Opinion: क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर यहां सेवा के लिए आते हैं या मेवा खाने?
Opinion: मेरा उपरोक्त सवाल आप किसी बुद्धिजीवी से पूछे या किसी अनपढ़ से पूछे तो उत्तर एक सा ही मिलेगा!! यानी कि सब यहां सरकार के बड़े-बड़े बंगलो, बिना जवाबदेही की नौकरी, दुनिया भर की लीगल और एक्स्ट्रा लीगल सुविधाएं, फेवर, घूस और रुतबे के लिए आते हैं यानी कि सबको मेवा ही मेवा चाहिए।
आईएएस में आने वाले अधिकांश छात्र इंटरव्यू में इस तरह के जवाब देते हैं:
"मैं मदर टेरेसा से प्रभावित होकर लोगों की सेवा करने के लिए आईएएस बनना चाहता हूं।
मैं बचपन से ही गांधी जी की जीवनी से प्रभावित हो गया था और उनकी इच्छानुसार गांवों को स्वावलंबी बनाना चाहता हूं।
मैं गरीब परिवार से हूं मैंने गरीबी को नजदीक से देखा है इसलिए मैं दलितों और वंचितों के लिए काम करना चाहता हूं।
मैं महिला सशक्तिकरण के लिए काम करना चाहती हूं।
मैं आईएएस में आकर एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहती हूं।"
यह एक शोध का विषय है कि इंटरव्यू में इतने बड़े-बड़े दावे करने वाले और गरीब परिवारों और मध्यमवर्गीय परिवारों से आकर कलेक्टर बन जाने वाले लोग भी अचानक इतने असंवेदनशील और यथास्थितिवादी कैसे हो जाते हैं ?
हमारे यहां भारतीय प्रशासनिक सेवा या आईएएस बनने वाले अनेक अधिकारी समृद्ध परिवारों के अलावा ग्रामीण और गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि से भी आते हैं। यदि इंटरव्यू में इनके द्वारा दिए गए उत्तर पर विश्वास किया जाए तो यह पूरे देश को बदलने की क्षमता और संकल्प और नए विचार व जोश लेकर आते हैं। वे चयन से पहले भारतीय समाज के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने और जमीनी हकीकत से अच्छी तरह से अवगत होते हैं। लेकिन कड़वा सच यह है कि सरकारी सेवा में आते ही ये सब नगद रिश्वत या 'फेवर' लेकर अपनी पचास पीढ़ियों के लिए धन उपार्जन में लग जाते हैं।
सामान्यतः आईएएस बनते ही अधिकारी घमंड में चकनाचूर हो जाता है। वह अपनी पृष्ठभूमि भूल जाता है। आम आदमी के लिए उसे अप्रोच करना असंभव नहीं तो अत्यंत मुश्किल होता है। वह विधायक और मंत्रियों की चापलूसी करता है और आम आदमी की उपेक्षा!
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यह आधुनिक 'जागीरदार' अपने आप को शहंशाह समझने लगते हैं परंतु आज आईएएस के प्रति जनता की धारणा एक अभिजात्य, स्वार्थी, यथास्थिति को कायम रखने वाले नौकरशाहों के समूह की है, जो वास्तविकता के धरातल से कोसों दूर हैं और जो अपने विशेषाधिकारों व अपने पद का लाभ लेकर अगली पचास पीढ़ियों के लिए धनोपार्जन में लगे हैं।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी ने अपने लेख में कहा है कि हमेशा से आईएएस ऐसे नहीं थे। 1970 के दशक के मध्य में जब वे सेवा में एक नए प्रवेशकर्ता थे, उस समय अगर सरकार पर विपक्ष द्वारा किसी घोटाले को लेकर हमला किया जा रहा होता था, तो मुख्यमंत्री को बस इतना कहना पड़ता था कि वह मामले की जांच के लिए एक आईएएस अधिकारी नियुक्त कर रहे हैं और मामला शांत हो जाता था। लोग उस समय आईएएस अफसर की बात पर भरोसा करते थे। आजअगर किसी सीएम ने ऐसा कहा तो कोई उसपर भरोसा नहीं करेगा।
गिरावट कब शुरू हुई, इसका सटीक काल खंड बताना मुश्किल है। जब स्वतंत्रता के तुरंत बाद आईएएस प्रणाली की स्थापना की गई थी, तो इसे एक गरीब, निरक्षर समाज में विकास और गरीबी उन्मूलन करने के एक अभूतपूर्व प्रयोग की शुरुआत करने हेतु हजारों समस्याओं के घरेलू उत्तर के रूप में देखा गया था।चाहे वह कृषि विकास, भूमि सुधार, सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण, उद्योग को बढ़ावा देना, स्वास्थ्य और शिक्षा वितरण में सुधार, सामाजिक न्याय को लागू करना या कानून का शासन लागू करना हो, आईएएस को 'डिलीवरी' तंत्र के रूप में देखा जाता था। आईएएस अधिकारियों के चरित्र में आने वाली गिरावट से इस व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य विफल हो गया ।
आईएएस बिरादरी ने अपना लोकाचार और अपना रास्ता खो दिया। नकारात्मकता,अयोग्यता, उदासीनता और भ्रष्टाचार अंदर घुस गया। एक ईमानदार मुख्यमंत्री ने एक बार कहा था कि आईएएस अधिकारियों में से लगभग 25% हार्डकोर असंवेदनशील, भ्रष्ट या अक्षम होते हैं , 50% खुशी-खुशी यथास्थितिवादी और पापी बन जाते हैं और उन्हें अपना सारा काम करने के लिए शेष 25% पर निर्भर रहना पड़ता है।
आईएएस के साथ सबसे बड़ी समस्या अच्छी कार्यप्रणाली पर प्रोत्साहन और भ्रष्ट व दोषपूर्ण रवैये पर दंड के प्रावधान का अभाव है। भारतीय प्रशासनिक सेवा अभी भी देश की कुछ सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को आकर्षित करती है और युवा 'रंगरूट' तेज दिमाग और उत्साह से भरे हुए 'दुनिया को बदलने' के लिए आते हैं। लेकिन जल्द ही, वे निजी स्वार्थ और राजनीतिज्ञों की चापलूसी के दलदल में फंस जाते हैं, वे आलसी और निंदक हो जाते हैं, और बदतर, अपने भीतर समाज को बदलने की उत्कंठा और ऊर्जा को खो देते हैं।
आईएएस अधिकारी देश को ये संदेश देना चाहते हैं: "मैं महान काम करने जा रहा था लेकिन राजनेताओं ने रास्ते में आकर मुझे रोक दिया।" राजनीतिक हस्तक्षेप की चुनौती को कम करके नहीं आंका जा सकता। लोकतंत्र में यह स्वाभाविक है। लेकिन आईएएस के बौद्धिक और नैतिक पतन के लिए सिर्फ राजनेताओं को दोष देना एकतरफा और मूर्खतापूर्ण है।
सच्चाई यह है कि किसी भी आईएएस के लिए समाज के प्रति संवेदनशील होकर ईमानदारी के साथ नई-नई इन्नोवेटिव योजनाएं लाना और उन्हें क्रियान्वित करने के बजाय सुविधाजनक यह है कि वह दिमाग का कम से कम इस्तेमाल करें और राजनीतिज्ञों की पग चंपी करते हुए बहती गंगा में हाथ धोकर खुद धन उपार्जन करें तथा भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को कमाने खाने में भरपूर सहयोग करें। यदि कोई आईएएस राजनीतिज्ञों को उनकी भ्रष्टाचार में सहयोग करता है तो वह खुद भी कमाता खाता है तथा इस बात की भी भरपूर संभावना रहती है कि रिटायरमेंट के बाद उसे कोई पद मिलेगा।
अब एक और नया खतरनाक ट्रेंड विकसित हो रहा है, वह यह कि आईएएस अफ़सर रिटायरमेंट के दो चार साल पहले या रिटायर होने के बाद चुनाव लड़कर खुद विधायक,मंत्री या सांसद बनना चाहते हैं ताकि जीवन में जो मजे लेने से रह गए हैं, उनका भी भरपूर रसास्वादन और आनंद ले सकें।
सच तो यह है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था, चाहे वह कितनी भी घिनौनी क्यों न हो, एक नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कर सकती, अगर वह एकजुट हो और नैतिकता और पेशेवर अखंडता के उच्च मानकों के लिए प्रतिबद्ध हो। अफसोस की बात है कि हमारे आईएएस अफसरों की स्टोरी ये नहीं है।
अब वह समय आ गया है जब भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों के चयन,उनकी ट्रेनिंग, उनकी कार्यप्रणाली तथा पदोन्नति की संपूर्ण प्रक्रिया पर नए सिरे से चिंतन और मनन हो तथा इस सिस्टम में बदलाव के समय मल्टी नेशनल कंपनियों की प्रबंधकीय प्रणाली की अच्छी बातों का अनुसरण किया जाए।
चलते चलते : यदि किसी ऑफिस में चाय वाला सात दिन की छुट्टी मार जाए या घर की कामवाली बीमार हो जाए तो हाहाकार मच जाता है लेकिन आईएएस साहब दो महीने छुट्टी पर चले जाएं तो कोई फर्क पड़ेगा ? आप ही बताएं !!
डिस्क्लेमर : अपवाद स्वरूप कुछ आईएएस अफसर ईमानदार व प्रोडक्टिव हो सकते हैं।
(लेखक राजनैतिक टिप्पणीकार हैं। इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं तथा News24 इसके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।)
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