वाले प्रधानमंत्री

डॉ मीना शर्मा  PM Narendra Modi Big Changes : 75 सालों के संसदीय इतिहास में भारत के दोनों सदनों में अब तक 7500 से ज्यादा सांसद पहुंचे, जिनमें महिलाओं की संख्या 700 भी नहीं पहुंच पायी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता के नशे ने पुरुषों को इतना स्वार्थी बना दिया कि घर […]

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डॉ मीना शर्मा  PM Narendra Modi Big Changes : 75 सालों के संसदीय इतिहास में भारत के दोनों सदनों में अब तक 7500 से ज्यादा सांसद पहुंचे, जिनमें महिलाओं की संख्या 700 भी नहीं पहुंच पायी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता के नशे ने पुरुषों को इतना स्वार्थी बना दिया कि घर में देवी बनाकर रखने वाले, महिला को देहरी के बाहर लाने से डरते रहे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उस देवी को अब लोकतंत्र के मंदिर में स्थापित करने का साहस दिखाया है। सामाजिक सुधारों के प्रयासों में मोदी सरकार का यह योगदान आज़ाद भारत के सबसे बड़े फ़ैसलों के रुप में गिना जाएगा। दुनिया के बड़े-बड़े प्रगतिवादी, लोकतांत्रिक राष्ट्र ऐसा नहीं कर पाए, जैसा हमारी नई संसद ने कर दिखाया है और यह नरेन्द्र मोदी के मज़बूत इरादों के बिना मुमकिन नहीं था। लोकतंत्र के दमन के आरोपों से घिरे नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने 19 सितंबर 2023 को ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ के जरिए एक नई लोकतांत्रिक क्रांति की नींव रख दी है। पिछले 27 साल से संसद के गलियारों में दबे कुचले उस बिल को पुनर्जीवन दे दिया है जिसे अब तक की प्रचंड बहुमत वाली कांग्रेस की एक दलीय और अन्य गठबंधन सरकारें नहीं कर पायीं। विचारों की भिन्नता हमारे चिंतन का आधार है और चिंतकों का वैचारिक विभाजन भारतीय लोकतंत्र की मज़बूत बुनियाद, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक और विरोधी, दोनों ही विचारों को देश ने पूरी अहमियत दी है। यही भारत की खूबसूरती भी है और ताकत भी। नए संसद भवन में प्रवेश करते समय पुरुषों से घिरे प्रधानमंत्री मोदी और पुराने संविधान भवन के सेंट्रल हाल में 19 सितंबर 2023 को ही मंच पर बैठे पुरुषगण इस बात की गवाही देते हैं कि हमारी सरकारों ने पहली कतार में महिलाओं के लिए जगह सुनिश्चित करने की सार्थक कोशिश नहीं की। ये भी पढ़ें : संसद की गरिमा और मर्यादा दोनों भूले BJP रमेश बिधूड़ी, बसपा के दानिश अली को बोले गंदे-गंदे शब्द पुराने संसद भवन को विदाई देने के लिये आखिरी दिन सेंट्रल हाल में समारोह का आयोजन किया गया। नये भवन में प्रवेश करने से पहले आयोजित किए गए, इस विदाई समारोह में 7 लोग मंच पर बैठे थे, लेकिन वहां पर एक भी महिला मौजूद नहीं थी। क्या उस ऐतिहासिक पल की गवाही देने वाले आयोजन में एक भी काबिल महिला हिंदुस्तान की संसद में मौजूद नहीं थी? जिसे ‘संविधान सदन’ की घोषणा करने वाले उस मंच पर होना चाहिए था ? मंच पर देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस पार्टी के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे के साथ प्रह्लाद जोशी और पीयूष गोयल की मौजूदगी हमारी सोच का प्रतिबिंब ही तो थी। अगर मोदी सरकार विपक्षी गठबंधन की नेता सोनिया गांधी या सबसे वरिष्ठ महिला सांसद मेनका गांधी को मंच पर साथ लेकर चलने की कोशिश करती तो ये उनकी नीति और नीयत में इमानदारी दिखाने वाला फ़ैसला होता। लेकिन इस ऐतिहासिक दिन के आयोजन पर मंच पर एक भी महिला विराजमान इसलिए नहीं थी क्योंकि हमने महिलाओं को मंच के काबिल समझा ही नहीं। आज़ादी के 75 सालों के अमृत महोत्सव की यही विडंबना ही है कि आज तक बीजेपी ने किसी महिला को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनाया। किसी प्रदेश में उनकी पार्टी की अध्यक्ष, कोई महिला नहीं है और इसके साथ ही किसी राज्य में पार्टी की महिला मुख्यमंत्री नहीं है और तो और पार्टी के 11 संसदीय बोर्ड में अकेली महिला डॉ सुधा यादव हैं। वहीं ऐसा ही कुछ हाल, कांग्रेस पार्टी का भी है। क्षेत्रिय दलों की तो बात ही छोड़िए, ममता बैनर्जी इस देश में इकलौती राजनीतिक सफलता का उदाहरण हैं, जिसने अपने दम पर पश्चिम बंगाल जैसे राज्य की सत्ता हासिल की है। जयललिता और वसुंधरा राजे ने हाथ में मिली राजनीतिक विरासत को बहुत शिद्दत से आगे बढ़ाया, लेकिन जयललिता के बाद एआईएडीएमके ढ़ह गयी है और वसुंधरा राजे आज बीजेपी में अस्तित्व की जंग लड़ रही है। ऐसे विपरीत हालात में देश के कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा रखा गया ये बिल, राजनीति के सूखे रेगिस्तान में भरी बौछारों वाला है। संसद भवन से निकल कर दूर दराज़ के गांवों, शहरों तक पहुंचने वाली ये बौछारें ना सिर्फ प्रतिभावान महिलाओं के चेहरों पर रंगत लाएंगी बल्कि बंज़र बतायी गयी जमीं को लहलहाते भी देखेंगी। कितना अच्छा होता कि मोदी इस फ़ैसले को सालों की प्रक्रिया में उलझाने की बजाय न्याय की शुरुआत आज से ही कर देते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ऐतिहासिक बिल को लाने का साहस दिखाकर सभी विरोधियों को एक साथ निशाने पर तो लिया है लेकिन लंबी कानूनी प्रक्रिया में उलझा कर विरोधियों को प्रहार का मौका भी दे दिया है। नये संसद भवन का पहला बिल ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ 128 वां संविधान संशोधन है। इसके मुताबिक महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। लोकसभा की 543 सीट में से 181 महिलाओं के लिए सुरक्षित होंगी। विधेयक के खंड पांच में ये भी स्पष्ट किया गया है कि यह जनगणना और परिसीमन के बाद ही लागू हो सकेगा। संसद और विधानसभा में दो तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी। इसी दो तिहाई में से एक तिहाई अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित की गईं हैं। यह भी पढ़ें : चाचा और भतीजे की NCP पार्टी पर कब्जे की लड़ाई और तेज, अजित गुट ने चली यह चाल… 2024 के चुनाव के बाद आने वाली नई सरकार इसमें बदलाव भी कर सकती है। गौरतलब ये भी है कि इस बिल के मुताबिक महिलाओं की भागीदारी अभी सिर्फ निम्न सदन में बढ़ेगी। उच्च सदन यानि राज्यसभा और विधानपरिषदों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाने का प्रावधान इस अधिनियम में नहीं किया गया है। 15 वर्षो के लिये ये प्रावधान किया गया है जिसे उस समय की परिस्थिति के बाद हटाया भी जा सकता है और बढ़ाया भी। कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी आज वही मांग कर रहे हैं जो 2010 में यूपीए के राज्यसभा में बिल लाने पर लालू मुलायम कर रहे थे। बिल पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने संसद में कहा कि ओबीसी महिलाओं को भी इसका फायदा मिलना चाहिए, लेकिन गृह मंत्री अमित शाह ने ओबीसी के बीजेपी सांसदों और विधायकों के आंकड़े जब ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ पर बहस के दौरान नई संसद में रखे तो सबकी बोलती बंद कर दी। इतिहास पर नज़र डालें तो 1947 में संविधान सभा की बैठकों में भी महिला आरक्षण पर चर्चा हुई थी। 1971 में केन्द्र सरकार ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए एक समिति का गठन किया था। एच डी देवेगौड़ा सरकार ने 12 सितंबर 1996 को पहली बार महिला आरक्षण बिल संसद में पेश किया था। साल 2010 में राज्यसभा से इस बिल को पारित कराने की कोशिश यूपीए सरकार ने खूब की, लेकिन लोकसभा में ये पारित नहीं हो सका। कांग्रेस के इस आरोप में भी ज़्यादा दम नहीं है कि उस वक्त बीजेपी ने विरोध किया क्योंकि बीजेपी उस वक्त बिल का समर्थन करती तो भी सपा और राजद ने बिल का विरोध करते हुए समर्थन वापस लेने की धमकी दी थी इसलिए बीजेपी ने उस वक्त बिल का विरोध किया था इसलिए ये बिल पारित नहीं हुआ, अब कांग्रेस ये आरोप नहीं लगा सकती। भले ही 2004 में राज्यसभा में रखे गए बिल पर सोनिया गांधी की राहत भरी प्रतिक्रियाओं के वीडियो वायरल जाएं या फिर कुछ राजनीतिक दल इसे दशकों पुरानी अपनी मांग बताएं। हकीकत ये है कि महिलाओं को राजनीतिक न्याय देने के लिए स्वर्णिम अक्षरों में मोदी सरकार का नाम लिखा जाएगा। महिलाओं को अपने साथ लेने का ये प्रयास मोदी पहली बार नहीं कर रहे हैं। अहमदाबाद की मणिनगर विधानसभा से मोदी की तीन बार जीत सुनिश्चित महिलाओं ने ही थी। कम ही लोग जानते हैं कि महिलाओं के प्रति राजनीति में मोदी की संवेदनशीलता बढ़ाने का श्रेय गुजरात में उनकी सरकार में मंत्री रही आनंदी बेन पटेल को भी जाता है। निश्चित ही महिला संगठनों से लेकर संसद तक महिलाओं को राजनीतिक न्याय देने की मांग और बहस का एक लंबा इतिहास है, लेकिन यक्ष प्रश्न है फ़ैसला किसने लिया? ऐसा नहीं है कि इस फ़ैसले से देश की महिलाओं के वोट सुनामी बनकर बीजेपी के विरोधियों को चित्त कर देगी। सीटों के गणित बिगड़ने की भी पूरी आशंका है। भले ही विपक्ष और मोदी विरोधी खेमा ये आरोप लगाये कि ये बिल 2024 के चुनाव साधने की रणनीति है, लेकिन ऐसी रणनीति बनाने का मौका इस देश की पूर्ववर्ती सरकारों के पास भी खूब था। सत्ता में बैठे हुए जो काम नहीं कर सके, उन्हें सत्ता पर चुनावी स्टंट का आरोप लगाने का नैतिक अधिकार नहीं है। कांग्रेस पार्टी ने प्रचंड बहुमत का सुख भी भोगा है और गठबंधन का संताप भी। https://www.youtube.com/live/6KF0tgj5KoI?si=thpnv3y1x2Hx-RML


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